दांपत्य में प्रेम की कमी हो, तो किसी अजनबी की प्रशंसा के दो बोल भी फूल खिला जाते हैं। ऐसा क्या हुआ कि 18 सालों से नीरस वैवाहिक संबंध जीने के बाद मेरी जिंदगी में वसंत लौट आया?

दांपत्य में प्रेम की कमी हो, तो किसी अजनबी की प्रशंसा के दो बोल भी फूल खिला जाते हैं। ऐसा क्या हुआ कि 18 सालों से नीरस वैवाहिक संबंध जीने के बाद मेरी जिंदगी में वसंत लौट आया?

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दांपत्य में प्रेम की कमी हो, तो किसी अजनबी की प्रशंसा के दो बोल भी फूल खिला जाते हैं। ऐसा क्या हुआ कि 18 सालों से नीरस वैवाहिक संबंध जीने के बाद मेरी जिंदगी में वसंत लौट आया?

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वह मुझसे 8 साल छोटा था। हम दोनों के बीच एक अदभुत रिश्ता था, जो प्रेम से भी ऊंचा था। बात हम हर रोज करते, पर एक शहर में होने के बावजूद ज्यादा मिल नहीं पाने की विवशता थी। नौकरी और परिवार की जिम्मेदारियां। अपने-अपने परिवार से हम जुड़े हुए थे, पर एक भावनात्मक लगाव की जो कमी अपने-अपने जीवनसाथी में थी, उसकी पूर्ति हमें एक-दूजे में हो जाती थी।

उससे मिलना भी एक संयोग था। उस दिन हमारे अपार्टमेंट के सामने ठेले पर सब्जी बेचनेवाला नहीं आया था। मुझे पता चला कि अब वह अपना ठेला चौराहे के पास की क्रॉसिंग पर लगाता है। मैं झोला ले कर पैदल ही चल पड़ी। उस दिन भी वह एक सज्जन के लिए आलू तौल रहा था। मैंने उससे दो बार आलू के भाव पूछे और फिर भिंडी के। मैं अपनी बारी का इंतजार कर रही थी कि एक आवाज सुनायी दी, ‘‘कितनी मिठास है आपकी आवाज में, एकदम मिश्री घुली हुई सी।’’ मैंने चौंक कर देखा, वह मुझसे ही कह रहा था। ‘‘ओह... हां,’’ मैंने बस इतना ही कहा और सब्जी का झोला उठा कर चल पड़ी।

शाम के 5 बजे थे। सौरभ के लिए नाश्ता बनाने का वक्त था। जब भी वह खेल कर आता, सूजी का हलवा खाना उसे खूब अच्छा लगता। कभी-कभी तो मुझसे लिपट कर कह उठता, ‘‘मम्मी, यू आर ग्रेट।’’ फिर साढ़े 6 बजे पतिदेव के आने का समय होता। अब तो सौरभ 12वीं में चला गया था, अन्यथा छोटी कक्षाअों में उसका होमवर्क भी बनवाना मेरा ही काम था। घर-बाहर की जिम्मेदारियों को निभाते हुए पिछले 18 सालों से मेरा अपना वजूद कहीं खो गया था। पांच साल पहले सासू मां का देहांत हुआ, नहीं तो खिड़की पर मेरा खड़ा होना या देर तक छत पर बाल सुखाने पर भी पाबंदियां थीं। मैं मशीन बन गयी थी, इसलिए जब रात को सारे काम निबटा कर सोने जाती, तब गजब की नींद आती। पर आज तो नींद कोसों दूर थी। एक अजनबी ने मुझे बीते दिनों की याद दिला दी थी।

