बुआ ने सारी जिंदगी दूसरों के सुख का खयाल रखा, अपनी परवाह नहीं की। उन्हें लगता कि उनके बिना काम कैसे होगा। लेकिन क्या उनके जाने के बाद सबके काम रुक गए?

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बुआ की मृत्यु के साल भर बाद उनके घर जाने का प्रोग्राम बना, फूफा जी तो पहले ही नहीं थे और अब बुआ के ना रहने से जाने का मन नहीं होता था। अभी कुछ दिन पहले बड़े भैया से बात हुई, तो कहने लगे, ‘‘आ जा बिट्टो ! मम्मी-पापा नहीं हैं, तो अपने दोनों भाइयों से मिलने आ जा।’’

‘‘आऊंगी भाई, जरूर आऊंगी,’’ कह कर फोन रख दिया।

विनय ऑफिस से आए, तो कहने लगे कि सोमवार को दिल्ली जाना पड़ेगा, इस बार भी वहीं मीटिंग है। अंधे को क्या चाहिए दो आंखें ! शायद यही कहावत इस समय मुझ पर सार्थक 
हो गयी, झट से बोली, ‘‘मैं साथ चलूंगी। दोनों बच्चे होस्टल में हैं, तो यहां लखनऊ में अकेली रह क्या करूंगी? 

विनय एकदम बोले, ‘‘भला इससे अच्छी बात क्या होगी? मुझे भी शाम को अकेलापन नहीं महसूस होगा।’’ 

खैर, जाने का दिन आ गया और दिल्ली के लिए रवाना हो गए। होटल पहुंच कर नहा-धो कर तैयार हो कर विनय मुझे बुआ के यहां छोड़ते हुए मीटिंग के लिए निकल गए। 

बुआ के ना रहने से एक अलग सा खालीपन महसूस हो रहा था। जिस कुर्सी व पलंग पर अधिकतर बैठी मिलती थीं, उधर देख कर अब उनके ना होने का अहसास हो रहा था। हमारे बीच उनका ना होना, उनकी कमी बहुत खल रही थी।

वैसे भाई व भाभी अपनी तरफ से कोशिश में लगे थे कि मैं बुआ की ज्यादा कमी महसूस ना करूं। चाय-नाश्ता खिलाने के अलावा बातचीत भी करते रहे, परंतु बुआ तो पल-पल में याद आ रही थीं।

यहां तक कि घर का कोना-कोना उनके होने का अहसास देता हुआ बारंबार उनकी याद दिला रहा था। बुआ बेहद सफाई प्रिय थीं,इसीलिए बिखरे अव्यवस्थित घर को देख उनकी आवाज कानों में गूंज रही थीÑकितना फैला रखा है घर मुआ, लाओ मैं ही ठीक कर दूं। एकाएक मन बुआ से जुड़े अतीत की यादों में जाने लगा, उन्हीं यादों में खो गया। 

इतने परिजनों के होते हुए भी घर का सामान अस्तव्यस्त ना रहता। बुआ हाथ में कपड़ा पकड़ झाड़-पोंछ करती रहतीं, साथ ही इधर-उधर बिखरा सामान करीने से रखती जातीं।

सुबह से शाम घर के अनगिनत काम करतीं, कभी थकान को अपने ऊपर हावी ना होने देतीं।

सुबह दोनों बहुओं के रसोई में आने से पहले ही दूध उबालने से ले कर पानी भरने तक का काम अकेली कर लेतीं। यहां तक कि नाश्ते में क्या बनेगा, यह मालूम हो, तो उसकी भी तैयारी कर देतीं। जब भी बुआ से बात करने को फोन लगाओ, किसी ना किसी काम में व्यस्त ही मिलतीं। कभी समझाती कि इतना काम मत किया करो, तो झट से कहतीं, ‘‘बिटिया, जब तक हाथ-पैर साथ दे रहे हैं, कर रही हूं, बाद में तो बैठना ही है।’’

बुआ बात ही ऐसी कह देतीं कि मेरे पास कोई जवाब ना होता और चुप हो जाती।

अकसर फोन पर बातें होती रहतीं, पिछले साल एकाएक बुआ कहने लगीं बिटिया आ के मिल जा, पता नहीं कितने दिन की जिंदगी बची है? हो सके तो आ जा।

मेरा भी मन मिलने का हो रहा था, यह जैसे ही विनय को मालूम हुआ उन्होंने मुझसे बता कर टिकट करा लिए, क्योंकि उनके ऑफिस की मीटिंग दिल्ली में थी। दिल्ली पहुंच जब बुआ से मिलने गयी, तो उन्होंने वापस होटल जाने ही ना दिया, जिद कर हम दोनों को घर रुकवा लिया। बुआ के पास ठहर कर अच्छा ही किया, उनका साथ जो मिल रहा था। 

