हंसते-खेलते कुलकर्णी परिवार को मानो किसी की नजर लग गयी। एक हादसे के बाद सब बिखर से गए। लेकिन घर की युवा बहू ने एक कड़ा फैसला लिया। कैसा रहा तीन दशकों का उसका लंबा सफर !

हंसते-खेलते कुलकर्णी परिवार को मानो किसी की नजर लग गयी। एक हादसे के बाद सब बिखर से गए। लेकिन घर की युवा बहू ने एक कड़ा फैसला लिया। कैसा रहा तीन दशकों का उसका लंबा सफर !

Want to gain access to all premium stories?

Activate your premium subscription today

  • Premium Stories
  • Ad Lite Experience
  • UnlimitedAccess
  • E-PaperAccess

हंसते-खेलते कुलकर्णी परिवार को मानो किसी की नजर लग गयी। एक हादसे के बाद सब बिखर से गए। लेकिन घर की युवा बहू ने एक कड़ा फैसला लिया। कैसा रहा तीन दशकों का उसका लंबा सफर !

Want to gain access to all premium stories?

Activate your premium subscription today

  • Premium Stories
  • Ad Lite Experience
  • UnlimitedAccess
  • E-PaperAccess

उस दिन मुंबई का तिलक सभागृह जगमगा रहा था। पूरे प्रांगण की साज-सज्जा देखते ही बनती थी। दरअसल आज यहां अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस धूमधाम से मनाया जा रहा था। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा आज यहां मुंबई की उन 25 महिलाओं को सम्‍मानित किया जा रहा था, जिन्‍होंने अपने-अपने क्षेत्र में उल्‍लेखनीय सफलता अर्जित की थी। इस कार्यक्रम का संचालन करने के लिए मुझे विशेष रूप से बुलाया गया, जो मेरे लिए गौरव की बात थी। मुंबई की एक प्रसिद्ध सिने तारिका जो स्थापित राजनीतिज्ञ भी थीं, कार्यक्रम की विशेष अतिथि थीं।

शाम को लगभग 5 बजे कार्यक्रम शुरू हुआ। मंच पर मुख्य अतिथि के स्वागत सत्कार के बाद नारी शक्ति पर आधारित एक सुंदर नृत्य नाटिका का भव्य मंचन किया गया, जिस पर खूब तालियां बजीं। इस के पश्चात गायन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया, जिसमें कई महिलाओं ने मंच पर अपनी प्रस्तुति दी। मैं स्टेज पर किनारे खड़ी मंच और माइक की व्यवस्था पर नजर रखे हुई थी कि अचानक मंच पर चढ़ते हुए मैंने एक शालीन और बेहद सुंदर सी महिला को देखा और मेरी नजर वहीं थम गई। एकबारगी मन को विश्वास नहीं हुआ। ये तो यकीनन मेरी प्‍यारी नीता भाभी हैं।

उन्होंने भी शायद मुझे पहचान लिया था। उनके चेहरे पर एक पहचानी सी मुस्कान आयी और मेरे नजदीक आकर उन्होंने धीरे से मेरा हाथ दबाया। फिर वे माइक तक पहुंचीं और वीर सावरकर रचित लता मंगेशकर जी का गाया प्रसिद्ध गीत “जयो स्तुते” प्रस्तुत कर समां बांध दिया। तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूंज उठा। कार्यक्रम के दूसरे चरण में विविध क्षेत्रों में उत्कृष्ट सफलता प्राप्त करने वाली महिलाओं को मंच पर एक-एक करके बुलाया गया। उन्हें शॉल ओढ़ा कर और श्रीफल देकर सम्मानित किया जा रहा था। सूची में सभी को पुकारते हुए मैंने डॉ. नीता कुलकर्णी का नाम पुकारा। जब उन्‍हें शॉल पहनाया गया तो खुशी से मेरी आंखों में आंसू आ गए। नीता भाभी ने स्‍टेज से उतरते हुए मुझे मुस्‍कराते हुए देखा, थोड़ा रुक कर अपना विजिटिंग कार्ड मुझे दिया और धीरे से कहा ‘‘मिलते हैं।’’ यह कहकर वह चली गईं। कार्यक्रम के बाद मुझे भी कहीं और जाने की जल्‍दी थी। बाद में मैंने उन्‍हें मैसेज किया और कहा कि मैं आपसे रविवार को मिलने आती हूं।