कॉलेज के दिनों में मैं अपनी मीठी आवाज के लिए जानी जाती थी। पापा ने मुझे पढ़ाई के साथ-साथ संगीत की भी तालीम दिलवायी थी। मैं रेडियो स्टेशन में अकसर गाने जाती और मास्टर्स के पहले वहीं उदघोषिका भी बन गयी थी। सौरभ के जन्म के पहले मैं अपने ऑफिसर्स क्लब के फंक्शन में अकसर गाती। मेरे चलते रोहित अपने बॉस के प्रिय बन गए थे। मुझे आसपास के बड़े-छोटे सभी कार्यक्रमों में बतौर जज बुलाया जाता। पर यहीं से मेरे जीवन का संघर्ष शुरू हुआ। सास और बेटे के बीच जाने क्या संवाद हुआ कि रोहित ने एक दिन अप्रत्याशित घोषणा कर डाली, ‘‘बहुत हो गया गाने-वाने का चक्कर। तुम्हें कोई फिल्म में नहीं गाना है कि उसके पीछे अपना घरबार झोंक दो। मां की तरह घर के काम संभालो और तीज-त्योहार में समय बिताओ।’’

मैंने कहा, ‘‘मेरे संगीत के शौक से कोई खलल नहीं आएगी हमारे गृहस्थी में, प्लीज मेरा यह शौक मत छुड़वाओ।’’

पर नहीं, उन्हें इस बात का बहुत डर था कि कोई अन्य संगीत प्रेमी मेरे निकट ना आ जाए। पहले मेरा क्लब जाना छुड़वाया गया, फिर संगीत मास्टर को छुड़वा दिया गया और फिर तो बात-बात पर व्यंग्य बाण ऐसे चलने लगे, जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। ‘‘अमुक ने उस दिन तुम्हारी इतनी तारीफ क्यों की, और मिस्टर खोसला तुम्हें ध्यान से क्यों देख रहे थे, तुम उन्हें देख मुस्करायी क्यों?’’ फिजूल की बातें। पिछले 18 वर्षों का इतिहास मानो आज स्मृति पटल से हटने का नाम नहीं ले रहा था। रात गहराती जा रही थी। मुझे सुबह जल्दी उठना हाेता था। मैंने सब विचारों को एक झटके में हटाना चाहा, मुझे उसी नवयुवक की याद आ गयी, जिसने मेरी आवाज की तारीफ कर मेरे जहन में खलबली मचा दी थी। देर से नींद आयी, वह भी उखड़ी हुई सी। सुबह आंख खुलते ही रसोई में भागी। दिन चढ़ चुका था। मैं खुद को नियंत्रित करना चाह रही थी। अभी हाल में ही कपड़े तह करते हुए महरी की बातों को याद कर मुस्करा पड़ी, तो रोहित पीछे ही लग गए। किसने क्या कहा, कब कहा, क्यों कहा। उफ ! मुस्कराना भी एक जुर्म है यहां। अपने जीवन के सबसे खास पलों में जब वे संतुष्ट व खुश हाेते, तो भावुकता से कहते, ‘‘उम्र बढ़ रही है और तुम जवान होती जा रही हो। तुम्हें देख कर कोई पागल ही हो जाए, उस पर ऐसी दिलकश आवाज। तुम भी तो इंसान ही हो, देखो कभी कुछ ऐसी-वैसी हरकत कर भी लेना किसी के साथ, तो मुझे मत बताना, नहीं तो या मैं खुद मर जाऊंगा या तुम्हें मार डालूंगा।’’ यह बात रोहित ने एक बार नहीं अनेक बार दोहरायी थीं। मैं चुपचाप मुस्करा पड़ती। आखिर दिया ही क्या था तुमने रोहित, बेहद स्वार्थी हो तुम, तुम्हारे स्वार्थ का पता तो मुझे अपनी सुहागरात में ही चल गया था। वह एक सच्चे दोस्त की भांति अपनी सारी खुशियां उसके साथ बांटना चाहती थी, अपने अरमान पूरा करना चाहती थी। संगीत की दुनिया में नाम कमाना चाहती थी। अपनी वेदना-संवेदना पहली रात में ही न्योछावर कर देना चाहती थी, पर नहीं, रोहित ने चंद पंक्तियों में उसकी इन सभी आशाअों पर पानी फेर दिया था, ‘‘तुम वही करोगी, जो मां चाहेंगी। चूल्हा-चौका कल से ही संभालो। एक साल के अंदर मां पोते का मुंह देखना चाहती हैं।’’

‘‘क्या ! अभी तो शादी हुई है और बच्चे-वच्चे की जिम्मेवारी मैं नहीं लूंगी। फिर आपने तो पापा को कहा था मुझे नौकरी भी करने देंगे।’’

