पत्नी को अपने हाथों की कठपुतली समझने वाले जयंत के होश ठिकाने लाने के लिए तविशा ने जो कुछ किया, वह काबिलेतारीफ था।

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पत्नी को अपने हाथों की कठपुतली समझने वाले जयंत के होश ठिकाने लाने के लिए तविशा ने जो कुछ किया, वह काबिलेतारीफ था।

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तविशा और जयंत की विवाह पूर्व कोर्टशिप 3 माह तक चली थी और यह समय वासंती बयार की तरह गुजर गया था। दोनों के परिवारों ने मिल कर सगाई की रस्म कर दी थी और सगाई के बाद एक-दूसरे को समझने के नाम पर दोनों ने शहर के सारे दर्शनीय स्थलों और रेस्तरां के चक्कर लगा लिए थे।

जयंत अपने परिवार की तारीफ करता और बताता कि उसके मां-पिता जी, भाई-भाभी और सबसे बढ़ कर उसकी रानी दीदी कितने अच्छे हैं, वे तविशा को कितने प्यार से अपनाएंगे, और यह कि उसे उम्मीद है कि तविशा भी उन सब में घुलमिल जाएगी। वह यह भी आश्‍वासन देता कि तविशा के रिटायर्ड वृद्ध माता-पिता का वह बहुत खयाल रखेगा। तविशा को लगता उसका होने वाला पति एक आदर्श पारिवारिक व्यक्ति है और वह भविष्य के प्रति आश्‍वस्त हो जाती।

पर कभी-कभी कोई छोटी सी बात खटक जाती और संदेह के अंकुर डाल जाती। जैसे उस दिन जयंत ने पार्क में टहलते हुए झील की तरफ से आती ठंडे रेशम के अहसास सी हवाओं में उड़ते तविशा के बालों को देख कर तारीफ की थी, ‘‘कितने खूबसूरत बाल हैं तुम्हारे।’’ तविशा ने मुस्करा कर धन्यवाद दिया, तो जयंत बोल उठा, ‘‘और तुम्हारी स्माइल तो उससे भी खूबसूरत है। मुझे लगता है, तुममें कोई कमी नहीं। सच, अगर तुम यह जॉब नहीं कर रही होती, तब भी हर तरह से पत्नी के रूप में ग्रेट चॉइस होती।’’ तविशा को कुछ असहज अनुभव हुआ,जैसे वह उसे एक कमोडिटी, एक वस्तु की तरह परख रहा हो।

जयंत ने आगे कहा, ‘‘मैं तुम्हें अपने लाजवाब गुणों के बारे में भी बता दूं। मैं बहुत अच्छा खाना बनाता हूं। सभी कहते हैं, मेरी होने वाली पत्नी बहुत लकी होगी, क्योंकि मैं अच्छी-अच्छी डिशेज बना कर उसे खिलाऊंगा। तुम्हें कुकिंग आती है या नहीं?’’

तविशा हंस पड़ी। कहा, ‘‘मुझे उतनी अच्छी कुकिंग तो नहीं आती, बस दाल-चावल, रोटी-सब्जी बना लेती हूं। कोई स्पेशल पकवान बनाने हों, तो मां हमेशा दीदी को कहती हूं, वे गजब का स्वादिष्ट खाना बनाती हैं। पढ़ाई और नौकरी की व्यस्तताओं के बीच मैं विशेष कुछ सीख नहीं पायी, लेकिन अब सीख लूंगी, क्योंकि मुझे रुचि है सीखने की।’’

जयंत उत्साह से बोला, ‘‘अरे, कोई बात नहीं ! शादी पत्नी से खाना बनवाने को थोड़े ही की जाती है। खाना बनाने को हम एक कुक रख लेंगे। तुम तो बस सजधज कर इसी तरह सुंदर लगा करना। मेरा काम इसी से चल जाएगा।’’