रात को घर आकर भी मैं नीता भाभी को भूल नहीं पायी। मैं जैसे पुरानी यादों में खो गयी। मुझे आज भी याद है 14 फरवरी का वह दिन, जब बिल्डिंग में हमारे पड़ोस में रहने वाले अजय भाई साहब की शादी हुई थी। हम दोनों का परिवार पिछले 20 वर्षों से इस सोसायटी में रहता है। हम सभी मिलकर एक परिवार की तरह रहते थे। अजय भाई की शादी से हम सभी बेहद खुश थे। नीता भाभी किसी सुंदर गुडि़या जैसी थीं। उम्र में भी मुझसे 4-5 साल ही बड़ी होंगी। अजय भाईसाहब मुंबई के नामी डॉक्टर थे। मेडिकल के नए-नए रिसर्च पेपर्स पढ़ने और लिखने में उनकी बहुत रुचि थी। नीता भाभी भी विज्ञान की छात्रा थीं पर शादी होने के कारण उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी। घर के कामों के बीच जब भी कभी समय मिलता, वे डॉक्‍टर साहब के पेपर्स वगैरह पढ़तीं और समझने की कोशिश करतीं। पढ़ने के प्रति पत्नी की रुचि देखकर अजय भाईसाहब ने उन्हें आगे पढ़ने के लिए प्रोत्‍साहित किया। शादी के थोड़े दिन बाद ही नीता भाभी ने कॉलेज में दाखिला लिया और बेटे वंश के होने के बाद भी पढ़ाई जारी रखी। 4 साल बाद नीता भाभी भी बीएएमएस करके पति के साथ उनके क्‍लीनिक में बैठने लगीं। धीरे-धीरे दोनों ने बहुत तरक्‍की की और चैंबूर की एक बड़ी सोसाइटी में फ्लैट खरीद लिया। वे वहां शिफ्ट हो गए तो हमारा भी उनसे संपर्क कम होने लगा। हम भी अब चैंबूर से डोम्बिवली शिफ्ट हो चुके थे और इस तरह सभी अपने-अपने जीवन और नौकरियों में व्‍यस्‍त थे।

मेरी स्मृतियों में वह दिन भी कौंध गया, जिसे मैं भुला देना चाहती हूं, जिसे अपनी यादों की किताब से मिटा देना चाहती हूं। उस दिन हमारी पुरानी बिल्डिंग से अचानक किसी का फोन आया कि पनवेल के पास कार दुर्घटना में अजय भाईसाहब ने अपनी जान गवां दी है। यह खबर सुनकर हम सभी सहम गए। हमारे पास कहने को मानो कुछ नहीं बचा था, शब्द मौन हो गए थे। पूरे मोहल्‍ले में अजय भाई अपने स्वभाव और मिलनसारिता के चलते जाने जाते थे। गरीब मरीजों के तो वे मसीहा ही थे। जरूरतमंदों का निशुल्क इलाज करते थे। आनन-फानन हमारा पूरा परिवार और मोहल्ले के लोग चैंबूर स्थित उनके घर पहुंचे। जब हम वहां पहुंचे तो वहां हजारों लोगों की भीड़ लगी थी। उनके मरीज, आसपास की झुग्‍गी-झोपड़ी के लोगों से लेकर मुंबई के बड़े व नामीगिरामी राजनीतिज्ञ और डॉक्टर्स सभी इस एक्सीडेंट की खबर सुनकर वहां आए हुए थे। डॉ. अजय की मां और बाबू जी को तो होश ही नहीं था। उधर नीता भाभी पत्‍थर हो चुकी थीं। बस छोटा सा वंश था, भैया-भाभी का बेटा, जिसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। पर हमें सामने देख कर वह हमें पहचान गया और हमसे लिपट गया।

इस घटना के बाद हम कुलकर्णी परिवार से मिलने उनके घर एक-दो बार और गए। नीता भाभी से भी मिले, उन्हें सांत्वना दी। बाद में मैं कुछ वर्ष मुंबई से बाहर रही। इस बीच हमें पता चला था कि कुलकर्णी जी और उनकी पत्नी भी बेटे को खोने के गम में बीमार रहने लगे और जल्दी ही दोनों की एक-एक कर मौत हो गई। नीता भाभी अब अजय भाई के क्‍लीनिक को चला रही हैं। अजय भाई के भाई-बहनों की शादियां हो चुकी हैं। मुंबई शहर की आपाधापी में हम चाहकर भी फिर कभी उनसे मिलने नहीं जा सके।

