Thursday 07 January 2021 04:03 PM IST : By Rashmi Kao

मनवा रे (भाग-1)

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मैं मुंबई में हूं... आसमान ने अपनी बूंदों से भरी झोली खोल दी है। मानसून अपने पूरे शबाब पर है। भीगता-डूबता शहर दौड़ रहा है और मैं सुस्त कदमों से जुहू तारा रोड के किनारे-किनारे पैदल चल रही हूं। मन पता नहीं कितनी दिशाअों में भाग रहा है, पर मेरे कदम रुक-रुक कर देविका के घर की तरफ बढ़ रहे हैं। मन है कि कितना बोझ उठा लेता है। कितनी थकान सह लेता है, पर उसकी तलाश नहीं थमती। मुझे तलाश है उस सच की, जिसने मुझसे मेरी सहेली को दूर कर दिया। सौ मील प्रति घंटा की रफ्तार से बात करनेवाली मेरी दोस्त अचानक से खामोश कैसे हो गयी। कुछ आवाजें हैं, जो मुझे बुला रही हैं... उन्हें भी मेरी तरह देविका के यों रूठ कर चले जाने की वजह नहीं मिल रही। सुजाता आंटी आज मुझसे मिलना चाहती हैं... मैं भी उन्हें सुनना चाहती हूं... क्या वे भी मुझसे कुछ कहना-सुनना चाहती हैं? मुझे अचानक इंदू की फोन पर कही बात याद आती है। ‘रेणुका दी, मम्मी आपसे मिलना चाहती हैं। आपके नाम दीदी की एक छोटी सी डायरी है, जो मम्मी को उनकी किताबें के बीच में मिली है,’’ इंदू अपनी बात कह कर चुप हो गयी थी। फिर रुक कर बोली, ‘‘मम्मी को उम्मीद है कि आपको सारा सच पता होगा...’’ एेसा है क्या? क्या मैं देविका के सभी सच जानती हूं? मेरे कदमों और सोच की रफ्तार में कोई तालमेल नहीं है। सच का भी एक सफर होता है। कब तक साथ चलता है पता नहीं। शायद लोग सच को पीछे छोड़ कर आगे निकल जाते हैं। लेकिन जब सच में कुछ बिगड़ता है, तो बहुत कुछ एकदम से बदल जाता है। आप जैसा सोचते हैं, जैसा महसूस करते हैं वैसा कुछ भी नहीं रहता। मेरे पास जो कुछ भी देविका ने छिपा कर रख छोड़ा है उसको सबके आगे खोल कर रखना क्या मुझे बेईमान दोस्त नहीं बना देगा। मैं चल रही हूं और साथ-साथ चल रही है यादें... जिनमें मैं सच टटोलने की कोशिश में हूं...

