Wednesday 16 March 2022 12:56 PM IST : By Indira Rathore

होली पर शांतिनिकेतन के वसंतोत्सव की पूरे विश्व में है धूम

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फागुनी मौसम में जब प्रकृति का हर रंग खिल उठता है, शांतिनिकेतन में वसंतोत्सव होता है। पीले वस्त्रों, पलाश के फूलों से सजे छात्र-छात्राएं परिसर में नाचते-गाते एक छोर से दूसरे छोर तक गुजरते हैं, तो अलग ही समां बंधता है। जिसने भी यह नजारा देखा, फिर-फिर इसे देखने यहां खिंचा चला आया और कहे बिना रह नहीं पाता कि ओ रे भाई फागुन लगेछे बोने बोने...

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होली को प. बंगाल में दोल उत्सव, दोल पूर्णिमा या वसंतोत्सव कहा जाता है। कोलकाता से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर बीरभूम जिले के शहर बोलपुर के पास स्थित शांतिनिकेतन का वसंतोत्सव निराला है। इन दिनों प्रकृति पलाश, अशोक, शिमुल के लाल और केसरिया फूलों से सराबोर होती है। होली पर पीले परिधानों में टेसू के गहनों से सजे छात्र-छात्राएं जब समवेत स्वर से कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर के गीत ओ रे गृहोबासी खोल द्वार खोल लागलो जे दोल... गाते हैं, तो वसंत जैसे पूरी धमक से आश्रम परिसर में उतर आता है। अबीर-गुलाल के उड़ते रंग एक-दूसरे में घुल-मिल कर भारत की समृद्ध विरासत से रूबरू कराते हैं, विविधता में एकता का संदेश देते हैं। वसंत का यह नजारा देश-विदेश से लोगों को यहां खींच लाता है। यहां का हर उत्सव टैगोर के विचारों व सपनों का विस्तार है। इस निराले वसंतोत्सव को अपनी यादों में संजोए हैं शांतिनिकेतन से जुड़े कई लोग।

प्रकृति से एकाकार होने का उत्सव है यह 

कोलकाता यूनिवर्सिटी में रिटायर्ड एसोसिएट प्रोफेसर अर्चना का कहना है कि फागुन के महीने में प्रकृति रंगों से सराबोर होती है। टैगोर के असंख्य गीत प्रकृति के इन्हीं रंगों पर आधारित हैं। इस मौसम में पलाश खिलता है, आम में बौर आते हैं। शांतिनिकेतन में होलिका दहन से आयोजन शुरू हो कर अगले दिन शाम तक चलता रहता है। मुझे गीत-संगीत में रुचि नहीं थी, लेकिन वहां रहनेवाला हर व्यक्ति संगीत का मुरीद हो जाता है। पहले इस उत्सव में सिर्फ गीत गाए जाते थे, लेकिन 1919 के बाद नृत्य भी इसमें जुड़ गया। यह टैगोर की देन है कि अच्छे घरों की लड़कियां भी मुक्त भाव से नृत्य करने लगीं। मुझे याद है कि उस दिन हम खिचड़ी खाते थे, पिकनिक भी मनाते थे। मैं आज 69 की उम्र पार कर रही हूं, लेकिन रवींद्र संगीत पर सड़क में भी थिरक सकती हूं। हमारे समय में बच्चियां होली पर पीली साड़ी पहनती थीं। तब चेहरों पर मेकअप नहीं किया जाता था, सिर्फ फूलों के गहने होते थे। साड़ी बाउल स्टाइल में बांधी जाती थी। लड़कों के सिर और कमर पर दुपट्टा बांधा जाता था। बड़े कॉलेज के लड़के पीला-सफेद वस्त्र पहनते थे। सुबह 7 बजे कार्यक्रम शुरू हो जाता था। मैं 1971 से 1987 तक वहां थी। मैंने एक स्कूल में पढ़ाया, रिसर्च किया, आदिवासियों पर कई काम किए। जैसे-जैसे लोग बढ़े, लापरवाही बढ़ी और अनुशासन घटने लगा।

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संथाली लोग इसे महापर्व कहते थे। रवींद्रनाथ टैगोर की एक कविता है- बोधन, जिसका हिंदी अनुवाद इस प्रकार है कि माघ के महीने में सूर्यदेव जैसे ही उत्तरायण होते हैं, समूची कुदरत जीवन से सराबोर हो जाती है...। एक और गीत है- वासंती भुवन मोहन मोहिनी... यह दक्षिण भारतीय धुन में है। दिलचस्प यह है कि वसंत पंचमी में हर जगह सरस्वती पूजा होती है, लेकिन शांतिनिकेतन में नहीं होती। होलीवाले दिन नृत्य-संगीत कार्यक्रम के बाद अंत में हम गाते थे- रांगिये दिए जाओ... अौर हाथ में अबीर-गुलाल ले कर हम सबको रंग लगाते थे। आदिवासी रंगों के बजाय फूलों से त्योहार मनाते थे। अब तो वसंतोत्सव में काफी बदलाव आ गया है। बाहर के लोगों का प्रवेश वर्जित है। हालांकि मेरे जैसे पुराने लोगों को इससे कष्ट होता है, क्योंकि मैंने तो जीवन में इतना सुंदर-पवित्र कार्यक्रम अन्यत्र कहीं नहीं देखा। यह अपनी तरह का अनोखा उत्सव है, जिसे पूरे भारतवर्ष में मनाया जाना चाहिए।