जयंत की इस बात ने तविशा का दिल बाग-बाग कर दिया। कितने उदार हृदय का स्वामी है उसका मंगेतर ! वह भविष्य के प्रति आश्‍वस्त हो गयी।

लेकिन ख्वाबों और उम्मीदों की बुनावट से बने वे 3 महीने पलक झपकते ही बीत गए और पति-पत्नी बनते ही जिंदगी एक नयी डगर पर चल निकली, जिसके शुरुआती सफर में झटके पर झटके खाती तविशा अकसर जयंत से पूछ बैठती थी, ‘‘और कहां गए वे हमारे सपने, वे इरादे?’’ और जयंत कहता था, ‘‘अब हम पति-पत्नी हैं और इस रिश्ते में जिम्मेदारियां होती हैं, ख्वाब नहीं।’’

तविशा उसकी बातों में घुली आत्ममुग्धता मिश्रित आत्मविश्‍वास के सामने उसे सही और स्वयं को गलत मानने की आदत डाल बैठी। शादी के दूसरे ही दिन जयंत ने उससे कहा, ‘‘तुम इतना तेज-तेज क्यों चलती हो? ससुराल में बहुओं की चाल तो मंथर होनी चाहिए।’’ तविशा को बड़ी शरम आयी कि वह अपनी ऑफिस वाली चाल ही ससुराल में चल रही थी। उसने अपनी चाल ठीक कर ली और कदम नाप-नाप कर रखने शुरू कर किए। जो 15 दिन अपनी ससुराल में गुजारे, उसने हर संभव कोशिश की कि अपने व्यवहार से सासू मां, रूपा भाभी और रानी दीदी के दिल जीत लें, जिनकी जांचती-परखती सी निगाहें हर समय उसी के इर्दगिर्द घूम रही होती थीं।

छुट्टियां खत्म हुईं और दोनों ने जयपुर वापस आ कर अपनी नौकरियां जॉइन कर लीं। कुछ दिन जयंत बिना बात मुंह फुलाए रहा। तविशा ने उसे बहुत मनाया। पूछा, ‘‘भला क्या बात हो गयी? अचानक से इतना मूड ऑफ क्यों?’’ जयंत ने कहा, ‘‘मेरे घर पर लोग मेरे लिए बहुत चिंतित हैं कि तुम्हें खाना बनाना नहीं आता। तुममें घर चलाने का कोई सलीका है ही नहीं। सोच रहे हैं मेरा क्या होगा।’’ 

सुन कर तविशा दुखी हो उठी। चलते समय सासू मां, रूपा भाभी और रानी दीदी से प्रेमपूर्वक मिल कर आयी थी, उन्हें कीमती साड़ियां उपहार स्वरूप दी थीं और वे सब स्टेशन पर उसे विदा करने आयी थीं। तविशा ने उनसे सहानुभूति और प्रेम की अपेक्षा की थी, इन शिकायतों की नहीं। 

जयपुर में जयंत शाम को अपने दोस्तों के साथ घूमता-फिरता, पार्टियां करता। तविशा ऑफिस से घर आ कर यूट्यूब से विभिन्न व्यंजन बनाने की विधियां सीखने की कोशिश करती। जयंत भी एक ही उस्ताद था। खाते वक्त वह उसके बनाए खानों की प्रशंसा भी कर देता। लेकिन अपने दोस्तों के यहां पार्टियों में जब उसे ले जाता, तो मित्र की पत्नी के बनाए भोजन की प्रशंसा में ये शब्द जरूर जोड़ देता, ‘‘भाभी जी, क्या डिनर बनाया था आपने, जरा हमारी श्रीमती जी को भी कुछ सिखा दें। अपनी जिंदगी तो दाल-भात व भिंडी की भुजिया पर कट रही है।’’

भाभी जी प्रसन्नतापूर्वक खिलखिला उठतीं और तविशा उदास हो जाती। बाद में जयंत इसके लिए भी उसकी क्लास लगाता, ‘‘इतनी अनसोशल क्यों हो तुम? निशांत और सुमित की पत्नियों को देखा, कितनी हंसमुख हैं? तुम्हें तो बस मुंह लटका कर बैठ जाना आता है।’’