बुआ सुबह से शाम कुछ ना कुछ काम में ही लगी रहतीं। कई दफा सोचती, बुआ से आधी उम्र होने के बावजूद मैं इतना काम नहीं कर सकती, जितना वे कर लेती हैं और चेहरे पर जरा शिकन 
नहीं आने देतीं। दोपहर में हम दोनों लेटे हुए बातें कर रहे थे, तभी भैया का बेटा आ कर कहने लगा, ‘‘दादी, बेसन का हलवा खाने का मन हो रहा है, बना दो।’’

‘‘हां ! बबुआ अभी बनाती हूं।’’ दिल हुआ कह दूं, थोड़ी देर तो आराम कर लो, पर कह ना सकी। बुआ झट से उठीं और हलवा बनाने में लग गयीं।

बुआ काफी देर तक ना आयीं, तो किचन में देखने गयी। देख कर दंग रह गयी, वे अब हलवा बनाने के बाद बेसन भूनने में लगी थीं।

‘‘यह क्या कर रही हो, बुआ?’’ पूछा तो कहने लगीं, ‘‘मैंने सोचा क्यों ना लगे हाथ बेसन के लड्डू भी बना लूं। जरा सी देर लगेगी और सब खा लेंगे।’’

खैर, यह सब निपटाते-निपटाते शाम हो गयी। फिर रात के खाने के लिए बड़ी भाभी सब्जी काटने को दे गयीं।

बेटी-दामाद आए हैं, सोच कर बुआ ने दो-चार चीजें ज्यादा ही खाने की तैयार कर दीं। उनका मन तो सबके लिए ऐसा था जाने क्या कर दें, क्या खिला दें? उन्हें लगता कि जिसके लिए जितना कर सकती हैं, करती रहें, करती रहें।

खैर ! अगले दिन भी वही हाल बुआ का दिखा। जरा भी देर आराम या खुद को समय ना देते हुए काम ही काम। कभी किचन में जा कर बच्चों की पसंद का कुछ बनाने लगतीं, तो कभी फैले हुए सामान को ठीक-ठाक करती रहतीं। कहने का तात्पर्य है इस उम्र में जब बैठ कर खाने के दिन हैं, तब भी घर के काम ही करते रहना तथा इन सब चक्करों में दो वक्त ढंग से खाना-पीना भी नहीं। आज रात को तो वापस जाना ही था, शाम को जैसे ही बुआ चाय पी कर उठने लगीं, मैंने हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘कुछ देर संग बैठो, फिर तो चली ही जाऊंगी।’’

‘‘हां ! मेरी बिटिया, बेटी को तो वापस जाना ही पड़ता है, पर तू अभी से जाने का नाम मत ले। बस ! रात का खाना और थोड़ी सी पूरियां रास्ते के लिए बना कर रख दूं, फिर तेरे साथ बैठ जी भर कर बातें करूंगी।’’

रास्ते के लिए खाने की जरूरत नहीं थी, मना भी करती तो वे मानने वाली कहां थीं? यही सोच कुछ ना बोली।

‘‘अब बुआ तुम्हारे संग बैठने का दिल हो रहा है, तो पूरी बेल दो, मैं सेंकती जाऊंगी,’’ शायद पास रह कर बात करने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलता।

इधर-उधर की बात कर पूछ ही लिया, ‘‘बुआ, यह तुम क्या कर रही हो? तुम्हारे पास तो दो घड़ी चैन से बैठने का, कुछ अपने लिए सोचने-समझने का समय ही नहीं है। सारा दिन घर व घर वालों के लिए भागादौड़ी करती रहती हो, अपनी उम्र का सोच अपने शरीर का जरा ध्यान नहीं रखती हो। क्यों आखिर क्यों बुआ?

‘‘दो दिन हो गए मुझे देखते हुए, स्वयं के लिए दो मिनट का समय नहीं है। बहुओं, पोते-पोतियों से भरा-पूरा परिवार होने के बावजूद घर की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले रखी है, अब तो साफ-सफाई से ले कर सभी के खाने की चिंताओं से अपने को मुक्त कर लो। सारी उम्र अपने फर्ज निभाए हैं। अब बस भी करो। सोचो कब तक करती रहोगी? बहुत हुआ, अब नहीं और नहीं। 