सुजाता आंटी से चार बजे की मुलाकात... और देविका की डायरी मुझे सच से जोड़ने लगते हैं... मुझे देविका से जुड़े कितने साल हो चुके हैं...। देविका से जब मैं पहली बार मिली तब हम दोनों ही 9-10 बरस की रही होंगी। मेरा घर अंधेरी वेस्ट की सनशाइन सोसाइटी के ‘ए’ ब्लाक में था और देविका की फैमिली बांद्रा से शिफ्ट हो कर हमारी सोसाइटी के ‘बी’ ब्लाक में रहने आयी थी। उसके परिवार में उसकी मां और छोटी बहन इंद्राणी ही थी। इंद्राणी को सभी प्यार से इंदू कहते। जिस दिन उनका सामान से भरा ट्रक बिल्डिंग में आया, उस दिन सब अपने-अपने घरों में गणपति बैठाने में लगे थे। मुझे वह दिन इसलिए याद है, क्योंकि उन्होंने हम सब बच्चों को बुला-बुला कर हमारी हथेली पर प्रसाद का मोदक जो रखा था और देविका की ‘आई’ के हाथ के बने मोदकों का स्वाद आज तक मेरी जबान पर टिका है। धीरे-धीरे देविका और मेरे बीच दोस्ती बढ़ने लगी। उसका एडमिशन घर के पासवाले कॉन्वेंट स्कूल में हो गया, जहां मैं भी पढ़ने जाती। हमारी दोस्ती स्टापू, स्टैचू और आईसपाईस खेलते-खेलते बढ़ी। हमारी छोटी-बड़ी शरारतें हमें स्कूल और सनशाइन सोसाइटी में पहचान दिलाती। हमारी हर बात क्यों, कैसे, कहां से शुरू होती और खत्म भी ढेरों सवालों के बीच होती। एक-दूसरे का हाथ थामे हम किसी भी छोटे-बड़े झुंड में घुस जाते। सबकी बातें सुनते और आखिर के देविका झट से पूछ बैठती, ‘‘इसका क्या मतलब है?’’ डांट पड़ती, तो चुप रहना हम दोनों की मजबूरी बन जाता। जिस दिन मां का मूड खराब होता और मेरे घर से निकलने पर पाबंदी होती, उस दिन देविका अपनी मां को मना कर खुद ही मेरे घर आ धमकती और फिर हमारा कभी ना बंद होनेवाली बातों का पिटारा खुल जाता।

स्कूल के कम्पाउंड के पीछे बने छोटे से चर्च की सफेद पत्थर की सीढि़यों और उबड़-खाबड़ चबूतरे पर उगी घास में से खट्टे पत्तों को ढूंढ़ना, अपने कपड़ों से पोंछ-पोंछ कर उन्हें खाना... घास में उगे छोटे-छोटे पीले सफेद फूलों को बालों में खोंसना, ना जाने कितने ऐसे बेतुके शौक हमने मिल कर पूरे किए थे। पांचवीं क्लास से कॉलेज तक हम साथ पढ़े। रोज शाम को साइकिल चलाने निकलते। गिरते, कोहनियां छिलती, साइकिल की चेन की ग्रीस से हाथ-पैर मुंह काले होते, लेकिन हम ‘कैंची’ चलाना नहीं छोड़ते। आज सोचकर हंसी आती है, पर उन दिनों कैंची का जिक्र हमारी जिंदगी में बार-बार होता। इधर मां भी बोलतीं, ‘‘रेणु, तेरी जबान कैंची की तरह चलती है। थोड़ा चुप बैठना सीख।’’ उधर देविका टेलर से कपड़े लाते ही कैंची उठा लेती। चुपके से उन्हें टाइट और उनकी लम्बाई छोटी करती। हम अपनी इन सभी हरकतों पर नाज करते, इतराते, घूमते। उम्र में उस पड़ाव में जब खूबसूरत दिखना सबसे ज्यादा अहम हो जाता है। हम दोनों ने बेहिसाब आलू, खीरा, पपीते और बेसन को चेहरे पर रगड़ मारा। ना रंगत बदली ना हम।

