छोटी उम्र में वैधव्य का दंश झेलने वाली बड़ी मां ने जीवन को रुकने नहीं दिया। अपनी निजी खुशी को दरकिनार करते हुए उन्होंने सबके सुख के लिए जीवन निछावर कर दिया। उन्होंने ऐसा क्या किया कि वे मेरी मां के लिए आदर्श बन गयीं?

छोटी उम्र में वैधव्य का दंश झेलने वाली बड़ी मां ने जीवन को रुकने नहीं दिया। अपनी निजी खुशी को दरकिनार करते हुए उन्होंने सबके सुख के लिए जीवन निछावर कर दिया। उन्होंने ऐसा क्या किया कि वे मेरी मां के लिए आदर्श बन गयीं?

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छोटी उम्र में वैधव्य का दंश झेलने वाली बड़ी मां ने जीवन को रुकने नहीं दिया। अपनी निजी खुशी को दरकिनार करते हुए उन्होंने सबके सुख के लिए जीवन निछावर कर दिया। उन्होंने ऐसा क्या किया कि वे मेरी मां के लिए आदर्श बन गयीं?

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चारु की शादी की चहलपहल केवल उसके घर में ही नहीं, बल्कि चाणक्यपुरी के पूरे मोहल्ले में थी और हो भी क्यों नहीं। सूर्या कुमार आईएएस की बेटी की शादी जो थी। जिसे देखो वह ही आज से ले कर परसों तक होने वाली रस्मों में सजने-संवरने, पहनने-ओढ़ने की तैयािरयों में व्यस्त था। कौन सबसे बढ़ कर खूबसूरत दिखे हर उम्र की दहलीज पर एक होड़ सी लगी थी।

पुरुष वर्ग एअरपोर्ट अथॉरिटी की ओर दौड़ लगा कर परसों आने वाली बारात की रंगीन तैयारियों में व्यस्त थे। आज मेंहदी की रस्म थी। बच्चियों, कुमारियों से ले कर महिलाएं तक की हथेलियां मेंहदी के बेलबूटे से सजने के लिए आतुर थे। मेंहदी वालियां मेंहदी घोल कर बेसब्र हो रही थीं कि कब वे सौ हथेलियों पर कुशलता का कमाल दिखा सबसे नेग वसूलें।

लेकिन व्यग्रता से क्या होना था। जब तक बड़ी मां आ कर चारु की हथेलियों पर मेंहदी की बूटे नहीं रखतीं, इस रस्म की शुरुआत ही नहीं होनी थी। सभी की टकटकी दरवाजे पर लगी थी। अपनी जेठानी की प्रतीक्षा में बालकनी से अंदर व दरवाजे तक बेचैनी से चहलकदमी करते चारु की मां वाणी के पांव थक ही नहीं रहे थे। बड़ी मां की लंबी प्रतीक्षा से ऊब कर चारु की एक मुंहफट सहेली बोल पड़ी, ‘‘चारु, सुहागिनों की इस रस्म में तेरी बड़ी मां का क्या काम है कि उनका इतना इंतजार किया जा रहा है। हमारे यहां तो शादी के शुभ कार्यों से विधवाओं को दूर रखा जाता है।’’

अपनी सहेली के मुंह पर अपनी हथेली रख कर चारु ने आगे के वार्तालाप पर विराम लगा दिया। अपनी थरथराती एवं अवरुद्ध आवाज पर काबू पाते हुए कहा, ‘‘चुप रहो। कहीं मां ने सुन लिया, तो वे सारी रस्मों की अदायगी पर पाबंदी ही लगा देंगी। बड़ी मां की मौजूदगी ही सारे रस्मों का पर्याय है,’’ कहते हुए चारु अपनी सारी सहेलियों के साथ पूजा घर में आ गयी। पूजा घर में बने हुए मंदिर के सबसे ऊपर रखी गयी अपनी बड़ी मां की आदमकद तसवीर और उससे जरा हट कर अपने बड़े बाबू जी के जोड़े वाले फोटो को इंगित करते हुए चारु ने कहा, ‘‘मेरी मां के जीवन में सभी रिश्ते मेरी बड़ी मां से ही शुरू हो कर उन्हीं पर समाप्त हाेते हैं। उन्होंने अपने आपको इन्हें समर्पित कर रखा है। मां की सारी शक्तियों का स्रोत बड़ी मां हैं। इसके पीछे बड़ी मार्मिक गाथा है,’’ कहते हुए चारु विगत के उस गलियारे में प्रविष्ट कर गयी, जब वह पैदा भी नहीं हुई थी।

