समंदर की नगरी से लौट कर आया तो पाया कि अभी गोमती के शहर ने अपनी निर्मलता को बरकरार रखा है। यह अलग बात थी कि भाईचारे में वह पहले वाली बात नहीं रही। पापा ने भी चौक का घर बेच कर गोमती नगर में नया ठिकाना बनाया है। मेरा ऑफिस भी शहीद पथ के उस पार है। अब पुराना लखनऊ सिर्फ जेहन के कहीं बहुत भीतर फंस कर रह

समंदर की नगरी से लौट कर आया तो पाया कि अभी गोमती के शहर ने अपनी निर्मलता को बरकरार रखा है। यह अलग बात थी कि भाईचारे में वह पहले वाली बात नहीं रही। पापा ने भी चौक का घर बेच कर गोमती नगर में नया ठिकाना बनाया है। मेरा ऑफिस भी शहीद पथ के उस पार है। अब पुराना लखनऊ सिर्फ जेहन के कहीं बहुत भीतर फंस कर रह

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समंदर की नगरी से लौट कर आया तो पाया कि अभी गोमती के शहर ने अपनी निर्मलता को बरकरार रखा है। यह अलग बात थी कि भाईचारे में वह पहले वाली बात नहीं रही। पापा ने भी चौक का घर बेच कर गोमती नगर में नया ठिकाना बनाया है। मेरा ऑफिस भी शहीद पथ के उस पार है। अब पुराना लखनऊ सिर्फ जेहन के कहीं बहुत भीतर फंस कर रह

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समंदर की नगरी से लौट कर आया तो पाया कि अभी गोमती के शहर ने अपनी निर्मलता को बरकरार रखा है। यह अलग बात थी कि भाईचारे में वह पहले वाली बात नहीं रही। पापा ने भी चौक का घर बेच कर गोमती नगर में नया ठिकाना बनाया है। मेरा ऑफिस भी शहीद पथ के उस पार है। अब पुराना लखनऊ सिर्फ जेहन के कहीं बहुत भीतर फंस कर रह गया है। वक्त का मसला ऐसा है कि पांच दिन कमाने में, दो दिन सोने और परिवार की जरूरतों को पूरा करने में ऐसे चुपके से गुजरता है कि पता नहीं चलता कि कब हफ्ता रुका और कब फिर से चल पड़ा।

आज एक ही फोन ने दिल के सारे के सारे बंद दरीचे खोल कर रख दिए।

“आपकी जरूरत है।”

“तुम?”

“जी !”

“कहो।”

“प्लीज, मुझे बचा लीजिए !”

“क्या हुआ, कुछ बोलो तो।”

“आज शाम मिल कर बात कर सकते हैं?”

“जरूर कर सकते हैं। बताओ, कहां आ जाऊं? टीले वाली मस्जिद?”

“जी !”

उसके छोटे से ‘जी’ के बाद डिस्कनेक्ट हुए फोन ने मेरे दिल के हर तार को झनझना दिया। ‘इनाया’ यही नाम था, जो कुछ अरसा पहले तक हर वक्त मेरी जबान पर खजूर की मिठास सा बना रहता था। उसके अब्बा को एक बार कहते सुना था, “अल्लाह का दिया तोहफा है मेरी बिटिया, तभी तो मैंने इसका नाम इनाया रखा है।”

मैंने झट से गूगल करके उसके नाम का मतलब देखा तो पाया ‘अल्लाह का तोहफा’। उसी वक्त भगवान से उसे अपने लिए मांग बैठा था। जानता था कि मैं अपने इष्टदेव से इतना आसान वर नहीं मांग रहा था। फिर उसी दिन ऐसा लगा था कि जैसे प्रभु ने मेरी सुन ली है। ठाकुरगंज की उस व्यस्त गली से किसी भी वाहन को आसानी से निकालना किसी करतब की तरह होता था। मैंने अपनी स्कूटी निकाली ही थी कि उसकी अम्मी ने कहा, “बेटा दिलीप, जरा इनाया को टीले वाली मस्जिद तक पहुंचा दो !”