वक्त ने रफ्तार पकड़ी। हम बड़े होने लगे। हमारी जरूरतें, इच्छाएं, शौक बदलने लगे। एक समर ब्रेक में मां ने दबी जबान में कहा कि तुम्हें अब ब्रा पहननी चाहिए, चलो दिलवा कर लाती हूं, तो मैंने झट से देविका को साथ चलने के लिए न्योत लिया। मां की सिलाई मशीन की छोटी सी दराज में रखे इंचीटेप को उड़ा कर छाती नापते हुए हम कितना हंसे थे। हंसना हमारा सबसे फेवरेट टाइम पास होता और जब हम फेंकने पर आते, तो गप्पें बहती। छुटि्टयों में हम कभी म्यूजिक क्लास जॉइन करने का प्लान बनाते, तो कभी डांस स्कूल जाने की सोचते। पर फटे बांस से गले लिए हम टिक कर बैठने और प्रैक्टिस करने से कतराते। हमारी लापरवाही देख म्यूजिक टीचर भी खफा रहता। बीच में पेंटिंग का भूत सवार होता। रंग हमें एक्साइट करते। रंगों को लेकर हमारे बीच बहस होती। एक शेड लाइट और एक शेड डार्क... सुनने वालों को हमारी बातें स्टुपिड लगती पर हम दोनों अपने आप में मस्त रहते। हमारे कॉलेज में आते ही आंटी ने इंदू को होस्टल में डाल दिया था। कभी-कभी शनिवार को बगल में अपना तकिया दबाए देविका मेरे घर चली आती। सीधे मां से जा कर पूछती, ‘‘आंटी, क्या मैं रेणुका के पास नाइट स्पेंड कर सकती हूं।’’ मां उसके बगल में दबे तकिए को देख कर मुस्करा देतीं और वह ‘थैंक्यू आंटी’ कहती हुई झट से अपना अगला कदम मेरे कमरे में रख देती। इधर देविका की पीठ होती, उधर मां मुझे गुस्से से भवें तरेर कर देखतीं। मैं भी दोस्ती के नशे में डूबी बेशर्मी के साथ मुस्करा देती और फिर चमकती आंखें लिए रात भर अंधेरे में हमारी बातें चलतीं।

जब तक हम कॉलेज पहुंचे, उसे सिगरेट फूंकने का चस्का लग गया था। फूंकना इसीलिए कहूंगी, क्योंकि सिगरेट पीना तो उसे आता ही नहीं था। धुआं मुंह में भरती और फूंकनी की तरह बाहर फूंक छोड़ देती। सिगरेट की झड़ती राख से मेरे बिस्तर की चादर पर उसने कई छेद कर छोड़े थे। उसकी एेसी हरकतों पर मां से मुझे जम कर डांट पड़ती। मैं एक कान से सुनती और दूसरे कान से निकाल देती, पर अपनी सहेली को बचा ले जाती। मैंने अपना पहला बेलबॉटम उसके साथ खरीदा था...। कप केक और मफिन का फर्क भी उसी ने तो मुझे बताया था। अंडरवायर ब्रा और पुशअप ब्रा को ले कर पूछे गए मेरे बेवकूफी भरे सवालों पर वह कितना हंसी थी। ‘तुम भइय्यन के देश से हो,’ कह कर वह हजारों बार मेरा अंग्रेजी का प्रोनंसिएशन ठीक करती। ‘अंग्रेजी सही बोल या मत ही बोल’। उसकी हर डांट इसी वाक्य के साथ खत्म होती और मैं उसकी हिंदी की लंगड़ी टांग सुधारने में अपना हिसाब बराबर कर लेती। लेकिन हमारी दोस्ती में नाराजगियां कभी अपना खाता ना खोल सकी। हम एक-दूसरे के गुस्से को नाप लेते। रूठते-मनाते। फिर रूठते पर कभी किसी तीसरे को बीच में नहीं आने देते। सिर्फ इंदू ही थी, जिसे कभी-कभी रेफरी का रोल करना पड़ता वह भी इसलिए, क्योंकि मैं उसे हमेशा देविका की डांट से बचाती थी। अपने ग्रुप में इंदू को साथ ले जाने के लिए देविका को राजी करना मेरी ही जिम्मेदारी होती। आज इंदू को मेरी मदद करनी होगी। मैं सच की तरफ बढ़ रही हूं... अब शायद उसके करीब हूं... बहुत करीब... इंदू, सुजाता आंटी और देविका की डायरी मुझे सच से जोड़ते लगते हैं। मुझे याद है आंटी ठीक चार बजे इंग्लिश ब्रेकफास्ट टी कहा जाने वाला अपना चाय का कप कितना आंनद ले कर पीती हैं। उनका मूड भी उसी समय सबसे अच्छा होता है। मैं सोचते-सोचते प्रेस्टीज कॉम्लेक्स के आगे रुक जाती हूं।