‘‘मैं भी हंसमुख हो लेती, अगर इस तरह सबके बीच तुम मेरी बुराइयां नहीं गिनवा रहे होते।’’

‘‘कौन सी बुराइयां? अरे अपने बारे में हकीकत सुनना पसंद नहीं तुम्हें? और थोड़ा स्पोर्टिंगली लिया करो इन बातों को।’’

तविशा मन मार कर चुप हो जाती ऐसी बातों पर। उसने जान लगा दी कि घरदारी के कामों में एक्सपर्ट बन सके, पर जयंत को प्रसन्न कर पाना टेढ़ी खीर साबित हो रहा था। सारे घर की सफाई करके वह चमका देती, तो जयंत को खिड़कियों पर धूल नजर आ जाती और वह उसके छुट्‌टी के दिन खिड़की-दरवाजों की धुलाई में व्यतीत करवा देता।

यदि कोई आगंतुक घर की स्वच्छता-सुंदरता की प्रशंसा कर दे, तो कहता, ‘‘अरे यह तो मैं हूं ही इतना सफाई पसंद। मुझे तो वहां धूल नजर आ जाती है, जहां किसी की नजर नहीं जाती।’’ रोज-रोज के भाषणों से थकी और पकी हुई तविशा ने एक पल को इच्छा की, काश उसकी शादी किसी अव्यवस्थित शख्स से ही हुई होती। उसके लिए तो जयंत ने ना कभी किचन में हाथ आजमाया और ना कभी घर सजाया, वह कैसे जाने कि कितनी लकी है वह।

इसी तरह कुछ और समय गुजरा और तविशा दो जुड़वां बच्चों की मां बन गयी। अब जयंत ने घर में एक कुक रख लिया था और उसकी मां भी उनके साथ रहने लगी थीं। तविशा को अब नौकरी, घर, बच्चे तीन मोर्चों पर जूझना होता था। लेकिन जयंत का रवैया सहयोगात्मक होने के बजाय और भी आक्रामक हो उठा। वह दिन-रात नुक्ताचीनी के अतिरिक्त और कुछ ना करता। तविशा अपने तनाव को अपने वृद्ध माता-पिता से उनके कुछ पूछने पर भी ना बताती थी, क्योंकि अपनी चिंताएं उन पर थोप कर इस उम्र में उनको दुखी नहीं करना चाहती थी। 

एक दिन उसने अपनी सासू मां के सामने दिल खोला कि वे अपने बेटे को समझाएं, तो शायद उसकी जिंदगी कुछ आसान हो जाए। लेकिन माता जी सब सुन कर संतमुद्रा में बोलीं, ‘‘जब तुम दोनों में पटती नहीं, तो आपस में बात ही ना किया करो, चख-चख होगी ही नहीं और ना तुम्हें टेंशन होगा।’’ तविशा ने माथा ठोंक लिया ऐसी सलाह पर। माता जी ने घर के नौकर रामू को ले कर भी तविशा को नसीहत दे दी, ‘‘काम तो उसी को करने हैं, समय से काम करने के लिए उसके पीछे ना पड़ा करो। जैसा मन करे करने दिया करो, खुश रहेगा तभी घर मे टिकेगा।’’ रामू भी घर में शक्तियों के संतुलन को समझ गया था, माता जी की चापलूसी में रहता, उनसे गप्पें लड़ाता रहता।
तविशा घर और नौकरी के समय से कटौती कर बच्चों को समय देने की कोशिश करती, क्योंकि बच्चों की जरूरतों की उपेक्षा होने पर उसका हृदय अपने कामकाजी होने को ले कर अपराधबोध से भर जाता। पर इससे दूसरे असंतुष्ट हो जाते। वह जैसे ही तैयार हो कर आॅफिस के लिए निकलने को होती, जयंत एक ना एक चीज को ले कर बखेड़ा शुरू कर देता। किसी दिन उसके मैचिंग मोजे नहीं मिलते, किसी दिन नाश्ता पसंद का नहीं होता, किसी दिन शर्ट की धुलाई में कमी होती। जयंत दांत पीस कर उस पर चिल्लाता, ‘‘ना खुद कुछ करना जानती है, ना रामू से ही काम लेना जानती है। उससे अच्छा होता, मैंने किसी अनपढ़ लड़की से शादी की होती।’’ यदि तविशा अपनी सफाई में कुछ कहती, तो उसका जवाब होता, ‘‘तुम्हारी मां ने और कोई गुण तो सिखाए नहीं, हर बात का जवाब देना सिखा दिया है।’’ 