“जी जरूर, चाची जी !” कहते हुए मेरे दिल ने इतनी जोर से अंगड़ाई ली कि मुझे लगा मेरा सीना बाहर से भी मुड़ कर दोहरा हुआ जा रहा है। मैं स्कूटी से कपड़ा निकाल कर उसके सफेद रंग को थोड़ा सा और चमकाने लगा। यह कार्य मेरे स्वभाव के बिलकुल विपरीत था, पर उसके लिए कुछ भी करने के लिए बुद्धि की नहीं, दिल की सुननी थी; और दिल इस वक्त कह रहा था- ‘तुम्हारे मन की मुराद पूरी होने को है, तो क्या तुम उसे गंदी गाड़ी पर बिठाओगे?’ सिर झटकते हुए खुद को ही बोला- ‘नहीं, बिलकुल भी नहीं !’ मेरा हाथ तेजी से गाड़ी की सीट साफ कर रहा था कि वह मेहंदी रंग के सलवार-कुरते में मलमल का दुपट्टा ओढ़े मेरे पास आ कर बोली, “चलिए, स्कूटी को इतना चमकाने से कोई फायदा नहीं। यह ठाकुरगंज है, कोई भी प्यारा सा निशान आपकी गाड़ी पर चस्पां कर चला जाएगा,” कहते हुए वह हंस दी। मैं बेवजह खिसिया सा गया था।

सारे रास्ते वह बोलती रही। मैं उसे महसूस करता रहा और उसके इत्र में भीगता रहा। मस्जिद पहुंच कर उसने वहां अगरबत्ती जलायी, ना जाने क्या मन्नत मांगी और एक धागा दीवार के कोरों में बांध दिया।

मैं बाउंड्री के उस तरफ खड़ा बस उसे देख रहा था कि उसने इशारे से मुझे बुलाया। मैंने भी इशारे में ही पूछा कि ‘क्या मैं?’

उसने फिर से इशारा किया कि सिर ढक कर भीतर आऊं। मैंने जेब से रूमाल निकाल कर सिर पर बांध लिया और उसके करीब जा खड़ा हुआ। उसने एक धागा मेरे हाथ में दिया और इशारा करते हुए कहा, “मेरे लिए दुआ करिए और इसे वहां भीतर जा कर बांध दीजिए !”

मैं जैसे उसके हाथ के रिमोट की तरह ऑपरेट हो रहा था। नहीं पता कि बंद आंखों में मैंने क्या दुआ की थी, पर अपने भगवान का शुक्रगुजार जरूर हो गया था।

लौटते वक्त उसने मेरे कान के बिलकुल करीब आ कर कहा, “दुबई से हामिद आ रहे हैं।”

“कौन?”

“सच्ची आप ना बिल्कुल बुद्धू हो। मेरी फूफी के बड़े वाले बेटे। आप जिनके साथ क्रिकेट खेलते थे।”

“उसका नाम तो हिब्बी था।”

“अरे, वह तो पहले अब्बू उसे चिढ़ाने के लिए बुलाते थे, फिर वही नाम सबकी जबान पर चढ़ गया था।”

“अच्छा ! वह तो मेरा भी दोस्त है।”

“जानती हूं, आप दोनों छत पर खेलते रहते थे, वह भी क्रिकेट,” इतना कह कर वह फिर खिलखिला उठी। गुदगुदी मुझे भी हुई, पर मैं बस मुस्करा दिया।

