Wednesday 16 February 2022 03:26 PM IST : By Yasmin Siddiqui

बदलने होंगे अब बेटे की परवरिश के तौरतरीके

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मध्यमवर्गीय परिवारों में बीते कई सालों में बेटी की परवरिश में आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिले हैं। छोटे शहर की सड़कों पर ना जाने कितनी ही लड़कियां अपने बड़े सपने पूरे करने के लिए दोपहिया पर हवाओं से बात करती नजर आती हैं। दादा जी भी अब बड़े गर्व से अपनी पोती के पीछे बैठ कर मंदिर के दर्शन कर आते हैं। पिता सीना तान कर कहते हैं कि हमारी बेटी बेटे से कम नहीं। बारहवीं के बाद मेडिकल की तैयारी करने के लिए उसे बड़े शहर भेजा है। अच्छा लगता है परिवर्तन आ रहा है। लड़कियों के लिए नजरिया बदलेगा, तो उनके नजारे बदलेंगे। 

पिछले 20 सालों में उच्च मध्यमवर्गीय और मध्यमवर्गीय परिवारों में बेटियों की परवरिश को ले कर मानसिकता बदली है। लेकिन एक चूक हो गयी शायद कहीं, जो बड़े होने के बाद हमारी बेटियों पर ही भारी पड़ रही है। हमने बेटियों को यह बताया कि ये सुविधाएं हमने उन्हें दीं। जबकि सोचने वाली बात है कि बाहर पढ़ने की इजाजत, काम करने की इजाजत हमें देनी क्यों पड़ी। यह तो उसे मिलनी ही चाहिए थी।

हम बदल रहे हैं, लेकिन बदलाव की सुगबुगाहट हम बेटे को नहीं बता पाए। नहीं समझा पाए अपने बेटों को कि देखो तुम्हारी बहन की आंखों में अब कुछ बनने के सपने, जीवन अपने अनुसार जीने के सपने जगह पा चुके हैं।

यहां तक कि पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय परिवारों की बेटियां दूसरे शहर पढ़ने जा रही हैं। शादी से पहले भी वे नौकरी के सिलसिले में अपने शहर से बाहर रहने लगी हैं। उन्हें उनके अधिकारों के बारे में भी सचेत किया जा रहा है। उन्हें यह भी बताया जा रहा है कि शादी करके जब तुम ससुराल जाओगी, तो सहना मत हमसे कहना। पिता की संपत्ति में भी अब बेटियों को अधिकार मिलने की बात हो रही है।

गाड़ी चलाना, अकेले सफर करना, बैंक के काम करना ये सभी तो जैसे रोजमर्रा की जिंदगी का एक हिस्सा बन गए हैं। मनौवैज्ञानिक श्वेता शर्मा कहती हैं कि हम इंटरनेशनल लेवल पर बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, बच्चों के लिए आईबी स्कूल की तलाश कर रहे हैं, तो सोच को भी ग्लोबलाइज्ड होना होगा। नए माता-पिता की जिम्मेदारी है, वे जेंडर न्यूट्रल पेरेंटिंग करें। यानी लिंग के आधार पर परवरिश के तौरतरीके ना बदले जाएं। एक जैसी परवरिश मिले। वहीं पेरेंट्स बच्चे के सामने भी जेंडर न्यूट्रल व्यवहार का पालन करें। जैसे ऑनलाइन बिलों का जमा होना, इन्वेस्टमेंट, प्रॉपर्टी और टैक्स फाइलिंग से संबंधित कामकाज में महिलाएं अपनी उपस्थिति दर्ज कराएं। पुरुष कभी अकेले ही बच्चे को डॉक्टर के पास ले जाएं, बच्चे का कमरा या अलमारी जमाने में उसकी मदद करें। यह परिवर्तन धीरे होगा, लेकिन आने वाले 20-30सालों में यह नजर आने लगेगा।

यह एक लाइफ स्किल है

रोजमर्रा की जिंदगी का एक अहम हिस्सा घर को सुचारु रूप से चलाना भी है। समझना होगा इस बात को यह भी तो एक अहम लाइफ स्किल है। हम बेटियों को तो खाना बनाना सिखा देते हैं। यह सोच कर कि यह तो आना चाहिए। अगर खाना है, तो बनाना भी होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि खाना बनाना या दूसरे अन्य काम नहीं आना कोई समझदारी है। लेकिन ये सभी चीजें तो हर एक वयस्क को आनी चाहिए। इसमें लड़का या लड़की का क्या सवाल है? आखिर घर में सिर्फ लड़कियां तो नहीं रहतीं।