‘‘आपको कहां जाना है...’’ सोसाइटी गार्ड का सवाल मुझे वर्तमान में खींच लाता है। ‘‘सुजाता म्हात्रे फ्लैट नं. 1202 टॉवर-5।’’ ‘‘मैडम, आगे से दाएं, बारवां माला।’’ डूबता सा दिल और मेरा बेजान सा हाथ सुजाता म्हात्रे की डोरबेल की तरफ उठा गया। इंदू ने दरवाजा खुला और मैं सुजाता आंटी के सामने थी। सुजाता आंटी हमेशा से मेरी स्टाइल ऑइकन थी और आज भी वैसी ही लगीं। भवें ऐसी जैसे किसी ने स्टेंसिल रख कर तराशी हों। मेरे पहुंचने से पहले ही डाइनिंग टेबल पर पॉट टी की ट्रे सजी रखी थी। टीकोजी पर रंगीन रेशमी धागों की कढ़ाई दूर से ही चमक रही थी। छोटा सा नैपकिन हाथों में लिए डायनिंग टेबल पर बैठी आंटी नैपकिन की लेस की सुकड़न को अपनी उंगलियों से खोल रही थीं। ऐसा लगा मानो मेरे मन में बिखरे सवालों की सभी सिलवटें भी आज मिट जाएंगी और मैं अपनी सहेली की यादों को तहा के दिल में कहीं संभाल कर रख लूंगी। मैंने आगे बढ़ कर आंटी को गले लगाया। अगर आंसुअों में वजन होता तो शायद हम दोनों ही उसमें डूब चुके होते। उन्होंने धीमे से कहा कि मैं किसी से भी ना कहूं कि देविका ने आत्महत्या की थी। यह मामला उन्होंने कैसे दबाया पूछने की हिम्मत मैं नहीं कर सकी। देविका के बबल मामा ने ही इस बात को दबाने में शायद अपना सारा जोर लगा दिया होगा। बबल मामा की पहुंच किसी से छिपी नहीं थी।

आंटी, इंदू और मैं... चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे। मैं सोचने लगी क्या देविका के रहते घर में इतना सन्नाटा रह सकता था। हमारे बीच की चुप्पी को देविका की नामौजूदगी जोड़ रही थी। तभी अचानक आंटी बोलीं, ‘‘रेणुका, तेरी सहेली पागल थी... तुम्हें पता है वह सनशाइन अपार्टमेंट्स वाले फ्लैट की बेडरूम विंडो से भी कूद चुकी थी।’’

‘‘आंटी, आप क्या बात करती हैं। वो तो कपड़े उठाने के चक्कर में बैलेंस लूज कर गयी थी।’’

‘‘सब बकवास है। उसने तब भी सुसाइड करने की कोशिश की थी। नाकामयाब रही यह अलग बात है। और यही वजह थी कि हमने वह फ्लैट छोड़ा।’’

आंटी की बेरुखी मुझे समझ आ गयी थी। मुझे अफसोस इस बात का था कि वे यह मानने को राजी नहीं थीं कि मैं कुछ नहीं जानती। क्या समझाती कि कोई किसी को अपने मन की करने से कैसे रोक सकता है। लोग रास्ते निकाल ही लेते हैं। चाय का कप मुझे थमाते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘क्या देविका उससे शादी करना चाहती थी? मुझे समझते देर नहीं लगी कि आंटी का इशारा किस तरफ है। जनम जोसफ...। वह फैशन फोटोग्राफर जिसके साथ देविका ने थियेटर ग्रुप जॉइन किया था। उसके हर फोटो शूट में वह उसके साथ रहती। कभी उसकी मॉडल बनती, कभी उसके मॉडलिंग असाइनमेंट्स में जी तोड़ मेहनत करती। कभी कॉस्ट्यूम कॉर्डिनेटर बन जाती, कभी स्टाइलिस्ट, तो कभी मेकअप आर्टिस्ट बन हरफनमौला देविका जे.जे. के हर प्रोजेक्ट में अपने आपको फिट कर लेती। कोलाबा से कांदिविली तक फोर्ट से कल्याण तक, कहीं भी दौड़ा दो, जे.जे. के लिए वह आसमान में छेद करने को तैयार रहती। मैं उसे जे.जे. की चेली इन चीफ कह कर चिढ़ाती ।