‘‘क्या बच्चों जैसी बातें कर रही हो? क्या कहा हुआ बदल नहीं सकता।’’

‘‘नहीं, आपने पापा के साथ-साथ मुझे भी धोखा दिया,’’ मैं पहली ही मुलाकात में टूट चुकी थी। जब तक अपने को संभालती तब तक वे दूसरी ओर करवट करके सो चुके थे। ख्याल हैं, जो हटने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बमुश्किल अनमने ढंग से नाश्ता पैक कर रोहित को दिया। उनके जाने के कुछ देर बाद सौरभ भी ट्यूशन के लिए निकल गया।

उसके जाने के बाद मैंने नहा-धो कर सुंदर सी साड़ी पहनी अाैर मेरे पैर अनायास ही दरवाजे की ओर बढ़ गए। ठेलेवाले के पास पहुंच कर सब्जी लेना तो एक बहाना था, मेरी आंखें किसी और को ढूंढ़ रही थीं। बड़ी निराशा हाथ लगी। दस मिनट तक यों ही सब्जियां उलटने-पलटने के बाद मैं चल पड़ी। मन को समझा रही थी कि कोई भला क्यों मुझसे मिलने आएगा। यह तो इत्तफाक था कि किसी को मेरी आवाज भा गयी और उसने तारीफ कर दी।

अभी दस कदम बढ़े होंगे कि एक पहचानी सी आवाज आयी, ‘‘आज फिर सब्जी ले आयीं।’’ पेड़ की छांह में वही युवक मुस्कराता हुआ अपनी कार से निकल रहा था। अपनी व्यग्रता छुपाते हुए मैंने पूछा, ‘‘आपको पहले नहीं देखा इधर। नए हैं क्या?’’

‘‘जी, भतीजी को यहीं कोचिंग सेंटर में डाला है। उसे इस समय रोज छोड़ने आता हूं। मेरा नाम सबद है। बैंक में कार्यरत हूं।’’

‘‘मैं मिसेज पायल सक्सेना, सेक्टर सिक्स में रहती हूं।’’

‘‘जी, किसी संगीत स्कूल में टीचर होंगी जरूर।’’

‘‘नहीं, हाउसवाइफ हूं, पर संगीत शौक है मेरा।’’

मैंने सोचा बात आयी-गयी चली-गयी। पर नहीं, उससे और बातें करने की तमन्ना कायम रही। घर पहुंचते ही दिल जोरों से धड़क उठा। रास्ते में कोई पहचानवाले ने देख ना लिया हो। अभी तो बेटे को लंच के लिए आने में बहुत देर थी। रोहित लंच ले कर जाते थे। मैंने किताबों की अलमारी से अपनी पुरानी डायरी निकली। क्लासिकल गानों से भरी इस डायरी का पहला गाना, ‘काहे न मनवा रैन पाये रे...’ मेरे प्रिय गानों में से एक था। मैंने इसे गाना आरंभ किया, पर कुछ ही पंक्तियां गाने के बाद मुझे वर्षों से छूटी रियाज की कमी दिखायी देने लगी। मैंने डायरी एक ओर रख दी। इन तमाम वर्षों में मैं केवल रोहित की पत्नी और सौरभ की मां हो कर रह गयी थी। मैं जो पायल सक्सेना थी, उसका अपना कोई नामोनिशां नहीं था। इतने दिनों में मुझे पता चल गया था कि पति-पत्नी केवल पति-पत्नी होते थे, एक-दूसरे को देह सौंपने वाले रजिस्टर्ड व्यापारी। जब भी मैं रोहित से अपने मन की कोई इच्छा जाहिर करना चाहती, मुझे चुप करा दिया जाता। मैं इंग्लिश में एमए थी और संगीत में ग्रेजुएट। रोहित की मर्जी के खिलाफ मैं नहीं जाना चाहती थी, इसलिए रेडियो स्टेशन में कभी कोशिश नहीं की, पर स्कूल जॉइन करना चाहती थी। रोहित को उसमें भी ऑब्जेक्शन था, ‘‘बस में कितने लोगों के साथ देह से देह टकराएगी। साथ काम करने वाले स्त्री-पुरुष बेतकल्लुफी से बातें करते हैं, हंसी-मजाक करते हैं, मुझे नहीं पसंद कि तुम भी करो।’’