पच्चीस साल पहले बाबू जी से पवित्र बंधन की गांठ जोड़े, विरह-मिलन के सागर में डूबती-उतराती, विवाहित जीवन के रंगबिरंगे सपनाें को आंखों में सजाए सजीधजी गाड़ी में मां रांची से पटना आ रही थीं कि रास्ते के किसी चढ़ाई-उतराई पर सूमो गाड़ी जिसमें मेरे बड़े बाबू जी अपने चाचा, फूफा, मामा और दो-चार और संबंधियों के साथ बैठे थे, ब्रेक की खराबी के कारण लुढ़कते हुए खाई में जा गिरी। सारे लोग बुरी तरह से घायल हो गए थे, लेकिन बड़े बाबू जी ने हॉस्पिटल ले जाने के रास्ते में ही दम तोड़ दिया था। जिस घर में चारों ओर खुशियां नाच रही थीं, इस दुर्घटना की खबर आते ही मातम छा गया। किसी ने मां के आगमन को मनहूस ठहराया, तो कितने मन ही मन मेरी दादी के इतने बड़े दुर्भाग्य पर भी बड़ा आनंदित थे कि चलो, राम-लक्ष्मण की जोड़ी ताे टूटी। कितना अभिमान था इन्हें अपने आईएएस और आईपीएस बेटों पर। हालांकि मेरे दादा-दादी के मन में ऐसी भावनाएं कभी नहीं आयीं। उन्होंने अपने श्री कृष्णापुरी वाले मकान में गेट के दोनों ओर की दीवारों पर बड़े ही शौक से सुनहरे अक्षरों में अंकित अनिल सहाय आईएएस एवं सुनील कुमार आईपीएस की तख्तियां लगवायी थीं, जिसे देख कर बाहर वाले जहां उनकी तकदीर की सराहना करते नहीं थकते थे, वहीं उनके परिवार की छाती पर मारे ईर्ष्या के सांप लाेट रहे थे। वे ही उस दिन घडि़याली आंसू बहाते हुए कुलक्षिणी, डायन आदि विशेषणों से मेरी मां को विभूषित कर रहे थे। दादी और बड़ी मां की मौन सिसकियों की अनुगूंज से सारा घर कंपित था।

इधर आधे रास्ते से ही मां को लौटा दिया गया। बिना किसी दोष के ही मेरी मां उपेक्षित, दंडित और प्रताडि़त हुईं। घर में बड़े बाबू जी के देहावसान के समाचार से प्रस्तर बनी शोकाकुल दादी और बड़ी मां को ऐसा धक्का लगा कि उनकी आंखों से आंसू का एक कतरा भी नहीं गिरा। ना जाने कितने दिनों तक शिला बनी ये दोनों बड़े बाबू जी की शादी की तसवीर को अपलक निहारती रहीं। कब बड़े बाबू जी के मृत शरीर काे लाया गया, कब सजा-संवार कर उन्हें इस घर से विदाई दी गयी, कब पीले जोड़े, रोली-चंदन से सजा दूल्हा यानी मेरे बाबू जी केशविहीन हो कर सफेद वस्त्र धारण कर चुके थे। सभी बुजुर्गों के मना करने के बावजूद अपने बड़े भाई का सारा संस्कार मेरे बाबू जी ने ही किया।

‘‘मैं ताे भातृहीन होने के साथ पितृहीन भी हाे गया हूं,’’ कह कर मेरे बाबू जी का फफक कर रोना सभी के पलकों को भिगो गया।