चाय का हर घूंट भारी लग रहा था। मैं सिर्फ डायरी देखना चाहती थी। अपनी प्यारी सहेली के लिखे आखिरी शब्द-क्या वह दुखी थी.. दुखी थी तो क्यों... और कितनी। क्या प्यार ने उसे तोड़ा था। यहां जनम जोसफ का जिक्र मैं कैसे संभालूं। मुझे सिर्फ इतना पता था कि वह जे.जे. को ले कर बहुत पजेसिव थी। जे.जे. में कोई कमी निकाले यह उसे बर्दाश्त नहीं था। चाय का आखिरी घूंट अभी बाकी था और आंटी ने अपना आखिरी सवाल मुझ पर दागा...।

‘‘क्या तुम देविका और जनम के रिश्ते की सारी सचाई जानती हो?’’

बचपन में देविका आंटी के पीछे खड़े हो कर इशारे से जवाब बताती। कब ‘हां’ कहना है और कब ‘ना ’। अचानक मुझे वैसा सा ही महसूस होने लगा जैसे देविका फिर से वहां मौजूद हो और मुझे इशारे से भाग जाने को कह रही हो। कमजोर पड़ूं इससे पहले मैंने वहां से उठने का मन बना लिया। मैं छुपा गयी कि देविका की डायरी के बारे में इंदू मुझे बता चुकी है और मैं उसे ही लेने आयी हूं। मैंने हिम्मत जुटाने की कोशिश मेें कमरे में निगाह दौड़ाई। देविका की ब्लैक एंड वॉइट क्लोजअप तस्वीर फोटो फ्रेम से मुझे देख कर मुस्करा रही थी जैसे कह रही हो ‘डायरी लिए बिना मत जाना’। फोटो से नजर हटा कर मैंने फिर से आंटी को देखा। हमारी नजरें मिलीं। कुछ सोच कर उन्होंने कहना शुरू किया, ‘‘देविका की तुम्हारे नाम एक डायरी है, जो मेरे पास रखी है। कई बार मन में ख्याल आया कि उसे फाड़ दूं, पर एेसा ना कर सकी। दिल के किसी कोने से आवाज आती थी ‘इसे रखो, किसी की अमानत है।’’

एकदम से मेरी हिम्मत वापस लौट आयी। मैंने सधी आवाज में पूछा, ‘‘क्या आप मुझे वह डायरी देंगी प्लीज। मैं उसे पढ़ना चाहती हूं।’’ मेरी बात खत्म हो इससे पहले ही कमरे में उनका सख्त जवाब गूंज गया, ‘नहीं।’ कहीं पढ़ा था कि चेहरे की 43 मसल्स इमोशंस को जाहिर करने का काम करती हैं और वे उस समय आंटी के चेहरे पर ओवरटाइम करती सी लगी।

‘‘पर क्यों?’’ पता नहीं कैसे मेरे मुंह से अचानक निकल गया। मैं हमेशा से ही आंटी से कम बातें करती। शायद मैं उनसे डरती थी लेकिन उस पल हिम्मत आ गई। उम्र में जुड़ गए साल ही इस हिम्मत की वजह रहे होंगे। इतनी हिम्मत करने के बाजवूद मैं डर, गुस्से, प्यार और अपनी लाचारी से कांपने लगी। शरीर ठंडा पड़ता सा महसूस होने लगा। इंदू पर नजर टिकाए मैं लड़खड़ाती हुई खड़ी हो गई। मैं तो सिर्फ उसकी अपने आपको खत्म करने की वजह ढूंढ़ना चाहती थी। डायरी देख कर कुछ तो पता चलता। वह नाराज क्यों थी? उसने क्या किसी को जिम्मेदार ठहराया था। क्या उसे मेरी कोई बात चुभी थी। ऐसे अंत की क्या वजह है या कुछ और ही था जो मैं नहीं जानती थी। कोई नया सच जो मेरी समझ से परे था। क्या आंटी इतनी सख्त हो जाएंगी कि अपनी बेटी और मुझे ही ना समझें। अगर मुझे डायरी नहीं देनी थी, तो फिर बताया ही क्यों कि देविका ने अपनी कोई डायरी मेरे लिए रखी है।