मैंने प्रत्युत्तर में कहा था, ‘‘अपनी संस्था में तुम भी तो ऐसा करते होगे, मैंने तो इस बेतकल्लुफी से कभी परहेज नहीं किया। रोहित, अपनी सोच ऊंची रखो, शकशुबहा से दूर जिंदगी को जियो।’’

‘‘अपनी अौकात में रहो, अकल नहीं किससे बात कर रही हो,’’ लगभग चिंघाड़ते हुए रोहित मेरी तरफ लपके थे।

ख्यालों में काफी समय गुजर गया। सौरभ के आने से पहले लंच तैयार करना था। मैं किचन के कामों में लग गयी। सौरभ इस बार 12वीं की परीक्षा देगा। ज्यादातर वह कोचिंग और ट्यूशन में ही रहता। कभी-कभी तो अपने पिता का मेरे प्रति दुर्व्यवहार देख कर मेरा पक्ष भी लेता। पांच साल पहले मेरी सास का देहांत हो गया। उनके मरने के बाद मुझ पर नजर रखने वाला कोई नहीं रह गया। इससे हमारे झगड़े में भले ही कमी आयी हो, पर रोहित के शक करने की बीमारी और बढ़ गयी।

समय से सौरभ घर आ गया। मैंने उससे कहा, ‘‘बेटा, दिन आजकल गुजरता नहीं, तुम पापा को कहो ना, मेरे लिए एक म्यूजिक टीचर का इंतजाम कर दें या शर्मा आंटी जिनसे सीखती हैं, मैं उनके पास ही एक घंटा चली जाऊं।’’

सौरभ को यह प्रस्ताव अच्छा लगा। उसने अपने पापा को रात के समय यह बात बतायी। रोहित को पता चल गया कि मैंने ही उससे यह कहलवाया है। उन्होंने सिरे से बात खारिज कर दी।
अब तो सबद के ख्याल अकसर आने लगे। सुबह गजब की फुर्ती आ गयी थी। फटाफट सारे काम निबटा कर कोचिंग सेंटर की ओर जाने का मन करता। बीच में संडे आ जाने से बड़ी कोफ्त होती। उस दिन भी मैं नियत समय पर सेंटर पहुंच गयी। पूरी वीरानगी दिखी। मैं अंदर घुस गयी। चपरासी मुझे देखते ही निकल आया। मैंने पूछा, ‘‘आज कोई नहीं दिख रहा।’’

मेरे प्रश्न का जवाब देते हुए कहा, ‘‘3 दिनों की छुट्टी है। पर आप सक्सेना मैडम हैं क्या?’’

मेरे हां कहने पर उसने एक कागज पकड़ा दिया, ‘‘अच्छा, तो एक साहब ने यह पुर्जा आपको देने को कहा था।’’ वह सबद का मैसेज था, ‘‘3 दिन के लिए सेंटर बंद है, भतीजी को ले कर भैया के पास रोहतक जा रहा हूं। आप इस नंबर पर फोन कर सकती हैं।’’ सबद से ना मिलने की निराशा तो थी, पर उसका मोबाइल नंबर मिल जाने की खुशी थी। अब रोज दिन यहां नहीं आना होगा। फोन पर बात कर भी तसल्ली हो जाएगी। वापस लौटते हुए मैंने उसको फोन मिलाया। ‘‘जी, मुझे पता था अब आपका कॉल आएगा। दिल को दिल की राह होती है ना। मैंने इसीलिए तो अपना नंबर दिया था।’’

‘‘जी,’’ छूटते ही मैंने पूछा, ‘‘कब आएंगे?’’