तविशा का ड्राइवर रोज बरामदे में बैठा जयंत की बकबक सुनता। तविशा जानती थी, ये लोग ऑफिस में जा कर गॉसिप करेंगे। इन सब चक्करों में वह ऑफिस प्रायः देर से पहुंचती और एक दिन बॉस ने इस बात के लिए मेमो दे दिया। शाम को दुखी तविशा ने जयंत को अपनी समस्याएं समझाने की कोशिश की। पर जयंत ने कहा, ‘‘तुम्हें क्या जरूरत है इतना कुशल अफसर बनने की? अभी बच्चे छोटे हैं। थोड़ा कैरिअर पर कम ध्यान दोगी, तो भी चलेगा।’’ 

पांचवी कक्षा में अनंत और अलिन का परीक्षा परिणाम अपेक्षानुकूल नहीं आया। जयंत ने कहा, ‘‘कम से कम बच्चों की देखभाल ही ठीक से कर लेतीं। बच्चे मां की जिम्मेदारी होते हैं।’’ मां का उतरा चेहरा देख कर अनंत और अलिन ने मां से वादा किया कि वे आइंदा पढ़ाई में दिल नहीं चुराएंगे। समय गुजरने के साथ बच्चों ने पढ़ाई में बेहतरीन करना शुरू किया और देखते ही देखते 12वीं उत्तीर्ण कर बहुत अच्छी यूनिवर्सिटीज में प्रवेश पा गए।

जब तविशा और जयंत अलिन को हाॅस्टल छोड़ने मुंबई गए, तो 4 दिन उन्हें जयंत की दीदी की बेटी डॉक्टर शिल्पा के यहां रुकना पड़ा। डॉक्टर शिल्पा अलिन की स्थानीय अभिभावक बनीं। शिल्पा की दिनचर्या तविशा के लिए अचरजभरी थी। वह सुबह साढ़े नौ बजे अपने हॉस्पिटल के लिए निकल जाती और संध्या 7-8 बजे तक छुट्टी मिलती उसे। बीच में मात्र आधे घंटे के लिए लंच लेने घर आती। जबकि तविशा अपने घर में लंच टाइम में समय से पहले भागी-भागी आती, सबको अपने निरीक्षण में खाना खिला कर ऑफिस वापस जाती। फिर ऑफिस से समय से आधे घंटे पहले आती, ताकि बच्चों को शाम का नाश्ता कराके खेलने या ट्यूशन के लिए भेज सके और डिनर की तैयारी करवाए। इस चक्कर में खुद उसका खाना-पीना और हुलिया तबाह हुए रहते। जयंत कहता, ‘‘तुम दुनिया की सबसे अनस्मार्ट कामकाजी महिला हो।’’ यहां शिल्पा हर वक्त संवरी हुई, परफेक्शन की मिसाल दिखती थी। अपने कार्यक्षेत्र में भी वह बहुत कुशल थी और उसके ढेरों अवॉर्ड्स और सर्टिफिकेट्स घर में सजे हुए थे। जयंत ने शिल्पा को इसके लिए बहुत शाबाशी दी और लौट कर भी वह उसके गुण गाते नहीं थक रहा था। तविशा ने यह भी देखा था कि कैसे शिल्पा के घर पर उसकी सासू मां ने किचन की देखभाल और सबको प्रेम से खिलाना, सब अपनी निगरानी में संपन्न करवाया। घर के हर काम में शिल्पा से अधिक उसका पति सहयोग करता।

