Thursday 17 March 2022 04:45 PM IST : By Nishtha Gandhi

बिरज की होली का अलग है रंग

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होली का जिक्र हो, तो ब्रज की लट्ठमार होली के बिना बात अधूरी ही रह जाएगी। रास-रचैया, बंसी बजैया श्री कृष्ण ही होली के असली कर्णधार माने जाते हैं। कहा जाता है कि गोपियों के साथ होली खेलने की शुरुआत भगवान श्री कृष्ण ने ही की थी और इस परंपरा को आज भी वहां कायम रखा गया है। होली की टोली में रंग से लिपेपुते चेहरे लिए स्त्री-पुरुष स्वयं को गोप-गोपी कहलाने में ही आनंदित होते हैं। 

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ब्रज की होली आज भी पूरे एक सप्ताह तक जारी रहती है। इन दिनों में ब्रज के ग्वाले बरसाने की गोपियों के साथ राधा-कृष्ण के इसी प्रेम को मानो पुनर्जीवित करने का प्रयास करते हैं। होली के आयोजन को उनके पावन प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है। भारत के किसी भी हिस्से में होली का ऐसा भव्य और रंगरंगीला स्वरूप देखने को नहीं मिल सकता। बरसाना दरअसल, राधा का जन्म स्थान है। माना जाता है कि भगवान कृष्ण अकसर वेष बदल कर यहां राधा समेत अन्य गोपियों के साथ रास रचाने पहुंच जाया करते थे। एेसे ही एक दिन उन्हें ठिठोली सूझी और वे गोरी राधा को अपने जैसे सांवले रंगवाली बनाने के लिए उनके चेहरे पर काला रंग लगाने पहुंच गए। लेकिन बरसाने की स्त्रियों ने कृष्ण और उनके मित्र ग्वालों को लाठियों से पीट-पीट कर वहां से भगा दिया। तभी से हर वर्ष इस अवसर को होली के त्योहार के रूप में मनाया जाने लगा और नंदगांव और बरसाने के बीच लट्ठमार होली की परंपरा शुरू हो गयी।

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आज भी नंदगांव के पुरुष ग्वालों के वेष में टोली बना कर नंदगांव की गोपियों के साथ होली खेलने बरसाना गांव पहुंचते हैं। ये लोग वहां के राधा-रानी मंदिर में नंदगांव का झंडा फहराने जाते हैं और वहां की स्त्रियां उनका स्वागत लाठियों और गालियों से करती हैं। लाठियों की इस लीला के बीच खूब रंग उड़ता है, गालियां दी जाती हैं, नाच-गाना होता है और हर कोई भांग पी कर झूम रहा होता है। 

मस्ती का अंत यही नहीं होता, जोश में भरी, लाल-गुलाबी लहंगा-चूनर में सजीधजी महिलाएं पुरुषों के लिए लहंगा-चुनरी भी तैयार रखती हैं। जो पुरुष इन महिलाअों के हत्थे चढ़ जाता है, उसे लहंगा-चुनरी पहना कर खूब मजाक उड़ाया जाता है। कहा जाता है कि बरसाने की गोपियों ने कृष्ण के साथ भी ऐसा ही बर्ताव किया था। पुरुष भी अपने बचाव की पूरी तैयारी के साथ आते हैं। इनके हाथों में बड़ी-बड़ी ढाल होती हैं, जिन्हें ये चमकीले कागजों से सजा कर लाते हैं। इनका मानना है कि इन लाठियों की मार से चोट नहीं लगती। अगर किसी को चोट लग भी जाती है, तो वह शरीर पर मिट्टी मल कर दोबारा इस लहर में शामिल हो जाता है। लाठियों की तड़-तड़ के बीच कीर्तन मंडलियां कान्हा बरसाने में आई जइयो, बुलाए गयी राधा प्यारी, फाग खेलन आए हैं नटवर नंद किशोर और उड़त गुलाल लाल भए बदरा गीत गा कर समां बांधती हैं। लट्ठमार होली से एक दिन पहले यहां लड्डूमार होली भी होती है, जिसमें लोग एक-दूसरे पर लड्डू फेंक कर नाचते-गाते हैं। 

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लट्ठमार होली के अगले दिन बरसाने के पुरुषों की बारी होती है नंदगांव की गोपियों से बदला लेने की। उनके साथ भी वही होता है, जो नंदगांव के पुरुषों के साथ होता है। सप्ताहभर चले इस उत्सव के चौथे दिन रंगभरनी एकादशी होती है। इस दिन मथुरा के कृष्ण जन्मभूमि मंदिर में लट्ठमार होली खेली जाती है। अगले दिन बांके बिहारी मंदिर के कपाट खोल कर मंदिर के पुजारी श्रद्धालुअों पर फूलों और गुलाल की वर्षा करते हैं। उसके दूसरे दिन गाेकुल में होली मनायी जाती है और फिर मथुरा के द्वारकाधीश मंदिर में। होलिका दहन के दिन वृंदावन की गलियों में खूब होली खेली जाती है और फिर धुलेंडी के दिन ब्रज समेत पूरे देश में रंग खेला जाता है। 

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गोवर्धन के निकट गुलाल कुंड के नाम से मशहूर एक छोटी सी झील है। इस दिन यहां के निवासियों का उत्साह भी देखते ही बनता है। स्थानीय लोग इस कंुड पर आ कर रंग खेलते हैं और कृष्ण लीलाअों का आयोजन करते हैं।

इस क्षेत्र में होली की तैयारियां एक महीना पहले से शुरू हो जाती हैं। घरों में पकवान बनने शुरू हो जाते हैं और महिलाएं अपनी पुत्रवधुअों को पौष्टिक भोजन खिलाना शुरू कर देती हैं, ताकि लट्ठमार होली के दिन वे होली खेलने आए ग्वालों से किसी मामले में कम साबित ना हों। 

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ब्रज की होली की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए इस दिन राज्य सरकार द्वारा पर्यटकों के लिए भी विशेष इंतजाम किए जाते हैं। कभी ब्रज की होली का आनंद लेने का मौका मिलेगा, तो आप देखेंगे कि ना सिर्फ अपने देश के बल्कि विदेशों के भी कई पत्रकार और फोटोग्राफर इस होली को कैमरे में कैद करने के लिए यहां पहुंचे होते हैं।

बरसाना पहुंचने के लिए आपको ट्रेन से मथुरा पहुंचना होगा और वहां से आप बस या टैक्सी से बरसाना पहुंच सकते हैं।

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