दो साल पहले ही साइलेंट हार्ट अटैक से मेरे दादा जी की मृत्यु हो गयी थी। बड़ी मुश्किल से दादी दुख के गहन अंधेरे से निकली ही थीं कि दुर्घटना में बड़े बाबू जी का गुजर जाना मानो सारा आकाश ही तोड़ गया था। वह बड़ी मां ही थीं, जो दादी के अंतर्मन के भीषण हाहाकार को अपने मौन वार्तालाप में समेट उनकी जीजिविषा को जागृत कर सकी थीं। इधर बड़ी मां की दबंग एमएलए मां की रुदन से सारा घर थर्रा उठा था। कहते हैं कि वे बड़ी मां को अपनी बांहों के घेरे में बांध बारंबार यही कहे जा रही थीं, ‘‘लो बेटी के साथ मैंने भी सुहाग की सारी निशानी चूड़ी, बिंदी, सिंदूर बिछुए सभी उतार दिए। अब उसी दिन इसे धारण करूंगी जिस दिन मेरी बेटी फिर से सुहागिन बनेगी। इतना लंबा जीवन अकेले कैसे बिताएगी। मैं साल के अंदर ही इसका ब्याह रचाऊंगी,’’ आदि उनके प्रलापों ने सभी को सहमा कर रख दिया था।

फिर बड़ी मां के तन से सुहाग चिह्न निकालने की हिम्मत किसी को भी नहीं हुई। बेसुध हुई बड़ी मां को होश तो उस दिन आया जब उनकी मां ने अमित भैया के साथ उन्हें ले जाने की पूरी तरह से तैयारी कर ली थी। उसी विक्षिप्तावस्था में वे दादी के गले से लिपट कर चीख उठीं। फिर उन दोनों के विलाप से सभी बिलख उठे थे। ऐसा प्रतीत हाे रहा था कि बड़े बाबू जी की मृत्यु जैसे आज ही हुई हो। जीभर कर रो लेने के बाद बड़ी मां ने अमित भैया को गले से लगाए अपनी आंखें बंद कर लीं। सामान्य अवस्था में आते ही बड़ी मां ने अपने तन से स्वयं ही सुहाग चिह्नों को हटा दिया। कहते हैं कि उनके उदास पर दपदप करते अलौकिक श्री की आभा से सभी की आंखें चौंधिया गयी थीं।

दादी को होश आया, तो वे बिलख उठीं, ‘‘तेरी इतनी रूपराशि को मेरी टूटी हुई जीर्णशीर्ण सी काया कहां रख पाएगी। चली जा दुलहन अपनी मां के साथ। इतनी छोटी सी उम्र वैधव्य का डंक सहने के लिए नहीं है। तेरे उजड़े हुए संसार को बसाने में वे सभी तरह से समर्थ हैं।’’

‘‘दुलहन भी कह रही हैं और यहां से जाने को भी कह रही हैं, जहां अब तक के मेरे जीवन की खट्टी-मीठी मधुर स्मृतियां बिखरी हुई हैं। इतने ही दिनों के उनके साथ ने सात जन्मों का सुख दे दिया है। फिर मैं अकेली कहां हूं। उनका प्रतिरूप अमित जो मेरे साथ है, जिसको अपनी सतत एवं दुर्गम आराधना की कसौटी पर साध कर ऐसे प्रतिबिंबित करना है कि उनका नाम जगमगा उठे। इस संकल्प की दृढ़ता की शक्ति का स्रोत आप हैं मां। किसी व्यक्ति का मरना जिंदगी का खत्म हाे जाना नहीं है, जबकि उसकी जीजिविषा संतति के रूप में मौजूद हो और अमित हमारे पास है,’’ कहती हुई बड़ी मां ने जाने से साफ मना कर दिया था।

उतनी दुखद परिस्थिति में भी गहन तल्लीनता के साथ जीवन के दो विपरीत ध्रुवों की अनछुई ऊंचाइयों और अबूझ गहराइयों में झांकने का साहस बड़ी मां ही कर सकती थीं। सबसे अलग हट कर कुछ कर लेने का जुनून था उनमें, तभी ताे हर दंड, हर उपेक्षा, हर प्रताड़ना को उसकी अौकात पर शर्मसार करती हुई वे 2 महीने बाद ही बड़े धूमधाम एवं बाजे-गाजे के साथ मां को विदा करा लायीं।

