Wednesday 16 March 2022 11:56 AM IST : By Indira Rathore

आयो नवल वसंत सखी... अदभुत है उत्तराखंड की होली

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धूप कहां तब चुभती थी, मस्ती में हवा बहती थी
तितलियों-भौरों में, ना था कोई बैर-भाव संग फूलों के उनकी, तो गहरी छनती थी

दिल पेड़ों का था उदार छांह तले उनकी हर उम्र सुस्ता लिया करती थी वासंती हो जाते थे मन, जब रंगों से कुदरत सजती थी...

रंगों का यह महीना मुझे बचपन की उस आजाद दुनिया में लौटा ले जाता है, जहां सब कुछ बहुत हसीन हुआ करता है। प्रकृति के रंग चटक होते हैं, तो इंसानों के चेहरे भी हंसमुख। पहाड़ की तराई में घने जंगल और शारदा नहर से घिरी वह हाइडिल की शांत सी कॉलोनी थी। बमुश्किल दो-तीन सौ परिवार, जो अलग-अलग जगहों से आते थे, मगर फिर यहां की पहाड़ी आबोहवा और संस्कृति में ऐसा रचते-बसते कि कहीं और जाना ना चाहते। आसपास कुछ छोटे-छोटे गांव और मीलों तक फैले खेत, जहां से किसानों के श्रम और पकी फसलों की महक आती। किसी बाहरी के लिए कल्पना करना जरा मुश्किल था कि निकटतम तहसील खटीमा से चार-पांच किलोमीटर दूर, कोलतारवाली लंबी सी पतली सड़क एलिस इन वंडरलैंड जैसी किसी खूबसूरत दुनिया में पहुंचा सकती है। जैसे कोई बोल-खुल जा सिमसिम और एक जादुई-मखमली संसार के दरवाजे खुल जाएं। 

गुजिया-चिप्स और गीत-संगीत 

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फरवरी में वसंत पंचमी हम बच्चों के लिए खास होती। दिन में पीले लहंगों-चुन्नियों में लिपटे हम स्कूल में सरस्वती वंदना गाते, तो शाम को घर में संगीत की महफिल का आगाज हो जाता। देवभूमि उत्तराखंड की होली अपने अलग अंदाज के लिए मशहूर है, तराई में बसी इस छोटी सी जगह की होली में भी वही धमक होती। खड़ी होली, बैठकी होली, स्वांग का सिलसिला होली बीतने के भी कई दिन बाद तक चलता रहता। बचपन में हम त्योहारों के धार्मिक-आध्यात्मिक-शास्त्रीय महत्व को तो भला क्या समझेंगे, हमारा उत्सव तो उस दिन शुरू हो जाता, जिस दिन घर के आंगनों में चारपाइयां बिछतीं और धूप में चिप्स, पापड़ सुखाए जाने लगते। आसपड़ोस की सभी महिलाएं इस काम में जुटतीं...। चूल्हे पर बड़े-बड़े देगों में आलू उबलते रहते या भाप में पापड़ बनते। बड़े-बड़े तेल के पीपों में चिप्स, पापड़, नमकपारे, मठरी और गुजिया भरी जाने लगतीं। 

अल्लम-गल्लम सब हजम

यह दूरदर्शन वाला दौर था, मोबाइल फोन ने जीवन में सेंध नहीं लगायी थी। मनोरंजन के नाम पर बुधवार-शुक्रवार के चित्रहार व रविवार की फिल्मों के अलावा ढेर सारी किताबें, बुनाई-क्रोशिया-कढ़ाई के लुभावने डिजाइन हुआ करते। ना तो अजब-गजब बीमारियां, ना ही कोई डाइट रूल्स। त्योहारों का तो मतलब ही अल्लम-गल्लम खाना होता था। ना कैलोरी की चिंता, ना हाजमा बिगड़ने की। नए कपड़े भी त्योहार पर ही बनते। दुकानों से थान के थान कपड़े आते, दर्जियों के भाव बढ़ जाते, बहुत इसरार करने के बाद ही ऐन त्योहार से पहले सारे भाई-बहनों के कपड़े सिल कर आते। तब नए कपड़े पहनने की खुशी ही अलग हुआ करती थी। 

चाय संग गुड़ की कटकी

होली के लगभग 2 महीने पहले शाम को घरों में संगीत महफिलें जमने लगतीं। घर की बैठकी में दरियां बिछ जातीं। दीवार के सहारे मसनद, ढोलक, हारमोनियम, तबला, मंजीरा, हुड़का, ढपली, चिमटा, थाली-चम्मच सज जाते। बैठक का आगाज माथे पर अबीर-गुलाल का टीका लगाने से होता। पत्तलों में आलू के चटपटे गुटके होते, तो गिलास भर चाय संग गुड़ की कटकी। धुरंधर गायकों के पास अपनी डायरी होती, जिसमें सरगम के हिसाब से गीत लिखे होते। महफिल गणेश वंदना से शुरू होती, इसके बाद वसंत गीत, राधा-कृष्ण, शिव भजन शुरू होते। मुबारक हो मंजरी फूलों भरी, आयो नवल वसंत सखी, जल कैसे भरूं जमुना गहरी, शिव के मन माहि बसे काशी, जिनके पिया परदेस बसत हैं... जैसे राग-रागिनियों भरे गीत प्रफुल्लित करते। भक्ति, प्रेम, विरह, शृंगार, वात्सल्य, हंसी-ठिठोली से ले कर बैराग तक हर भाव इन गीतों में होता। महिलाओं की अलग बैठकी दोपहरों में जमा करती। राग यमन से शुरू हो कर देश राग, पीलू, काफी, विहाग, खम्माज, जैजेवंती, भीम पलासी और भैरवी के साथ बैठक स्थगित होती। 

