Friday 08 January 2021 04:02 PM IST : By Rashmi Kao

मनवा रे (भाग-2)

manwa-re-story

डायरी के साथ अपने पुराने घर के उसी कमरे में बैठी हूं, जहां मैंने और देविका ने ढेरों वक्त साथ गुजारा है। मेरे पास लाखों सवाल और देविका मेरे सामने उस डायरी में बंद। गुजरात इम्पोरियम से खरीदा गया रंगबिरंगा बुकचा और उसमें लिपटी देविका की डायरी या खुद देविका... पहला पेज खोलती हूं बड़ा-बड़ा लिखा है-
अोए ‘रे’! देविका जब चहकने के मूड में होती तो मुझे एेसे ही बुलाती। मैं रेणुका से उसकी ‘रे’ बन जाती। आज तू सिर्फ सुन... और पेज खाली छोड़ दिया गया है। कहीं कोई नाम-पता नहीं, खाली पन्ना और कहीं-कहीं ढेरों शब्द, कब लिखा, तारीख तक नहीं...कहां से किस से जोड़ं। क्या ढूंढ़ूं और कैसे ढूंढ़ूं? समझ में नहीं आ रहा...

पढ़ना शुरू करती हूं ...

‘रे... मैं कौन हूं... अपने आपसे पूछने पर कोई जवाब नहीं मिलता सवाल की गूंज सुनाई देती है। उसे भी सिर्फ मैं ही सुन पाती हूं... पर अब मैं सवाल करने की आदत छाेड़ने वाली हूं... जवाब का इंतजार नहीं... इस अंधेरे से निकलने का सोच रही हूं... उस उजाले की अोर जहां सवाल जवाब सब बेमानी हो जाएंगे... मैं रहूंगी भी और नहीं भी... मुझे ढूंढ़ना मत... मिलूंगी नहीं क्योंकि खोना ही सुकून है... मुझे पता है इस बार तुम्हें मेरी बात सही लगेगी।

रेणुका, तुम चाहती हो मैं खुश रहूं, पर खुशी शायद मुझे पसंद नहीं करती। पता है उसके छूते ही इमोशंस की रीमिक्सिंग होने लगती है। मैं अपने सपने डिजाइन करने में लगी रही... कल्पनाअों को बुनती रही। उन्हें रंगना चाहती थी पर... अपने आपको उसके अंदर रख कर मैं खुद को भूल गयी... यह अहसास कि मैं एक उपजाऊ धरती का टुकड़ा हूं सुंदर लगने लगा था। पर उसके झूठ के छोटे-छोटे बीज मुझे बंजर बना गए... उसके होंठों ने मेरे शरीर पर जो टैटू बनाए थे अब फीके पड़ चुके हैं। मैं जहां अपने आपको सपने लपेटती देखती थी अब वहां उनकी राख उड़ रही है। आंखें आक्रामक हो गयी हैं... लफ्जों से गालियों की बू आती है। मैं अग्रेसिव और अपाहिज... मन और शरीर दोनों से...।’’

अगला पेज... मैं आगे पढ़ती हूं।

‘रे’ जानती हो अब मेरे चेहरे पर गिरते बालों को कानों के पीछे करने के लिए उसकी उंगलियां आगे नहीं आतीं। गरम गरम चाशनी की खुशबू जो उसकी देह से आती थी अब मुझ तक नहीं पहुंचती। उसे छूने भर से उंगलियां सुलगने लगतीं, पर अब दिल सुलगता है। उसकी खामोशी को सुनना, उसे महसूस करना... वह मुझे भूल चुका है। अब हम दोनों को ही कुछ याद नहीं आता। शायद भूलना ही हम दोनों के लिए अच्छा है। एक इंतजार का खत्म होना फिर एक नए सिरे से नया इंतजार, और अनजाना सा खालीपन... बिन पानी के सूखे मनीप्लांट सी जिंदगी हो चली है।