अपनी मामी से सुना था कि विदा कराने बाबू जी के साथ पहुंची बड़ी मां से लिपट कर मातृ-पितृहीन मेरी मां घंटों रोती रही थीं। समाज के स्थापित मान्यताओं से टकराना कोई साधारण बात थोड़े ही थी। ऐसे ही उनके लाड़-प्यार में अभिभूत हुई मेरी मां का घर-संसार बसा। रूप-गुण से परिपूर्ण, मात्र 6 वर्षों का वैवाहिक जीवन बिता कर भरी जवानी में विधवा हुई बड़ी मां ने अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने की ठान ली। चार साल के अमित भैया को मां की गोद में डाल कर वे निश्चिंत हाे कर अपनी एमए की पढ़ाई की साधना में जीजान से जुट गयीं। मां ने भी अमित भैया की देखरेख में अपनी संपूर्ण ममता को उड़ेल कर उन्हें कभी शिकायत का अवसर नहीं दिया। इसी बीच बड़ी मां ने अपनी एमएलए मां की मदद से मां की नियुक्ति महिला कॉलेज में करवा दी। ऐसे मां की भी शैक्षणिक योग्यता कोई कम नहीं थी। बीएससी ऑनर्स एवं एमएससी दोनों में मां को फर्स्ट क्लास आया था। दो साल बाद उनकी भी एकनिष्ठ तपस्या रंग ला कर ही रही। मेरी प्रतिभाशालिनी, तेजस्विनी बड़ी मां ने एमए के एग्जाम में पूरी युनिवर्सिटी में टॉप किया। उनके रूप-रंग, गुण तेजस्विता पर मुग्ध हो कर कितने योग्य लड़कों ने उनकी ओर हाथ बढ़ाया, कितने अच्छे घरों से रिश्ते भी आए, पर उन्होंने ठुकरा दिया। सुना है किसी के सच्चे प्यार की प्रबलता ने उनकी नींद उड़ा कर रख दी थी। उसे आहत कर वे भी तड़पी थीं। और इस तरह हां-ना की असमंजस में पड़ी बड़ी मां ने परिवार की प्रतिष्ठा एवं गरिमा को ही प्राथमिकता दी।

अपने प्रगतिशील तेवर के साथ यथार्थ भावभूमि पर जीवन को प्रतिष्ठित करना ही बड़ी मां ने उचित समझा। सालभर तक घर पर ही तैयारी करके उन्होंने आईएएस की परीक्षा में 20वां रैंक प्राप्त किया, तो मेरी दादी ने आंसू बहाते हुए मारे खुशी के गदगद हो कर उनको हृदय से लगा लिया था। ट्रेनिंग के लिए जाती हुई बड़ी मां को मां ने अमित भैया की अच्छी तरह से देखभाल के प्रति सब तरह से आश्वस्त करके ही भेजा था। ट्रेनिंग के बाद उनकी पहली नियुक्ति देवघर में हुई, तो उन्हें वहां व्यवस्थित करने के लिए दादी के साथ मां भी गयीं। तब अमित भैया सेंट माइकल स्कूल में पढ़ने लगे थे। सीनियर एसपी बन कर पापा भी पटना आ गए थे और उसी साल मेरा जन्म हुआ। समय से पहले मेरे पैदा होने के कारण ऐसी जटिलताएं पैदा हो गयी थीं कि भविष्य में मां के फिर से गर्भधारण की सारी संभावना ही समाप्त हो गयी थी। मेरे जन्म के हर्षाेल्लास के बीच बड़ी मां ने ना जाने कैसे मां की अंतर्वेदना को जान लिया और मुझे छाती में समाते हुए मेरी मां से कहा, ‘‘क्यों रे छोटी, बेटे की मां नहीं बन सकोगी, यही अंतर्वेदना तुम्हें व्यथित कर रही है, है ना। तुम तो पहले से ही अमित की मां हो। अपनी चंदा जैसी प्यारी बिटिया को हमें दे दो। फिर देखती हूं इन दोनों में कौन ज्यादा सुयोग्य निकलता है तुम्हारा यह बेटा या मेरी यह बेटी। देखना तुम कैसे मैं इसे आदिशक्ति का स्वरूप देते हुए अपनी आकांक्षाओं एवं सपनों का पंख देते हुए इसके उड़ने के लिए अमित से भी बड़े क्षितिज की तलाश करती हूं।’’
किसी परजाई के लिए ऐसी भविष्यवाणी मेरी बड़ी मां जैसी विशाल हृदया ही कर सकती थीं। ना जाने कैसे वे सबके मन की प्रतिच्छाया बन जाया करती थीं फिर संजीवनी बूटी बन कर सभी के जीवन में खुशियों का प्रस्फुटन कर जाती थीं। सदा ही नख-शिख प्रेम से उमगती, सभी के लिए हंसी के फूल छितराती, ममता बिखेरती हुई उनकी भुवनमोहिनी छवि पर मेरी दादी आजीवन बलिहारी रहीं। जहां कितने परिवार जरा सी तकरार पर विघटित हो कर बिखर जाते हैं, वहीं मेरी मां की शादी बड़ी मां के इतने बड़े दुर्भाग्य का निमित्त बनी, फिर भी वे उन पर अपना स्नेह लुटाती ही रहीं। मां ने जन्म दिया, दादी ने पाला, पर अपने सधे हुए प्यार और अनुशासन के चाबुक से ही साध कर पहले अमित भैया को फिर उन्होंने ही मुझे जीवन संग्राम में उतारा। उनके हृदय में मेरे लिए अमित भैया से भी बढ़ कर प्यार का समंदर उमड़ता रहा। उनकी असीम महत्वाकांक्षाएं ही आकांक्षाओं के अनंत आकाश में उड़ान भरने की मेरी ताकत बनी, जिसके कारण मैं आईआईटी की टॉपर बनी। यह सफलता मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। उसे हासिल करके मैं अपने देश में ही नहीं, बल्कि विदेश में भी अपनी अप्रत्याशित सफलता के लिए प्रशंसित हुई। महीनों तक बधाइयों का सिलसिला चलता रहा था। यह बड़ी मां का ही अदभुत प्रोत्साहन था कि मैं सभी को गौरवान्वित कर सकी। अपने निर्णय पर अडिग रहने का हौसला, उज्ज्वल चरित्र की दृढ़ता और व्यक्तित्व की कर्मठता आदि गुणों के कारण अपने ही नहीं, बल्कि संपूर्ण परिवार के जीवन पथ को प्रशस्त किया, अन्यथा पारिवारिक ईर्ष्या-द्वेष में झुलस कर ना जाने कितने सपने तो प्रस्फुटित भी नहीं हो पाते हैं। उन्हीं की दूरदर्शिता थी कि आज हम सभी दिल्ली में एक साथ रह रहे हैं। मां हंसराज कॉलेज में प्राध्यापिका हो गयीं, तो पापा भी एअरलाइंस में आईजी हो कर यही आ गए। यूपी कैडर में अमित भैया हैं, जो महीने में एक बार दिल्ली आ ही जाते हैं। बड़ी मां ने अपने ही बैचमेट की बेटी से उनकी शादी करा अपने पैरों तले की जमीन मजबूत कर ली।