बात पूरी तरह से खत्म भी नहीं हो पायी थी और हमारा घर आ गया था। हफ्ते भर मैं आते-जाते रास्ते में टीले वाली मस्जिद और कल्याणगिरी मंदिर दोनों के आगे बड़ी श्रद्धा से माथा झुकाता। आठवें दिन ही उसका रिश्ता पक्का होने की मिठाई मां ने मुझे खिलायी। मुंह में रखते ही गल जाने वाली राधेलाल की दूध की बरफी ने मुझे जला कर रख दिया। समझ नहीं आया कि यह सब इतनी जल्दी कैसे हो गया। अभी तो दुआ मांगी ही थी। कबूल ना होती, पर कोशिश करने भर का मौका तो सही से मिलता। मेरी आस्था पर गहरा प्रहार हुआ था। मेरे लिए उससे मिलना कोई मुश्किल काम नहीं था। हम एक-दूसरे के घर बचपन से बेरोकटोक आते-जाते थे। हमारे पारिवारिक रिश्ते थे। हम होली और ईद एक साथ गले मिल कर मनाते थे।
रिश्ते की बात सुन कर कई बार कई बहाने से मैं उसके घर गया, किंतु ना तो वह मुझे उदास दिखी, ना ही परेशान लगी। उल्टे, वह मुझे पहले से ज्यादा खुश दिखती थी। किसी ना किसी बहाने से अपने दुबई सेटल होने की बात जरूर करती, कहती कि, “माना कि लखनऊ बहुत याद आएगा, किंतु दुबई की तो बात ही और होगी जनाब! जब हम ठाकुरगंज की तंग गलियों से निकल कर दुबई की चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर अपना चिकन का दुपट्टा लहराएंगे, तब तुमको तसवीरें जरूर भेजेंगे।”

मैं भीतर ही भीतर दरक कर रह जाता। दिल कर रहा था कह दूं कि, “इनाया, हमने भी कई इम्तहान दिए हैं। किसी ना किसी का नतीजा तो मेरे लिए नौकरी का बुलावा ले कर आएगा ही। तब तक रुक जाओ। मैं तुमको वह सब कुछ दूंगा, जो तुम चाह रही हो।”

मैं अपने सारे शब्द घोंट कर रह जाता। कहता भी कैसे? जेब में बाप की कमाई के कुछ सिक्के दुबके रहते और हाथ में नौकरी की अर्जियों से भरा कश्कोल था। उसकी शादी रईस परिवार में हो रही थी, वह भी विदेश की धरती पर, जो शायद उसका सपना रहा होगा।

इनाया की शादी की तारीख रखी गयी और मुझे मुंबई से नौकरी में चयनित होने की खबर मिली। एक बार सोचा हिम्मत करके कह दूं कि “इनाया, अब मुझे भी पंख मिल रहे हैं। तुम मेरे साथ उड़ान भरो ना!” पर हिम्मत नहीं जुटा पाया। उसकी खुशी और पड़ोसी रिश्ते का मान रखने की खातिर खुद के अरमानों को मसल दिया था। शायद मेरे भीतर इतनी हिम्मत ही नहीं थी कि मैं अपनी बात उसके सामने रख पाता। मुझे याद है कि यह सब करते हुए बहुत दर्द हुआ था।

मैं चाहता तो कुछ दिन बाद मुंबई जा सकता था। ऑफिस में रिपोर्ट करने के लिए मेरे पास अभी 10 दिन का वक्त था। मैंने ऐसा नहीं किया और उसकी रुखसती से पहले ही मैंने अपना सामान बांध लिया। अहसास हो गया था कि मैं नहीं हूं उसके दिल में। दूल्हे का नाम सुनने के बाद ही समझ गया था कि हामिद ही उसकी पसंद है।

शाम की ट्रेन से जाने से पहले उसे बस एक बार देखने के लिए उसके घर गया। पता चला उसका ब्यूटी पार्लर का अपॉइंटमेंट था। वह वहां चली गयी है। उसे मुबारकबाद दिए बिना ही चला आया। दिल ऐसा कुछ करना भी नहीं चाहता था। शहर छोड़ते वक्त ना मंदिर, ना मस्जिद कहीं भी सिर नहीं झुकाया, ना ही सजदा किया।