मैं पन्ना पलटती हूं, ‘रे’ ईरानी कैफे में चाय की चुस्कियों में घुली आवारागर्दी अब छूट रही है... उसे घर नहीं चाहिए क्यों? मेरा शरीर उसके लिए गेस्ट हाउस बन कर रह जाए और मैं उसके... ‘रनर’ का काम करूं...क्या यही तक का साथ है... क्यों निचुड़ा सा महसूस करती हूं... फोखा फोखा सा वह जादूगर सा मेरी सायकॉलजी से क्यों खेलता है। मैंने तो प्यार किया था गुलामी नहीं... वह उसकी इजाजत और मैं ... क्या चाहता है? परमीशन मांगू पर क्यों? माफी मांग सकती हूं, इजाजत नहीं मांगूगी... बेवफाई भी क्या डीएनए का हिस्सा होती है, ‘रे’?

काले मटमैले बादल का टुकड़ा क्यों मेरे सिर पर मंडराता सा हमेशा महसूस होता है। दर्द बर्दाश्त से बाहर हो चला है। अपनी उदासी को 10 के स्केल पर नापने से घबरा रही हूं... जिस दिन दस पहुंच गयी उस दिन सब खत्म। नंबर दस की सिचुयेशन ही हर सुसाइड की वजह रहती होगी।

2

मैं डायरी के पन्ने पलट रही हूं... अंदर ही अंदर कोई जैसे मुझे छील रहा है।

‘रे’... आजकल अपने आपसे भाग रही हूं... रोज सच से भिड़ती हूं। अपने कल और आज में डूबती हूं दिमाग में नहीं दिल में कंफ्यूजन है। उदासी निगल रही है। जहर बन कर पी रही है। हम रिश्ते में डूब कर अपने आपको खो देते हैं और फिर पिघल कर, घुल कर गुम हो जाते हैं क्यों? क्या दोबारा उसे देख पाऊंगी... वह अजीब सा था जो चला गया... मैं जैसी हूं क्या उसके लिए काफी नहीं? यह सवाल अब उलझता है। dont cry...buck up...अपने आपको रोज कहती हूं और फिर धप्प से बैठ जाती हूं। मुझसे जिंदगी नाराज है या मैं जिंदगी से खफा हूं पता नहीं। मेरे अंदर चीखें गूंजती हैं। मन में बहुत कुछ दबा जा रहा है मलबे की तरह। इस कष्ट से बाहर कैसे निकलूं? ...कौन निकालेगा?

तुम्हें पता है हम अकेले, बहुत अकेले या बिलकुल अकेले होते हैं। उस पर अपने मन हो मनाना सबसे मुश्किल होता है। जिंदगी खुदगर्जियों पर क्याें टिकी होती है। सामनेवाला जब मतलबी लगे, तो कैसा लगता है। धीरे-धीरे रिश्तों में झांकने की मेरी बुरी आदत अब जिद पकड़ने लगी है। तल्खियां, नाराजगियां कई किस्म की होती हं। कुछ हम कह जाते हैं और कुछ अपने अंदर रखते हैं। जो अंदर रहती हैं वो पक जाती हैं किसी फोड़े की तरफ। क्या मैं जरूरत से ज्यादा सोचती हूं... क्या नाराजगियों की अहमियत नहीं। सामनेवाले से अच्छी बातें कैसे करूं जब मेरे खुद के साथ बुरा हो रहा है। वजह कोई पूछता नहीं। सांसों की चटखी बांसुरी बेसुरी हो चली है। मैं नए सिरे से जीना चाहती हूं इसीलिए इन सांसों से तो कटना ही होगा...

नया पन्ना...