रविवार का दिन था, घर पर कई काम मुंह बाए उसका इंतजार कर रहे थे। किचन रैक्स की सफाई करनी थी, परदे मशीन में धुलने को डालने थे, सरदियों के कपड़े निकालने थे। अच्छा, होते रहेंगे काम। तविशा ने खुद का रूखा-सूखा चेहरा ड्रेसिंग टेबल के शीशे में देखा और सोचा फेशियल करवा लेना चाहिए। दो-तीन बरस पहले किसी रिश्तेदार के यहां शादी थी, उसी समय करवाया था। वह पर्स उठा कर निकलने लगी। जयंत ने टोका, ‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’

‘‘हां, थोड़ा ब्यूटी पार्लर से आती हूं।’’

‘‘सुनो, आज मेरा इंदौर वाला मित्र सुशील अपने परिवार के साथ हमारे यहां डिनर पर आ रहा है। उसकी तैयारी करनी है।’’

‘‘हां, तो रामू जी कर लेंगे।’’ उसने रुखाई के साथ कहा और निकल गयी। जयंत उसकी उद्दंडता पर चकित रह गया।

चार बजे लौटने के बाद उसने डिनर की थोड़ी-बहुत तैयारी करवायी। तय समय पर सुशील सपरिवार आ गया। उसकी पत्नी बहुत खुशमिजाज थी, उसने तविशा से उसके बनाए व्यंजनों की तारीफ की और रेसिपी पूछी। शाम अच्छी ही गुजर गयी थी। पर उनके जाते ही जयंत उस पर बरस पड़ा, ‘‘तुमने इतने बेमन से बाजार के रसगुल्ले स्वीट डिश में रख दिए, मेरा मित्र इतने सालों बाद आया था, क्या गाजर का हलवा नहीं बना सकती थी?’’

‘‘गाजर नहीं थी घर में।’’

‘‘तो ले आतीं, सारा दिन तो बाजारों में ही घूमती रही हो। लेकिन इतना मैनेजमेंट तुमसे ना हो सका कि घर में जरूरत की चीजें मौजूद रहें समय पर।’’

इसके बाद जो हुआ, जयंत ने उसकी उम्मीद नहीं की थी। तविशा ऐसे सुलग उठी जैसे सूखी तीलियों को चिंगारी दिखा दे कोई। उसने आग्नेय नैनों से देखते हुए मानो शब्दों को तोल-तोल कर कहा, ‘‘अगर मुझे मैनेजमेंट नहीं आता, तो तुम खुद ही कर लेते। कोई जरूरी नहीं कि सब कुछ दूसरे ही करें और तुम निंदक की परमानेंट पोस्ट पर विराजमान रहो। जब इतना ज्ञान तुम्हारे पास है ही, तो कभी उस ज्ञान को खुद भी उपयोग में लाया करो। कब तक दूसरों को बांटते रहोगे?’’ यह कह कर उसने अपने रूम का दरवाजा बंद कर लिया। उसके बाद उनकी बातचीत बंद हो गयी और उसने घर के कामों को हाथ लगाना भी बंद कर दिया। 
आज उनका यह अबोला शुरू हुए 2 महीने बीतने को हैं। तविशा को बड़ा आराम है। ना बोलने के भी फायदे हो सकते हैं, यह तो उसने पहले सोचा ही ना था। अब ना तो हर घंटे पर ‘चाय बनाओ’ की टेर लगती है और ना ही ‘एक गिलास पानी देना’ की। और भांति-भांति के दूसरे उन कामों से मुक्ति मिली, जो पतिदेव को खुश करने के लिए किए जाते हैं, पर जिनसे पति देवता कभी खुश नहीं होते। अपना वक्त अब अपना है और जी भर के अपने कपड़ों, अपने मेकओवर और अपने ऑफिस के कामों को पकड़ में लाने पर खर्च किया जा सकता है। अठारह सालों से वह दूसरों की प्रोग्रामिंग से रोबोट बन कर चलती रही। उसने आज ना जाने कितने दिनों बाद एक पेंसिल स्केच बनाया है। भूल गयी थी कि कभी यह उसकी प्रिय हॉबी हुआ करती थी। लेकिन इन सबसे बढ़ कर यह कि अब ताने नहीं सुनने पड़ते। ताने नहीं सुनने से अपना दिमाग एकदम शांत है और रचनात्मक, सृजनात्मक हो रहा है। वे भी दिन थे, जब इस शख्स से एक दिन ना बोलो, तो मन खराब हो जाता था कि घर का वातावरण कहीं तनावपूर्ण ना हो जाए। वह खुद जा कर संधि कर लेती थी। लेकिन अब वह संधि प्रस्ताव किसलिए दे, जबकि उसे इस परम ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है कि पति ताने इसलिए नहीं सुनाता कि पत्नी में कमियां है, बल्कि ऐसा इसलिए करता है, क्योंकि वह पत्नी को अपने हाथ का खिलौना समझता है। 