आज लगभग 30 साल बाद इस सभागृह में उन्हें देखकर गुजरा जमाना जैसे मेरी आंखों के सामने आ गया था। अब मैं जल्‍द से जल्‍द भाभी से मिलना चाहती थी और इन 30 सालों में उनकी जिंदगी, उनकी उपलब्धि, उनके काम और परिवार के बारे में सबकुछ जान लेना चाहती थी।

रविवार की सुबह ही पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार मैं भाभी के घर चली गयी। घर क्‍या था बेहद शानदार, आलीशान फ्लैट था। मैंने साथ लाया हुआ गुलदस्ता उनके हाथों में दिया। ‘‘थैंक यू रंजू, वेलकम, आओ,’’ कहते हुए भाभी मुझे अंदर ले कर गयीं। बहुत से प्रश्‍न थे मेरे मन में, बहुत कुछ था जो मैं उनसे पूछना चाहती थी, पर एक झिझक सी थी, कई सालों बाद जो उनसे मिल रही थी। भाभी ने शायद मेरे मनोभावों को ताड़ लिया था। उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘आओ मैं सबसे तुम्‍हें मिलाती हूं। ये हैं डॉ. अजय के मंझले भाई विजय और ये छोटे भाई सुजय और ये रही उनकी पत्नियां राखी और शीना।’’

बहुत दिनों बाद सब को एक साथ देखकर मेरी खुशी का पारावार नहीं रहा। सब ने प्रेमपूर्वक मेरे परिवार का हालचाल पूछा। इतने सालों की दूरियां कम हो गयी थीं। हम सबने मिलकर चाय पी और हल्का नाश्ता किया। फिर भाभी मुझे कमरे में लेकर आ गयीं। ‘‘अब पूछो, क्‍या पूछना चाहती हो?’’ उन्‍होंने मुस्‍कराते हुए कहा। बिना किसी पूर्व भूमिका के मैंने कहा, ‘‘पिछले 25 सालों में आपका सफर कैसा रहा और आप इस मुकाम तक कैसे पहुंचीं, मैं सबकुछ शुरू से जानना चाहती हूं। ’’

‘‘तो सुनो,’’ भाभी ने अपनी कहानी शुरू की, ‘‘डॉ. अजय के जाने के बाद मेरे परिवार ने बहुत कोशिश की कि मैं वंश को लेकर उनके पास चली जाऊं। वे लोग अपनी जगह सही भी थे। मेरी उम्र उस समय सिर्फ 24 साल की थी। उनको मेरे भविष्य की चिंता थी। सच कहूं तो मैं भी मां के पास जा कर रहना चाहती थी, पर यहां पर डॉ. साहब के दो छोटे भाई थे, तीन छोटी बहनें थीं। सब अभी पढ़ रहे थे। अम्मा और बाबूजी पूरी तरह से टूट चुके थे। बाबूजी बहुत बीमार पड़ गए और इस कारण उनकी मिल की नौकरी चली गयी थी। क्‍लीनिक लगभग बंद पड़ा था। उस समय मेरा जिम्मेदारियों से भागना बिलकुल सही नहीं था।

‘‘मैंने अपने पिता को साफ मना कर दिया कि मैं वहां जाकर नहीं रहना चाहती और अपनी ससुराल में रहते हुए अपनी जिम्मेदारियां पूरी करूंगी। हां, अगर कभी कोई समस्‍या होगी, तो मैं उन्हें बता दूंगी या गांव आ जाऊंगी। मैंने क्‍लीनिक पर जाना शुरू किया, हालांकि मैं डॉ. साहब जैसी काबिल तो नहीं थी, पर मेरा आत्‍मविश्‍वास और सभी की मदद करने का जज्‍बा कायम था। हमारे पुराने मरीजों ने भी मुझ पर विश्‍वास कायम रखा और एक बार फिर हमारा क्‍लीनिक चल पड़ा। इसके अलावा घर पर बेटे का पालन-पोषण, उसकी पढ़ाई-लिखाई, अम्मा-बाबूजी, देवर-ननदों का खयाल रखना और क्लीनिक के बाद बेटे के साथ समय गुजारना...मेरी दिनचर्या यहीं तक सीमित हो गई थी। सच कहूं तो अपने बारे में सोचने का भी मेरे पास समय नहीं था।