अपार सौंदर्य के साथ उन जैसी अदभुत प्रतिभाशालिनी के लिए पुरुष प्रधान समाज में चुनौतियों की कमी नहीं थी। पग-पग पर जहां एक ओर बाधाओं के पहाड़ खड़े थे, तो दूसरी ओर फिसलन की खाई थी। पर वे अपनी सादगी से सबको सम्मोहित कर जीवन प्रांगण को सजाती-संवारती रहीं।

हार्वर्ड बिजनेस स्कूल, बोस्टन के लिए मैं उड़ान भरने वाली थी इसी बीच मैं गीत के परिवार वालों को भा गयी। सब तरह से गीत को सुयोग्य पा कर रिश्ते के लिए बड़ी मां ने हामी भर दी। अब तुम सभी समझ सकती हो कि बड़ी मां की इस घर में क्या अहमियत है।

बड़ी मां के जीवन क्षितिज में चारु कुछ और तारे-सितारे जड़ने वाली ही थी कि वे उसे पुकारती हुई उधर ही आ गयीं। फिर क्या था पलभर में ही सबों के विस्मित, चकित, हर्षित और अश्रुपूरित नेत्रों में प्रतिबिंबित विगत को देख लिया और अपनी भुवनमोहिनी मुस्कान में नहलाती हुई बोलीं, ‘‘मेंहदी लगवानी नहीं तुम सबको। चलो उठो सभी और जा कर नाचो-गाओ,’’ कहते हुए मेंहदी वालियों को नेग के रुपए थमाते हुए उन्होंने चारु की दोनों हथेलियों पर मेंहदी के बूटे रखे, तो मेंहदी की रस्म के फिल्मी गानों से घर गूंज उठा। इधर चारु की हथेलियां मेंहदी के बूटों से सजने लगीं, उधर वाणी ने मेंहदी लगाने के लिए अपनी जेठानी की हथेली के साथ अपनी हथेली को भी फैला दिया। अनिवर्चनीय आनंद की उष्णता से सभी ओतप्रोत थे।