‘‘अच्छा यही होगा कि तुम डायरी का ख्याल छोड़ दो।’’ मुझे डायरी ना देने की जिद आंटी के कहने के अंदाज में साफ जाहिर थी। इंदू भी कमरे से उठ कर जा चुकी थी। मैंने वहां से चलना ही मुनासिब समझा। आंटी को उसी हाल में बैठा छोड़ मैं वहां से निकल आयी। जैसे ही लिफ्ट से कदम बाहर रखा इंदू हाथ में पैकेट लिए सामने खड़ी मिली। ‘‘रेणुका दी... यह रही आप की अमानत। यह मैं इस शर्त पर आपको दे रही हूं कि हम वापस कभी इस बारे बात नहीं करेंगे।’’ डायरी कलेजे में चिपकाए वापस लौटते हुए मैं यह सोचती रही कि देविका को समझने में मैं कहां चूक गयी। मेरा मुंबई छोड़ना और शादी। इन दोनों फैसलों से वह मुझे नाखुश जरूर लगी थी, लेकिन इसे मैंने अपनी लंबी दोस्ती में वक्त की मजबूरियों से आती दूरियों से ज्यादा कुछ नहीं समझा। देविका को मैं जरूरत से ज्यादा इमोशनल ही समझती रही। इसीलिए शादी के बाद भी मैं उससे रोज बतियाती। बातें लंबी चलतीं। हम हंसते और कॉलेज की बातें याद करते। बातों के बीच में वह बोल पड़ती, ‘‘आई वॉन्ट टू किल माई सेल्फ...’’ रजाई की गरमाहट में लिपटी मैं एकदम से कांप जाती। आज याद करती हूं, तो अफसोस होता है। क्यों मैंने उसकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया। टोकने पर जवाब में वह स्ट्रेस रिलीज करने का बहाना देती। मैंने उसके इस स्ट्रेस को उसके फुस्स हुए रोमांस नं. 2 के गुबार से ज्यादा कुछ नहीं समझा। एक रंगीन रोमांटिक बुलबुला जो फट गया और जिसका नाम वह मुझसे चालाकी से छुपा गयी थी। ज्यादा पूछती तो झट से बात को गोल कर कोई बेतुका जोक सुना देती। मैं उसे ढीठ कह कर झिड़कती तो हंस कर कहती, ‘ढीठ हूं इसलिए तो ठीक हूं।’ फिर कभी-कभी खुद ही उस अनाम शख्स का जिक्र कर बैठती, ‘‘रेणुका, उसके आई लव यू कहने से कुछ नहीं होता। उसमें मुझे 20 परसेंट प्यार और 80 परसेंट बेरुखी नजर आती है।’’ मैं मन ही मन सोच कर हंसती क्या कभी प्यार भी परसेंटेज के पैमाने से नापा जा सकता है? अगर हो सकता है तो सिर्फ देविका ही एेसा कर सकती है।

देविका की डायरी में क्या वाकई उसकी आत्महत्या का राज बंद था? ऐसा क्या था जो वह रेणुका से कहना चाहती थी? वह कौन सी बात थी जो जीतेजी वह अपनी प्यारी सखी से ना कह पायी, जिसे कहने के लिए इतना बड़ा कदम उठाना पड़ा?

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