वह किचन में किसी काम से गयी। जयंत ने दरवाजे से झांका और विनम्रता से कहा, ‘‘सुनो, अगर तुम किचन में ही हो तो प्लीज, क्या एक कप चाय बना दोगी? रामू आज बीमार है।’’

‘‘बनाती हूं,’’ उसने सहज भाव से कहा। थोड़ी देर में माता जी और रामू को चाय दे कर वह जयंत की चाय ले कर लॉन में अायी। जयंत ने अस्वाभाविक रूप से सद्‍भावभरी वाणी में कहा, ‘‘अपनी भी चाय यहीं ले आओ ना।’’ 

तविशा अपना कप भी ले आयी और एक लॉन चेअर थोड़ा अपनी ओर खींच कर बैठ गयी। कुछेक पलों की असहज सी चुप्पी के बाद तविशा ने कहना शुरू किया, ‘‘मैं आपको विनम्रतापूर्वक और सूचनार्थ कुछ बताना चाहती हूं,’’ जयंत ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा, तो उसने आगे कहा, ‘‘अब से घर के काम मैं उसी सीमा तक करूंगी, जितने से मेरे स्वास्थ्य पर कोई विपरीत असर ना हो और मेरा कैरिअर व व्यक्तित्व भी प्रभावित ना हो। जैसे यदि मेरे हाथों की चाय पीनी है, तो सुबह-शाम नियत समय पर मिलेगी। छुट्टी के दिनों में दस बार चाय पीने का मन हो, तो आप और रामू जी मिल कर मैनेज कर लें। कारण? कारण यह कि आपकी सराहना तो मुझे इस जीवन में मिली नहीं, तो मैं कम से कम अपना व्यक्तित्व और जीवन का बचा हुआ अंश तो अपने लिए समेट लूं। आप इतने ज्ञानी पुरुष हैं, वह प्रसिद्ध उक्ति तो सुनी ही होगी- सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्द्धम त्यजति पंडितः। यानी जब सब कुछ नष्ट हो रहा हो, कम से कम आधा बचा लेना ही बुद्धिमानी है,’’ इतना कह तविशा खिलखिला उठी।

जयंत को याद नहीं पिछली बार कब यह दब्बू तविशा इस तरह खुल कर हंसी थी। जयंत ने विस्मित आंखों से उसे देखते हुए दिल में कहा, ‘ज्यादा ऊंची उड़ान भरनेवाले जल्दी ही मुंह के बल गिरते हैं,’ पर उसके होंठ खुल कर यह बात नहीं कह पाए, बस उन पर एक फीकी सी मुस्कराहट चिपक कर रह गयी।