Saturday 29 May 2021 05:08 PM IST : By Nisha Sinha

एवरेस्ट से आसमां को चूमना आसान नहीं था अरुणिमा सिन्हा

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जिंदगी भी अजीब है, कब क्या घट जाए पता नहीं। कई बार दुखद घटनाएं घटने से लोग जीने की उम्मीद छोड़ देते हैं, तो कुछ जाबांज ऐसे भी हैं, जो घटनाओं को चैलेंज मान कर उसे ही घुटने टेकने पर मजबूर कर देते हैं। हिमालय जैसी दृढ़ बहादुरी की ऐसी ही एक मिसाल है अरुणिमा सिन्हा। इन्होंने खुद को ऐसे साबित किया कि चुनौतियां भी इनके जज्बे को देख कर झेंप गयी। आज अरुणिमा केवल महिलाओं के लिए ही नहीं जिंदगी से हार मान चुके हर व्यक्ति के लिए एक मिसाल बन गयी है। यहां बात हो रही है विश्व की पहली दिव्यांग महिला पर्वतारोही अरुणिमा सिन्हा की। जिन्हें विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा लहराने का श्रेय जाता है।

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उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर में जन्मी अरुणिमा नेशनल लेवल की वॉलीबॉल प्लेयर थी।2011 में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की परीक्षा में शामिल होने के लिए वह लखनऊ से दिल्ली जा रही थी। यात्रा के दौरान ट्रेन में कुछ बदमाशों ने उनसे सोने की चेन और उनका बैग छीनने की कोशिश की। जब अरुणिमा ने उन बदमाशों का विरोध किया, तो उनको चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया गया। जब अरुणिमा नीचे गिरी तो, दूसरे ट्रैक पर आ रही ट्रेन उनके पैर से हो कर गुजर गयी। वह रातभर दर्द से कराहती रहीं। उसके पैर पर और भी उस ट्रैक से गुजरनेवाली कई ट्रेन चढ़ कर गुजरी। उनके चिल्लाने की अवाज से फिजां कांप गयी। गांववालों की मदद से उनको अस्पताल में भरती को कराया गया लेकिन उनकी जान बचाने के लिए डॉक्टरों को उनका एक पैर काटना पड़ा। एक प्लेयर के लिए यह कैसा मंजर होगा, यह अकल्पनीय है। एक ही पल में सारे सपने गुम हो गए। अरुणिमा को भारत के लिए खेलते देखने का उनका परिवार का सपना भी चूर हो गया। घरवालों को भी लगा कि जैसे जिंदगी थम गयी हो।

हार कैसे मानती

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पद्मश्री से सम्मानित अरुणिमा के अनुसार, मैंने मन ही मन ठान लिया कि ना मैं हार मानूंगी, ना अपने परिवार को कमजोर होने दूंगी। दिल्ली स्थित ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज से इलाज के बाद एक संगठन की मदद से उनको नकली पैर लगाया गया। उनके दूसरे पैर में भी रॉड लगी थी। रीढ़ की हड्डी में भी बहुत फ्रैक्चर्स हैं। इन सबके बावजूद उन्होंने बछेंद्री पाल (पहली भारतीय महिला जो माउंट एवरेस्ट पर चढ़ी)से मुलाकात की और इस मुलाकात के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अरुणिमा के अनुसार, बछेंद्री पाल को देख कर मुर्दे में भी जान आ जाती है। वह जोश से भरी हैं। उनकी आवाज थके हुए शरीर में जान फूंक देती है। जब मैं एवरेस्ट पर चढ़ी, तो उन्होंने गले लगा कर कहा, तू तो मेरी शेरनी है।

सफर आसान ना था

एवरेस्ट पर चढऩे के पहल उन्होंने उत्तरकाशी के नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनिअररिंग से एक बेसिक कोर्स किया। जब पहली बार उन्होंने बछेंद्री पाल को अपने दिल की बात बतायी कि वह अपने एक पैर से ही माउंट एवरेस्ट पर चढऩा चाहती है, तो बछेंद्री पाल ने कहा कि इस स्थिति में भी ऐसा करने का सोचते ही तुनमे मानो जंग जीत ली है, बस दुनिया को दिखाना बाकी है। मेरी मां ने भी मेरा बहुत सपोर्ट किया। पर्वतारोहण क दौरान काफी तकलीफ होती, लेकिन उनकी गरमजोशी से हौसलाअफजाई होती रही।

कैसा महसूस होता है दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर पर पहुंच कर 

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आज अपने संगठन अरुणिमा फाउंडेशन की मदद से वह महिलाओं और दिव्यांगों को सशक्त बनाने में जुटी हैं। चुनौतियों के लिए संघर्ष करनेवालों को अरुणिमा का संदेश, अकसर कठिन सफर के दौरान कई बार यह लगता है कि अब छोड़ दूं, वापस लौट चलूं। अब मुझसे आगे का सफर तय नहीं होगा लेकिन मेरा मानना है कि जब कभी ऐसा लगता है, तब तक 50 प्रतिशत दूरी तय हो चुकी होती है। बाकी का सफर आसान होता है, बस यहीं हार नहीं माननी चाहिए। जीत की खुशी में परम आनंद होता है। मुझे भी ऐसा महसूस हुआ था, 21 मई 2013 को जब मैं दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर थी। माउंट एवरेस्ट पर बहनेवाली हवाओं में हड्डियों को चीर देनेवाली ठंडक होती है। लेकिन उस दिन मेरे अंदर की गरमी में मुझे कुछ महसूस नहीं हुआ। लग रहा था जैसे हाथ बढ़ा कर आसमान को छू लूंगी।