समय के साथ बदलता गया रूप

ग्वालियर की आईटीएम यूनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष (पत्रकारिता) व शांतिनिकेतन के पूर्व छात्र जयंत सिंह तोमर के जेहन में आज भी शांतिनिकेतन की यादें ताजा है। वे बताते हैं कि मेरा जन्म मुरैना में हुआ। मेरे चाचा जी प्रो. रामसिंह तोमर शांतिनिकेतन में हिंदी भवन के अध्यक्ष रहे। लिहाजा मेरी शिक्षा भी वहां से हुई। मैंने कई साल वहां बिताए। अभी चाचा जी की बेटी वहां प्रोफेसर हैं। रवींद्रनाथ टैगोर ने ऋतुओं को ले कर उत्सवों की शुरुआत 1920 के आसपास ही कर दी थी। चाचा जी 1951-55 तक इटली में हिंदी पढ़ाते थे। उन्होंने हिंदीभाषियों के लिए इटैलियन की एक ग्रामर बुक लिखी। विश्व भारती ने उसे प्रकाशित किया था। वसंतोत्सव से जुड़ी अनगिनत यादें हैं मेरे पास। सजे-धजे छात्र-छात्राएं जब पंक्तिबद्ध हो कर नाचते-गाते आम्रकुंज में जाते, तो वह दृश्य बहुत ही मनोहारी होता। अब इस उत्सव में कुछ बाधा आ गयी है। बाहर के लोग इसमें शामिल नहीं हो सकते। पुराने छात्रों के लिए भी इसमें जाना कठिन होता है। शायद सुरक्षा कारणों से ऐसा किया गया होगा। कई बार लोग पलाश के फूल और डालें तोड़ देते हैं। आश्रम की शांति में भी खलल पड़ता है। तब मेरे साथ जापान की एक छात्रा थीं, सेत्सू माकिनो। वे बहुत प्रतिभाशाली छात्रा थीं। उन्होंने मणिपुरी नृत्य भी सीखा। अभी वे हिरोशिमा में रहती हैं। सेत्सू के पिता साइजी माकिनो 1970 के दशक में भारत आए थे। चाचा जी ने उन्हें जापानी भाषा पढ़ाने के लिए वहां बुलाया। ज्ञानपीठ ने उनकी आत्मकथा भारतवर्ष में पैंतालीस साल प्रकाशित की है। उन्होंने अपनी पुस्तक में वसंतोत्सव के बारे में भी अच्छा वर्णन किया है। मैं बीच-बीच में शांतिनिकेतन जाता रहता हूं। मेरे लिए वह जगह किसी तीर्थयात्रा की ही तरह है। वहां हिंदी भवन से कई सुंदर पुस्तकें आयी हैं। मैं वहां जा कर अपने बचपन को याद करता हूं। लगभग ढाई वर्ष पहले वहां गया था, तो प्रकाशन विभाग से रवींद्रनाथ के गीत-संगीत पर कई किताबें ले कर आया। वहां जाता हूं, तो हर बार अतीत की ढेर सारी यादों को भी बटोर लाता हूं। 

मन में हमेशा बसी रहेंगी वहां की यादें

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बंगलुरू में रहने वाली शांतिनिकेतन की पूर्व छात्रा व गायिका चैताली दास शांतिनिकेतन की यादें शेअर करते हुए कहती हैं कि मेरे पिता बिहार राउरकेला-जमशेदपुर के पास एक शहर में नौकरी करते थे। साढ़े छह साल की उम्र में ही मैं 1973 में शांतिनिकेतन चली गई। सेकेंड स्टैंडर्ड से ग्रेजुएशन तक के 15 वर्ष बिता कर 1989 में वहां से निकली। प्रकृति के साथ बड़े होने-सीखने का अनुभव ही अलग है। हम गुरुकुल की तरह खुले में पढ़ाई करते थे। तब किसी तरह का दबाव हम पर नहीं था। मुझे याद है कि होली पर हम सभी छात्र-छात्राएं गीत गाते-नृत्य करते आम्रकुंज तक जाते थे। तब वहां का वसंतोत्सव देखने बाहर से भी मेहमान आते थे। बाद में लोग बढ़ने लगे, तो आयोजन मैदान में किया जाने लगा। हम बच्चों को बाहर के मेहमान भी गुलाल लगाते थे, पर तब आश्रम का एक अनुशासन था। वह समय अलग था। प्रकृति से जुड़ा हर उत्सव शांतिनिकेतन में अलग ढंग से मनाया जाता है। 

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होली के 2-3 दिन पहले से तैयारियां शुरू हो जाती थीं। गीत-संगीत की रिहर्सल तो एकाध महीने पहले से होने लगतीं। तीन-चार दिन पहले पलाश के फूल पानी में भिगोए जाते। इसी पानी में साड़ियों को डुबो कर उन्हें पीले रंग से रंगा जाता। टेसू के फूलों से गजरे, मालाएं और हाथकड़े भी बना लेते थे। पुरुष धोती और पीला कुरता पहनते थे। हमने गीत-संगीत का इतना अभ्यास किया है कि आज इतने सालों बाद भी मुझे गीत की एक-एक पंक्ति और नृत्य की एक-एक मुद्रा याद है। होलिका दहनवाली शाम सड़क पर हम गाना गाते हुए प्रभात फेरी निकालते थे। ओ आमार चांदेर आलो, आज फागुने शॉन्धाकाले धौरा दिए छो जे आमार पातेय पातेय डाली डाली... (चंद्रमा का आलोक पूरी प्रकृति पर छा रहा है)।

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यह शांतिनिकेतन का ही प्रभाव है कि आज इतने सालों बाद भी मैं चाहे जहां जिस शहर में रहूं, एक छोटा सा वसंतोत्सव मना लेती हूं। हम चंद दोस्त कहीं ना कहीं मिल कर गीत-संगीत का कार्यक्रम आयोजित करते हैं और अपने भीतर बसी शांतिनिकेतन की यादों को ताजा कर लेते हैं।