समझ रहे हैं पुरुष

हम यह भी नहीं कह सकते कि पुरुषों की सोच संकीर्ण है। ना ही वे घर के कामों को नकार रहे हैं। पहले के मुकाबले घरेलू कामकाज निपटाने के लिए सहायिकाएं अब महिलाओं के साथ खड़ी हैं। लेकिन फिर भी ‘दीदी’ या ‘भाभी’ की गाइडेंस में ही काम होता है। यहां तक कि महिला अगर दफ्तर जा रही है और पुरुष घर में है, तो भी सहायिकाओं से काम करवाना महिला की ही जिम्मेदारी है।

वहां सिर्फ मां

कभी सोचा है कि पुरुष की मौजूदगी घर में होते हुए भी इतनी गौण क्यों है? ऐसा इसलिए क्योंकि जब वह बड़ा हो रहा था, तो घर के फ्रंट पर उसने मां को ही पाया। उसने देखा कि दादी, दादा या वह जब बीमार हुआ, तो मां ने ही अपने ऑफिस से छुट्टी ली। घर में अगर अचानक मेहमान आ गए, तो मां को ही मैनेज करते हुए देखा। ऐसे में बिना किसी के समझाए वह कुछ चीजें समझ बैठा और उन्हें वह ऐसे ही होने देता है। इस समझ की मार महिलाओं पर पड़ रही है। कोराना काल में हुई तालाबंदी में विश्वभर की महिलाओं ने ऑफिस के अपने वर्कप्रेशर और घरेलू कामकाज की मार को झेला है।

आज के पुरुष एक कामकाजी महिला से ही शादी करना चाहते हैं। लेकिन एक कामकाजी महिला के साथ जीवन जीने के लिए वे मानसिक रूप से कतई तैयार नहीं हैं। यही वजह है कि महिलाओं को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। पुरुष को यह समझना होगा कि घरेलू कामकाज में उनकी भागीदारी महिला को तनावमुक्त रहने में मदद करेगी। ऑटोमैटिक मशीन में कपड़े धो देना, बिस्तर को साफ करना, चादर बिछाना कोई बड़े काम नहीं हैं। बड़े शहरों में बहुत से पुरुष अब यह कर रहे हैं। घर की रसोई से रविवार को सही उनकी दोस्ती हो गयी। लेकिन छोटे शहर और कस्बों में आज भी पुरुष की घरेलू कामकाज में उपस्थिति ना के बराबर है। बदलने के लिए किसी मौके का इंतजार ना करें। शुरुआत खुद के साथ करें। फिर देखें आप दोनों का जीवन कितना सुखमय हो जाएगा। बस जरा सोच को ही तो बदलना है।

हम ऐसा नहीं करेंगे

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दो बेटों की मां और साइकोलॉजिस्ट डॉ. सफिया अख्तर कहती हैं कि परवरिश में बहुत छोटी-चीजों की अहम भूमिका होती है। यही पर्सनेलिटी को बनाती हैं। वे कहती हैं हम हमेशा पुरुषों को दोष देते हैं कि वे इंसेंसेटिव हैं, जबकि हम ही तो उन्हें ऐसा करना सिखाते हैं। अकसर चोट लगने पर कोई बच्चा रोता है, तो हम कहते हैं कि ओह... तुम लड़के हो कर रो रहे हो? या खेल-खेल में सही अगर किसी बच्ची ने बच्चे को हरा दिया, तो हम कह देते हैं यह देखो लड़की से हार गया, लड़का हो कर पिट गया। कोशिश करें कि इस तरह के बयान आप नहीं दें। वह अगर लड़के से फाइटिंग में हार सकता है, तो लड़की से भी तो हार सकता है।

अगर कोई घटना आपके बेटे को विचलित कर रही है, तो उसे भी रोने या भावनात्मक होने का हक है। हां, बाजार ने आजकल रंगों का भेद कर दिया है। गुलाबी लड़कियों के लिए और नीला लड़कों के लिए। रंगों के इस वर्गीकरण को अपने घर में कतई जगह ना बनाने दें। हो सकता है आपके बेटे को गुलाबी पसंद हो। उसके वॉर्डरोब में उस रंग को आने दें। रंग कब से लड़के वाले या लड़की वाले होने लगे। यह तो अपनी-अपनी पसंद होती है। खिलौने में भी ऐसा ही करें। लड़के भी गुडि़या या टेडी बियर से खेल सकते हैं और लड़कियों को भी गन चलाना पसंद हो सकता है। 

उनकी पर्सनेलिटी जैसी है, उसे वैसा रहने दें। इस तरह की परवरिश होगी, तो आगे चल कर वे समझ पाएंगे कि ना तो लड़के वाले कोई काम होते हैं और ना लड़की वाले। ऐसे में हर काम में इन्वॉल्वमेंट बढ़ेगी और इसका फायदा हमारे समाज को ही होगा।