‘‘कल, लेकिन मिलूंगा परसों, क्योंकि मैं डाइरेक्ट बैंक चला जाऊंगा।’’ मुझे समझ नहीं आ रहा था कि और क्या बात करूं। उसने परसों शाम को एक दूर के मॉल में बुलाया था। घर पहुंच कर मुझे एक अजीब सी बेचैनी हो रही थी। वह मुझे इतना अच्छा क्यों लग रहा है, क्या मुझे मात्र एक-दो मुलाकात में प्यार हो सकता है या महज एक आकर्षण। सबद साधारण कद-काठी का युवक था। यों भी रंग-रूप कभी मुझे मोहित नहीं करता, आदमी की विद्वता और व्यवहार की मैं कायल थी।

पहली बार जब मैं गर्भवती हुई थी, तो छल से मुझे बहला-फुसला कर मेरा गर्भपात करवा दिया गया था, क्योंकि मेरे गर्भ में लड़की पल रही थी। मैंने बहुत कहा था रोहित को इस पाप से बचने के लिए, लेकिन मेरी मिन्नतों का कोई असर ना था उन पर। मेरी तबीयत उसके बाद से लगातार खराब रहती, लेकिन हर रात रोहित दैहिक तुष्टि के लिए आतुर रहते। मैं मना करती, तो भी जबर्दस्ती अपनी बात मनवाते। यही वह समय था, जब उस अहंकारी व्यक्ति से मेरा मन पूरी तरह टूट चुका था। उसी कमजोरी में मैंने फिर कंसीव किया। मैंने ठान लिया था कि इस बार अगर फिर लड़की हुई, तो मैं भाभी के पास चली जाऊंगी और सदा के लिए रोहित से अलग हो जाऊंगी। पर इस बार लड़का था। रोहित के मन की मुराद पूरी हो गयी थी। मुझे अपने स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना था। मां फोन पर सीख देतीं कि अच्छी बात सोचना, टेंशन में नहीं रहना, इससे बच्चे का अच्छा विकास होता है। मैं खुश रहने का यत्न करती। फिर सौरभ के जन्म के बाद से उसकी परवरिश और घर-गृहस्थी में व्यस्त हो गयी।

मॉल में हम नियत समय पर पहुंच गए। एक रेस्तरां के कोने वाली सीट पर हम आमने-सामने बैठ गए। उसने कॉफी का ऑर्डर किया। आज मैं सबद के परिवार के बारे में जानना चाहती थी। मैंने पूछा, ‘‘आपके परिवार में कौन-कौन हैं?’’

‘‘पत्नी और एक 13 साल का बेटा। मेरी पत्नी और बच्चे में कोई कमी नहीं है, पायल जी। शायद मैं ही उनके लायक नहीं हूं। पत्नी के पिता बड़ी पोस्ट पर सरकारी अफसर थे, उसने पैसों के बीच जिंदगी गुजारी है। इसलिए आदमी के मनोभाव और उसके जज्बातों की कोई कीमत नहीं है उसके पास। वह चाहती है मैं रातोंरात करोड़पति बन जाऊं,’’ एक सांस में सबद ने कह डाला।

‘‘आपने उन्हें समझाया नहीं कि पैसे से बड़ी शांत और सादगीभरी जिंदगी होती है।’’

‘‘नहीं समझा पाया, पिछले 16 सालों में उसने मुझे निकम्मा, दरिद्र और जाहिल सिद्ध करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। उसके साथ उसके मां-पापा भी खड़े होते और मैं एक अपराधी की भांति चुपचाप बॉस की नजर में ऊंचा उठने की उनकी सलाह पर मौन अभिव्यक्ति देता रहा, पर कभी उन्हें अपना नहीं पाया। आपको उस दिन देखा, तो जाने क्यों खिंचा चला आया।’’

मैंने आहतभरे स्वर में कहा, ‘‘सबद जी, मेरी मां कहा करती थीं कि लाखों-करोड़ों में कोई एक ऐसा मिलता है, जिसका मानो जन्म-जन्म से इंतजार होता है। वह पति या पत्नी के रूप में मिले, कोई जरूरी नहीं। मुझे लगता है यह इंतजार हमारा अब खत्म हो रहा है। मैं अपनी जिंदगी ढो रही थी। अब जीने को मन करता है।’’ अपनी जिंदगी के कुछ वाकए मैंने भी सुनाए। इस बीच कॉफी आ गयी और जाने कब सबद ने अपने हाथों का भार मेरे हाथों में दे दिया। बहुत खुशनुमा शाम थी यह। एक-दूसरे से विदा लेने को जी नहीं चाह रहा था।