‘‘धीरे-धीरे वक्‍त का पहिया आगे बढ़ता गया। अम्मा-बाबूजी युवा बेटे की मौत के बाद से सदमे में थे। वे बीमार रहने लगे और फिर एक के बाद एक, दोनों दुनिया से चले गए। विजय ने एक छोटा-सा बिजनेस शुरू किया और मन लगाकर दोनों भाई उसमें काम करने लगे। ननदें अपने-अपने घर की हो गयीं। मेरा बेटा भी अब बड़ा हो चुका था। हालांकि डॉक्टर तो नहीं बना, लेकिन अपने चाचा के साथ मिलकर बिजनेस में हाथ बंटाने लगा। सभी की कड़ी मेहनत और ईमानदारी रंग लायी। बिजनेस चल पड़ा और खूब फला-फूला।

‘‘इसके बाद सुजय ने भी नवी मुंबई में एक छोटी फैक्‍ट्री डाली और कुछ लोगों को साथ में काम पर लिया। ईश्वर की कृपा से फैक्‍ट्री चल निकली। मुंबई के बाहर भी उनका काम बढ़ता गया। अब हम सभी एक सुविधाजनक जिंदगी जीने लगे। दोनों देवरों ने अपनी-अपनी पसंद की लड़कियों से शादी करने की अनुमति मांगी तो मैंने खुशी से हामी भर दी। इन सभी ने मुझे मां का स्थान और सम्‍मान दिया पर मैंने अपना काम नहीं छोड़ा। मैं पहले की ही तरह क्‍लीनिक जाती रही। कोविड के दौरान भी मैं लगातार काम कर रही थी। कई लोगों को नयी जिंदगी मिली तो मुझे आत्मिक खुशी हुई कि मैंने डॉ. साहब के काम और नाम को आगे बढ़ाया है। आज यहां आ पहुंची हूं। बेटे वंश की भी शादी हो गयी है और वह दुबई में अपने परिवार के साथ रहता है, परिवार के बिजनेस को भी संभालता है।’’

मैं उनकी कहानी सुनकर कहीं खो सी गई थी। मन 30 साल पीछे चला गया था। फिर मैंने अटकते हुए पूछा, ‘‘भाभी एक बात पूछना चाहती हूं, पर डरती हूं कि कहीं आप बुरा ना मान जाओ।’’

‘‘अरे नहीं रे, तू तो मेरी सहेली है। बिंदास कुछ भी पूछ सकती हो।’’ भाभी ने बंबइया भाषा में मुस्कराकर जवाब दिया। “सच बताना भाभी, कभी दिल में खयाल आया नहीं दूसरी शादी का?’’ मेरी बात सुनकर नीता भाभी थोड़ी गंभीर हो गईं। मुझे लगा मैंने उनकी किसी दुखती रग को छू लिया है, मुझे दुख हुआ, शायद मुझे ऐसा सवाल उनसे नहीं करना चाहिए था। मैंने तुरंत कहा, ‘‘भाभी कतई जरूरी नहीं है इसका जवाब देना, दरअसल ये तो मेरे भीतर की लेखिका है, जो मुझे कुरेदती रहती है, यह उसका सवाल था।’’

‘‘कोई बात नहीं रंजना’’, भाभी ने कहा, “पहले भी बहुत लोगों ने मुझसे यह सवाल किया है। आज तुमने भी पूछ लिया तो क्या गलत किया ! तुमसे झूठ नहीं बोलूंगी। डॉक्टर साहब के जाने के बाद मेरे मां-पापा ने मुझ पर घर चलने का बहुतेरा दबाव डाला। उन्होंने मुझे दूसरी शादी के लिए बहुत समझाया। पर यहां अम्मा-बाबूजी, मेरे देवर, ननद सब मेरी ओर जिस प्यार और उम्मीद से देख रहे थे, उन नजरों ने मुझे कहीं भीतर तक छू लिया था। घर के बड़े बेटे के साथ हुई इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद अगर उसकी पत्नी भी परिवार को दुख में अकेले छोड़ अपने सुख की कामना करती तो पूरा परिवार इसे कैसे सहन करता! खुद मेरी अंतर्रात्मा इसे कैसे स्वीकार कर पाती। घर की परिस्थितियां भी तब अलग थीं। मेरे पति ही कमाने वाले थे, बाकी सब छोटे थे या पढ़ रहे थे। उनके कैरिअर बनने में लंबा समय लग सकता था। अगर मैं मां-पापा के पास चली जाती तो क्लीनिक ही बंद हो जाता और हमारा घर नहीं चल पाता।