‘रे’ पता है अब तो सन्नाटा भी ‘सॉरी’ कहता है मुझसे। सांसें गलने लगी हैं। मुझसे यह ज्ञान कि ‘जिंदगी खूबसूरत है’ नहीं सुना जाता। यह खूबसूरती अब मुझे खा रही है। इस खूबसूरती पर पुती कालिख से निजात कौन दिलाएगा? शायद अलविदा कहने का वक्त आ चुका है। क्योंकि स्पॉन्ज लाइफ कोई कब तक जी सकता है... जब चाहा सोख लिया, जब चाहा निचोड़ दिया।

देविका की इस पतली सी डायरी के पन्ने अब खत्म होने को है। मैं आगे के पन्नों में जल्दी से झांकने की कोशिश करती हूं। तीन पन्ने बचे हैं... इस लड़की ने कुछ भी तो नहीं कहा है, जिससे मैं कुछ पकड़ पाऊं... वापस लौटती हूं जहां छोड़ा था वहां से पढ़ना शुरू करती हूं...

‘रे’ मैं कितनी बेवकूफ हूं, मुझे एक नहीं दो-दो पुरुषों ने ठगा है। एक, जिसे मैं समझने का दावा करती थी वह मुझे नहीं समझा। और दूसरे को मैं समझ नहीं पायी। सही वक्त पर गलत आदमी... गलत वक्त पर सही आदमी... याद कर एलिस इन वंडरलैंड की कन्या सी फुदकती तुम। गुलाबी टाइट्स और गुलाबी गाल लिए... तुम्हीं ने कहा था, ‘‘यार, बहुत हैंडसम लगता है।’’ याद है वर्सोवा की ‘वह पैट शॉप’ फिश बोल के लिए गोल्डन फिश लेने निकले हम मिट्ठू पसंद करके लौटे थे... कुछ याद आया... तब उससे जो बतियाना शुरू किया था वह आज तक नहीं थमा... मुझे लगा था जो अपने कुत्ते से इतना प्यार करता है वह इन्सान से तो ज्यादा ही प्यार करेगा।

मगर... चल छोड़... वक्त हर किसी का साथ दे यह जरूरी तो नहीं... वक्त ने तेरा साथ दिया। तुझे बुरा तो नहीं लगा। उस उम्र में जो हम शेअर नहीं कर पाते, बाद में बड़े होने पर कह देना अच्छा लगता है।

‘रे’... सच कहूं तेरी दी ‘इवल आई’ भी मुझे बदनजर से ना बचा सकी। ‘ड्रीम कैचर’ ने ही सपने लपकने का शौक चकनाचूर कर दिया। तुझे नहीं लगता मेरी जिंदगी वाइल्ड लाइफ कहानी सी बन गई है। उस खाली जगह को भरने के लिए बॉडी पिलो लगा कर सोती हूं, पर मन का खालीपन कैसे भरूं। जिंदगी जो सिखा जाती है, उसमें फिल इन दा ब्लैंक्स जैसा भी क्या कुछ हो सकता है? हमारी हिंदी की क्लास में ‘रिक्त स्थान भरो’ जैसा। तुम्हें तो पूरे नंबर मिलते थे इसीलिए तुम्हीं से पूछ रही हूं। सच में तुमने बाजी मार ली है। आजकल मैं खामोश रह कर अपने आपको सुनती हूं। वो खिलखिलाहटें... वो मुस्कराहटें... वो हल्के-हल्के कटना... हवा से बुझी मोमबत्ती पर सुलगता वो आखिरी अंगारा, जो चुपचाप बुझ जाता है किसी का साथ चाहना... किसी की जिंदगी का हिस्सा बनना... पर सच मानें तो रिश्तों की भी उम्र होती है... कुछ समय के बाद घिस कर टूट जाते हैं... मन फट जाते हैं...