घर पहुंच कर मैंने अपने लिए चाय बनायी। अपने में एक नयी ऊर्जा का संचार महसूस कर रही थी। मां पुनर्जन्म में विश्वास करती थीं। किसी अनजान व्यक्ति से मात्र संयोग मिल जाना, जुड़ जाना और आत्मीय बन जाना किसी पुनर्जन्म के रिश्ते को ही इंगित करता था। हम हर दिन बात करते कभी मोबाइल पर, कभी वॉट्सएप पर। बड़ी एहतियात से बातों को डिलीट भी कर देते। पहले बात-बात पर झुंझलाने वाली मैं अब किसी बहस में शरीक नहीं होती। रोहित की बातों को अनसुना कर मस्त रहने का यत्न करती। रोहित इस परिवर्तन को महसूस कर रहे थे। वे सोचते कि मैं पूरी तरह उनकी गुलाम बन गयी हूं, इसलिए पहले जिन बातों का विरोध करती थी, उन्हें भी अब मान रही हूं। सच तो यह था, मेरा आत्मविश्वास बढ़ रहा था, मुझे किसी के दंभ-उपालंभ से कोई परेशानी नहीं हो रही थी।

एक दिन ऑफिस से आ कर रोहित ने बताया कि उनका ट्रांसफर भैरुगढ़ हो गया है। उन्हें 2 दिन के अंदर जॉइन करना हैं। पशोपेश की स्थिति में थे वे। सौरभ का 12वीं बोर्ड था, तो सौरभ के लिए कम से कम 4 महीने तो यहां रहना ही है, फिर जब तक उसका दाखिला किसी टेक्निकल कॉलेज में नहीं हो जाता, उसे यहां रहना होगा। मुझ पर बेतरह शक करने वाला आदमी रातभर करवटें बदलता रहा। रात में जब भी मेरी नींद खुलती, मैं उन्हें कुछ सोचते हुए पाती। सुबह उठने पर उन्होंने अप्रत्याशित घोषणा की, ‘‘तुम मिसेज शर्मा के यहां जा कर संगीत की शिक्षा लेना आरंभ कर देना, नहीं तो बेवजह खिड़की पर खड़ी हो कर इधर-उधर देखती रहोगी।’’

मेरे तो जैसे पंख लग गए, रोहित की दलील पर मन ही मन हंसी भी आ रही थी। कितना डरे हुए थे रोहित तुम। संगीत की शिक्षा लेना तुमने इसलिए स्वीकार किया, ताकि मैं और कहीं नहीं जा पाऊं। इतनी छिछोरी सोच तुम ही रख सकते थे। ढेर सारी नसीहतें देने के बाद वे दूसरे दिन भैरुगढ़ के लिए रवाना हुए।

सौरभ को भी मन लगा कर पढ़ने और हर दिन फोन पर बात करने की हिदायतें दीं। सबद से बीच-बीच में बात होती रहती। हम मिलते भी। अकेले में अपना-अपना दुख-सुख बतियाते हुए हम करीब भी आ रहे थे। इसका अनुमान मुझे तब लगा जब एक दिन कार में बैठे हुए ही उसने मुझे अपने सीने से लगा लिया। मुझे लगा जैसे मरुस्थल में पानी वाले बादल छाने लगे हैं। मैंने बमुश्किल उससे स्वयं को अलग किया। गजब का संयम था उसमें। ऐसे ही एक अन्य मौके पर मैंने उससे पूछा था, ‘‘क्या हम अपने परिवार वालों का विश्वास नहीं तोड़ रहे?’’

कुछ सोचते हुए उसने कहा, ‘‘नहीं, हम दोस्त हैं। अपने-अपने परिवार के प्रति हर जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। भौतिक सुख-सुविधाएं तो हमने खूब भोगीं, पर मानसिक स्तर पर अपने जज्बातों को समझने वाला अब जा कर कोई मिला है। तुमने भी पति की हर जरूरत पूरी की और मैंने भी अपनी पत्नी की हर जरूरत पूरी की, लेकिन ना तुम्हें तुम्हारे पति ने समझा और ना मुझे मेरी पत्नी ने।’’

क्रमशः