समय के साथ सब कुछ भूल भी गया था। अपनी जिंदगी में आगे बढ़ते वक्त उसके साथ की इकलौती स्कूटी यात्रा को कहीं बहुत पीछे छोड़ दिया था।

आज उसके फोन ने सारे घाव खोल दिए थे।
इस वक्त ऐसा लग रहा था जैसे पुराने घाव पर सूखी पपड़ी चिटक कर फट गयी हो। कोई तो मरहम लगा दे। दोपहर के फोन के बाद से शाम को आने में आज पूरे 7 बरस लग गए थे। पांच बजते ही अपनी सफेद होंडा सिटी कार में बैठ कर टीले वाली मस्जिद के लिए निकल पड़ा। रास्ते में उसके लिए फूल खरीदे। शादी के बाद पहली बार मिल रहा हूं, सो कुछ तोहफा तो देना ही चाहिए। वैसे भी अपने लोगों से मिलने भला कोई खाली हाथ जाता है, जो मैं चला जाता? आखिर वह मेरी अपनी ही तो थी। कितने ही विचार दिल में हिलोरें ले रहे थे। क्यों बुलाया है? भला मुझसे क्या काम आन पड़ा? तभी कानों में उसके ही शब्द फिर से गूंजे, “मुझे बचा लो।”
दिल तेजी से धड़का और माथे पर पसीना आ गया। सोचने लगा कहीं हामिद उसे मारता-पीटता तो नहीं? कहीं मुझे ले कर शक तो नहीं करता? लेकिन मैं तो इनाया से खुद के दिल की बात कभी कह ही नहीं पाया था। कहीं उस इकलौते सफर का जिक्र तो इनाया ने हामिद से नहीं कर दिया, जिसकी वजह से उसकी जिंदगी मुश्किल में पड़ गयी हो? सोचा कह दूंगा हामिद से कि मेरा इनसे कभी भी कोई वास्ता नहीं रहा। यह सब सोचते हुए ही कार के मिरर में खुद की शक्ल देख कर दिल ने छी: कह कर जैसे धड़कना ही बंद कर दिया। धड़कनों को फिर से चलाने के लिए सीने पर हाथ फेरा और छलक आए पसीने को रूमाल से पोंछने लगा। रास्ता खत्म हो चुका था। मैं कार पार्क करने के लिए सही जगह तलाश रहा था कि वह मस्जिद की दीवार से टिक कर खड़ी हुई दिखायी दी। पीला चिकन का कुरता, हरा चूड़ीदार और हरा दुपट्टा लिए वह गेट के पास ही खड़ी थी।

मुझे देखते ही फफक पड़ी और बोली, “आपकी दुआ में बड़ा असर है। मेरे लिए एक बार फिर से मन्नत मांग लीजिए! हामिद का एक्सीडेंट हो गया है। आपने दुआ की थी तभी वह मुझे मिले थे। नहीं तो अब्बा कभी हामिद से मेरा निकाह नहीं होने देते। वे मुझे खुद से इतनी दूर नहीं भेजना चाहते थे। जिस दिन आपने मन्नत का धागा बांधा था, उसी दिन अब्बा ने हामिद से मेरे रिश्ते के लिए हां कर दी थी।”

वह आंसुओं से चेहरा भिगोते हुए बोले जा रही थी और मैं अवाक सा खड़ा उसे सुन रहा था। अपना रूमाल सिर पर बांधते हुए मैंने उसके हाथ से मन्नत का धागा लिया और उसे दीवार के बीच बने खाने में बांध दिया। फिर दुआ की कि “हे ईश्वर ! मेरी इनाया का भ्रम बनाए रखना !”

उसकी उम्मीद के धागे को बांध जैसे ही बाहर आया, सामने खड़े फकीर ने अपना कश्कोल मेरे आगे बढ़ा दिया। मैंने चंद सिक्के हामिद के नाम के डाल दिए। वह पूरी उम्मीद के साथ वापस जा रही थी और मैं एक उम्मीद का दामन थामे प्रार्थना कर रहा था।