स्वांग और हंसी-ठिठोली

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होली के करीब आते-आते महिलाओं का स्वांग कार्यक्रम शुरू हो जाता। सूट-बूट-टाई-हैट पहने, हाथ में छड़ी लिए चेहरे पर मूंछें लगाए महिलाएं किसी घर में घुसतीं, तो सहसा कोई पहचान ना पाता। फौजी ड्रेस स्वांग का अनिवार्य हिस्सा थी। वैसे कभी-कभी स्वांग में पुरुष भी घुसपैठ करते। एक अंकल जो डुएट गा लेते थे और कई आवाजें निकालने के लिए मशहूर थे, एक बार ऐसी ही घुसपैठ कर बैठे। दाढ़ी-मूंछ सफाचट, चेहरे पर मेकअप, लंबे बालोंवाला विग लगा कर उन्होंने करीने से साड़ी पहनी, लंबा सा घूंघट निकाल पड़ोसवाले घर के दरवाजे खटखटाए। यह दोपहर का वक्त था। घर की महिला ने दरवाजा खोला, तो स्वांगधारी ने किसी जानकार का नाम ले कर कहा कि वे उनके पति हैं। वे महीनों बाद गांव से आयी हैं, मगर पति रखना नहीं चाहते, ऐसे में पति के अधिकारियों को कुछ करना चाहिए। संकट की स्थिति में एक महिला दूसरी के काम ना आए, ऐसा कैसे हो सकता था। महिला के कथित पति थोड़ा सीक्रेटिव मिजाज के थे, उनके मैरिटल स्टेटस का भी कुछ पता ना था। ऐसे में उन पर थोड़ा संदेह हो जाना भी लाजिमी था। बहरहाल घूंघट में ही महिला ने चाय-पानी पिया, ढेर सारी शिकायतें और रोना-धोना कर आश्वस्त होने के बाद ही वे उस घर से निकलीं। पीछे से लोगों ने देखा, तो उनकी चाल से शक हो आया। बाद में खुलासा हुआ कि ये तो संगीत महफिलों के प्रमुख गायक थे, तो महिलाओं ने मिल कर उनकी खूब लानत-मलामत कर दी। 

प्रकृति का हर रंग मोहक

होली के कुछ दिन पहले से खड़ी होली शुरू हो जाती। रंगवाली होली (छरड़ी) के दिन सफेद कुरता-पाजामा और सिर पर सफेद टोपी पहने पुरुष हुड़के के साथ गोल घेरे में नृत्य-संगीत का आनंद उठाते। इसमें उत्तराखंड की पारंपरिक धुनों और संगीत की झलक होती। इन नृत्यों में पैरों का संचालन खास तरह से होता है और गोल घेरे में हर व्यक्ति दूसरे के कंधों पर दोनों हाथ रखता है। हुड़केवाला व्यक्ति घेरे के बीच में रहता है। पहाड़ में होली सूखे रंगों से ही खेली जाती है। उन दिनों उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था और चूंकि छोटी सी इस सरकारी कालोनी के बाशिंदे यूपी के अलग-अलग हिस्सों के थे, तो कभी-कभी पानीवाले रंग भी लोग इस्तेमाल कर लेते थे। हम बच्चे तो रंगबिरंगी पिचकारियों में ही खुश थे। होल्यार हर घर के सामने गाते-बजाते, गुजिया-चिप्स खाते, आशीष देते आगे बढ़ते। दोपहर दो-तीन बजे के बाद सड़कें सुनसान हो जातीं। नहा-धो कर आराम फरमा कर शाम को मिलने-मिलाने का कार्यक्रम चला करता। हम भी नए-नए कपड़े पहन कर दोस्तों को दिखाने निकल पड़ते। 

किसने पहने सबसे सुंदर कपड़े

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तब हर घर के सामने अमरूद, आम, नाशपाती, केले, कटहल, सब्जियों के अलावा मार्च के रंगबिरंगे फूलों की कतारें जरूर होतीं। खेतों में पीली सरसों लहरा कर एक-दूजे से गले मिलती। हवा में मौसमी फूलों और अबीर-गुलाल की मादक खुशबू बिखरी होती। टेसू अपने नारंगी-पीले फूलों के साथ हर चेहरे को न्यौता देता- जरा करीब आ कर थोड़ा रंग चुरा लो। पेड़ों की शाखाएं पुराने पत्तों का लिबास उतार ताजा नए पत्तों को धारण करने लगतीं। समूची कायनात रंगों के सागर में डूबती-उतराती। मानो इंसान व प्रकृति में होड़ हो, किसके कपड़े सबसे सुंदर हैं...। 

वक्त के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। जीवन की आपाधापी ठहर कर सोचने, जड़ों तक लौटने की मोहलत भी नहीं देती, लेकिन स्मृति वन के चक्कर काटता मन मयूर तो अब भी उन्हीं रंगीन कल्पनाओं के पंख लिए नाचता-गुनगुनाता है- आयो नवल वसंत सखी ऋतुराज कहाए, चंपा जो फूली टेसू जो फूले, फूल ही फूल सुहाए, कामिनी के मन मंजरी फूली वा बिच श्याम सुहाए...।