‘‘आपको पहले पत्रिकाएं या मैगजीन पढ़ने का कितना शौक हुआ करता था, हर महीने पढ़ने के वास्ते मंगाया करती थीं। और तो और आप लिखा भी करती थीं, जो प्रकाशित भी होता था। आपको किस बात की कमी है, फूफा जी की इतनी पेंशन तो आ ही जाती है कि अपनी जरूरत के खर्चे पूरे कर सको। बुआ, अपने लिए भी जियो, बल्कि जिंदगी के इस मोड़ पर खुद के लिए अधिक जियो। क्वाॅलिटी टाइम निकालो, घर और बच्चों को भी देखो, पर जितना तुम्हारा फर्ज है, बाकी औरों पर छोड़ दो। यकीन मानो बुआ सब काम होते ही हैं। यदि कोई करनेवाला परिवार का ही मिल जाए, तो बाकी सब अपनी-अपनी जिम्मेदारियों से बेफिक्र होने लगते हैं, अनजान बने रहना चाहते हैं। आपको अपनी इस बेटी के प्यार का मान रखने के लिए खुद पर ध्यान देना होगा, दोबारा मैगजीन पढ़ना व लिखना शुरू करोगी।’’

मेरी बात सुनते सुनते बुआ भरे गले से कहने लगीं, ‘‘हां ! बेटी जैसा तूने बताया-समझाया ध्यान रखते हुए ऐसा ही करने की कोशिश करूंगी। जरूर अपना ध्यान रखूंगी मेरी बिट्टो,’’ और इतना कहते ही बुआ ने सीने से चिपटा लिया। मैं भी छोटी बच्ची की तरह लिपट गयी कुछ देर हम दोनों ऐसे ही बैठे रहे, यही सोच जाने अब कब मिलना होगा? कब ये क्षण नसीब होंगे?’’
तभी वापस लौट आए विनय की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, ‘‘वापस चलना है भई, तैयार हो ना।’’ चेतना में वापस आयी, तो बुआ के पलंग की चादर को हाथ में पकड़ अपने सीने से ऐसे लगा रखा था, मानो बुआ को पकड़ रखा हो, उन्हीं का साक्षात स्पर्श महसूस कर रही हूं। 

‘‘थोड़ी देर में चलते हैं,’’ कह कर सारे घर पर नजर डाली। मन ही मन बुदबुदायी, ‘‘जा रही हूं बुआ, तुम्हारी बहुत याद आ रही है। यहां हर जगह तुम ही दिखायी दे रही हो, यहां तक कि बेजान चीजों तक में तुम्हारी छाया, तुम्हारा ही ध्यान बना हुआ है। पर एक बात मेरा दिल बार-बार कह रहा है कि जो दिनभर के काम तुम्हारे सामने होते थे अब भी हो रहे हैं, कैसे हो रहे हैं? उससे किसी को फर्क नहीं पड़ता।’’

घर जैसा है ठीक है, कौन सा नुमाइश लगानी है या म्यूजियम बना कर रहना है, आज सभी पारिवारिक सदस्यों की इस सोच से भी अवगत हुई और हां ! अब ना तो किसी को घर का बना नाश्ता या लड्डू चाहिए, ना ही मौसम के अनुसार खाने को पकवान चाहिए।

‘‘काश मेरी स्नेहदिल बुआ, तुम समय रहते यह समझ गयी होतीं कि तुम्हारे इतना काम करने या ना करने का तुम्हारे बच्चों अथवा परिवारजन को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है, ना ही पड़ेगा।’’

सौ फीसदी सचाई है किसी के चले जाने से किसी के जीवन में ज्यादा फर्क नहीं आता, अपना जीवन जैसा बिताना चाहते हैं, बिता ही लेते हैं। अपनी जिंदगी अपने ढंग से गुजार लेते हैं। 

‘‘देखो ना बुआ, अब तुम नहीं हो फिर भी दैनिक कार्य हो ही रहे हैं सब मनमाफिक जिंदगी जी रहे हैं। तुम्हें सबकी इतनी फिक्र ना होती, तो खुद के लिए समय निकाल अपने लिखने के शौक को आगे बढ़ातीं, अपनी एक अलग ही पहचान बना दुनिया से विदा होतीं।

‘‘परंतु बुआ, आपने हम सबके लिए हमेशा अच्छे से अच्छा सोचा व तन-मन-धन से जितना ज्यादा से ज्यादा कर सकीं, किया। हमारा सौभाग्य है कि आप जैसी मां का सान्निध्य और आशीर्वाद हमारे साथ रहा, आपका स्नेहपूर्ण हाथ सदा सिर पर रहा। आपको हम सभी की ओर से शत-शत नमन।

‘‘मेरी प्यारी आदरणीय बुआ, आपसे एक प्रार्थना है अब जहां भी रहो वहां कुछ समय अपने लिए अवश्य निकालना, जरूरत के अनुसार जिम्मेदारी निभाते हुए खुद के लिए वक्त रखना तथा अपनी इच्छानुसार जीवन जीना बुआ।

‘‘आपका आशीर्वाद और ढेर सा प्यार साथ ले कर चलती हूं, प्रणाम बुआ।’’

एक बार फिर पलंग की चादर को पकड़ बुआ का स्पर्श महसूस करते हुए सबसे मिलते रहने का वादा कर विनय के साथ होटल की ओर चल दी।