‘‘बस, मैंने खुद ही एक संकल्प लिया कि कुछ भी हो जाए, इस परिवार की जिम्मेदारी संभालूंगी और कितना भी दबाव पड़े, दोबारा शादी नहीं करूंगी। डॉक्टर साहब की निशानी हमारा बेटा वंश तो मेरे पास था ही। पूरे कुलकर्णी परिवार की आंखों का तारा था वंश। अम्मा-बाबूजी वंश में अपने बेटे को देखते थे। मैं शादी करके चली जाती तो बच्चे के बिना जी ही नहीं पाती। जिससे शादी करती, जरूरी नहीं था कि वह मेरे बेटे को भी अपनाता, यह सोचकर ही मैं घबरा जाती थी। हालांकि बहुत से शादी के प्रस्ताव मेरे पास आए थे मगर मेरा फैसला अडिग था। मैंने अपनी इच्छाओं को समेटा, परिस्थिति से समझौता किया, अपने भीतर अकेलापन भी झेला लेकिन मेरे इस फैसले से आज मेरा बेटा वंश और पूरा परिवार खुशी से जी पा रहा है। यह देखकर ऐसा लगता है जैसे मुझे सब कुछ हासिल हो गया है,’’ भाभी अपनी रौ में बोलती जा रही थीं और मैं अपलक श्रद्धा और प्रेम से उन्हें देखे जा रही थी।

‘‘कहीं सो तो नहीं गयी,’’ कहते हुए भाभी ने मेरे हाथ में गरम चाय की प्याली पकड़ा दी। “अरे नहीं भाभी, मैं सुन रही हूं। अच्छा ये तो बताइए इतना सुंदर संगीत कहां से सीखा! उस दिन स्टेज पर तो छा गयीं थीं आप।’’ मैंने थोड़ा सा विषय बदलते हुए कहा। मेरी बात सुनकर नीता भाभी बोलीं, “दरअसल कुछ सालों से मेरे घर वाले मुझसे कह रहे थे बहुत काम कर लिया, अब आराम करूं पर मैं कोविड के दौर में अपने मरीजों की मदद करना चाहती थी। हालांकि इसके बाद धीरे-धीरे मैंने क्लीनिक जाना कम कर दिया। समय काटने के लिए मैंने अपने पुराने शौक संगीत को दोबारा सीखना शुरू किया। गाती तो मैं स्कूल के जमाने से थी, पर अब उस शौक को जीवन के दूसरे पड़ाव में पूरा कर रही हूं। अब मैं कई स्टेज प्रोग्राम भी देने लगी हूं। वैसे उस दिन मैंने अच्छा गाया क्या? लोगों को पसंद आया?’’ भाभी के चहरे पर चमक आ गई थी। ‘‘बहुत पसंद आया भाभी। आप इतनी प्रतिभाशाली हो, यह तो हमें मालूम ही नहीं था,’’ मैंने ईमानदारी से उनकी प्रशंसा की।

‘‘तो मिल गयी आपको कहानी के लिए सामग्री या फिर और कुछ बाकी है?’’ भाभी ने हंसते हुए पूछा? ‘‘बस भाभी, बहुत धन्यवाद। आप मेरी कहानी की नायिका तो हो ही, लेकिन आप नहीं जानती कि आप कितनी महिलाओं को प्रेरणा दे सकती हो। आप सदा हंसती-गाती रहो, सबके जीवन में उजाला करते हुए अपनी जिंदगी को रोशन करती रहो,’’ बोलते हुए मेरा स्वर भीग गया। ‘‘अच्छा जी ! बहुत बड़ी-बड़ी बातें करने लग गई है हमारी रंजना, अब मुझे भी थैंक्यू बोलना पड़ेगा क्या?’’ कहते हुए भाभी ने मुझे स्नेह से गले से लगा लिया।