रेणुका, तुम्हें शिकायत होगी कि मैंने कुछ बताया क्यों नहीं। जब अपने आपसे शेअर करने की हिम्मत नहीं थी तो तुमसे कैसे करती। इसीलिए लिख दिया... लिखना तो तुझे लव लेटर चाहती थी लेकिन मुझे लगा वह मेरे कन्फेशन की शक्ल लेते-लेते घटिया से माफीनामे में बदल जाएगा इसीलिए माफीनामे का आइडिया ड्रॉप कर दिया। तुझे लगेगा मैं सफाई देते-देते रहम की अर्जी लगाने लग गयी हूं। हमारा रिश्ता तो नो थैंक्यू नो सॉरी वाला रहा है इसीलिए फाड़ कर फेंक दिया पर क्या करूं उसे फिर भी अलग नहीं कर पायी... वह चला गया और फिर तेरे साथ लौटा... अब यह मत पूछना कौन? यार अपना मिट्ठू। अब थक चुकी हूं, पर फिर भी रात को आंखें बंद नहीं होतीं। ना दिमाग सोता है ना मैं... लगता है क्या मैंने तुझे भी जगा दिया...?’’

मैं वाकई आज जगी हूं इतने सालों के बाद। मिट्ठू यानी आदि..., आदित्य कश्यप, मेरा आदि! घुप अंधेरा, फटी आंखें। कुछ दिखायी नहीं दे रहा। अपना आप ही अजनबी सा महसूस हो रहा है। एक बार फिर से दोहराती हूं... मिट्ठू, मेरा मिट्ठू... क्या पहले देविका और फिर बाद में मैं। सब कुछ एक उलझी पहेली की तरह, पर क्यों? दिल हलक में अटकता सा लगता है। अपने आपसे किए गए वादे अब छूट रहे हैं... मैंने तय किया था कभी उसका फोन चेक नहीं करूंगी... कभी उसके मैसेज में नहीं झांकूगी... उसके पीछे नहीं जाऊंगी पर अब क्या करूंगी... यह सब क्या है... मेरी मजबूरी या कमजोरी।

डायरी का आखिरी पन्ना...

1

‘रे’... मौत से जुड़े कब कहां और कैसे वाले सवालों से डर लगता है, क्योंकि उसमें बहुत कुछ अनजाना छिपा रहता है। चलने वक्त कई तस्वीरें एक साथ चलने लगती हैं। पर इतना वादा करती हूं कि जाते-जाते तुझे बढि़या सी कहानी दे जाऊंगी... बोल कैसा स्टोरी आइडिया चाहिए... रोमांटिक... सैड... सस्पेंस कुछ भी मांग ले पर हैप्पी एंडिंग नहीं दे पाऊंगी... ‘सॉरी’। डायरी में शब्दों में लिखा ही-ही-ही मुझे मुंह चिढ़ाता सा लगता है और देविका का खिलखिलाता चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम जाता है। मैं उस चेहरे को दोबारा से फिर कहां देख पाऊंगी। बेजान और लुटा सा महसूस कर रही हूं मन के हर कोने में जैसे सेंध लगी है... शायद मेेरे सामने हमेशा से ही दो देविका थीं, पर में सिर्फ एक ही देविका को जानती थी। दूसरी देविका से तो आज मिली हूं।

डोरबेल बजने की आवाज, दरवाजे पर चाबी का घूमना। दरवाजा खुलता है और आदि के कदमों की आवाज धीरे-धीरे मेरी तरफ बढ़ रही है। सामने आदित्य खड़े हैं और मैं डायरी को नजरें नीचे किए घूर रही हूं। ‘‘आज तुम इतनी जल्दी कैसे?’’

‘‘ बस यों ही, तुम तो आज सुजाता आंटी से मिलने जाने वाली थी, मिल आयीं?’’ कहते हुए वे स्टडी टेबल पर अपना लैपटॉप रखते हैं। आदि की आवाज का ठंडापन मुझे सुनाई ही नहीं दे रहा, बल्कि महसूस भी हो रहा है। मैं उनकी आंखों में आंखें डाल कर पूछती हूं... ‘‘आदि, क्या तुम्हें देविका याद आती है?’’