मैंने पापा से सीधे-सीधे, टेढ़े-मेढ़े, उल्टे-सीधे, आड़े-तिरछे, घुमा-फिरा कर... हर तरीके से जानने की कोशिश की थी कि उन्हें निरंजन अंकल से परेशानी क्या थी, पर नतीजा रहा शून्य बटा सन्नाटा। मम्मी से अपील की कि वे ही पापा से इस बाबत कुछ पता लगाएं, पर उन्होंने उदासीन विपक्ष की तरह कंधे उचका दिए।

मैंने पापा से सीधे-सीधे, टेढ़े-मेढ़े, उल्टे-सीधे, आड़े-तिरछे, घुमा-फिरा कर... हर तरीके से जानने की कोशिश की थी कि उन्हें निरंजन अंकल से परेशानी क्या थी, पर नतीजा रहा शून्य बटा सन्नाटा। मम्मी से अपील की कि वे ही पापा से इस बाबत कुछ पता लगाएं, पर उन्होंने उदासीन विपक्ष की तरह कंधे उचका दिए।

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मैंने पापा से सीधे-सीधे, टेढ़े-मेढ़े, उल्टे-सीधे, आड़े-तिरछे, घुमा-फिरा कर... हर तरीके से जानने की कोशिश की थी कि उन्हें निरंजन अंकल से परेशानी क्या थी, पर नतीजा रहा शून्य बटा सन्नाटा। मम्मी से अपील की कि वे ही पापा से इस बाबत कुछ पता लगाएं, पर उन्होंने उदासीन विपक्ष की तरह कंधे उचका दिए।

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एक गहरी सांस ले कर मैं वर्तमान में लौट आया। बाहर खिड़की से झांकते अंधेरे में अब सुबह का गुलाबीपन घुलने लगा था। मुझे कोफ्त हो आयी। पापा और अंकल की टग ऑफ वॉर के चक्कर में मेरी जाने कितनी नींदें और बर्बाद होने वाली थीं। उस रस्साकशी के चक्कर में... और... और... कुछ-कुछ पहलू में धड़कते इस दिल के चक्कर में भी। अनायास ही मेरे होंठों पर मुस्कराहट आ गयी।

उस लड़की यानी किट्टू से हुई दूसरी मुलाकात मेरे जेहन के एक्वेरियम में तैरने लगी। उस विस्फोटक पहली मुलाकात के बाद भी यों तो अकसर आमना-सामना हुआ करता, पर बातचीत नहीं होती। बस हम हल्के-से मुस्कराते हुए हेलो में सिर हिला दिया करते। फिर एक दिन बात आगे बढ़ी। उस रोज कॉलेज जाते वक्त मेरी बाइक स्टार्ट ही नहीं हो रही थी। किक लगाते-लगाते पांव दुखने लगे थे। तभी मेरे पीछे से मधुर आवाज आयी, ‘‘लिफ्ट चाहिए?’’

चौंक कर मैं पलटा। स्कूटी पर सवार, जीन्स-टीशर्ट और जैकेट पहने, हाथों में ग्लव्स चढ़ाए और हेलमेट के अंदर चेहरे को कपड़े से लपेटे हुए कोई लड़की मुझसे पूछ रही थी। मैं अचकचा गया, तो उसने हेलमेट उतारा, तो ऊपर वाली उसी लड़की को देख कर मेरी बांछें खिल गयीं। दिल में होती गुदगुदी छिपाते हुए मैंने अपने ब्लैक गॉगल्स ठीक किए, ‘‘हेलो अं... कृति ! कॉलेज जाना था... पर यह बाइक ना ! वैसे बड़े चौराहे के आगे ही कॉलेज है मेरा... अगर वहां तक जा रही हो तो...’’

उसने दोबारा चेहरे पर कपड़ा लपेट कर हेलमेट लगाया, ‘‘हेलो दीपक, वैसे किट्टू कह सकते हो मुझे। और हां, अभी मुझे यहां के रास्तों का अंदाजा नहीं, तुम बता देना... ओके? और अपना हेलमेट लगा लेना।’’

उसके पीछे बैठते हुए मैंने ‘‘हम्म... थैंक्स किट्टू। और तुम मुझे दीपू कह सकती’’ बोला ही था कि उसने एक्सीलरेटर घुमा दिया। अब उसकी धन्नो सटासट आगे और मेरा फेवरेट सपना अब उल्टा दौड़ रहा था। मतलब... जेम्स बॉन्ड वाले म्यूजिक की जगह ट्रैफिक का शोरगुल था... और बजाय मेरे मेरी डाकू हसीना यानी किट्टू दोपहिया दौड़ा रही थी, और मैं पीछे बैठा हुआ था।

आने वाले दिनों में पापा और अंकल के बीच जैसे सीज फायर हो गया था। शीतयुद्ध के माहौल में भी इधर आंटी और मम्मी के बीच अदरक, शक्कर, नीबू की आवाजाही होने लगी थी, इधर हमारी दोस्ती मजबूत होने लगी थी। अकसर हम दोनों अपने-अपने फ्लोर के बीच वाली सीढ़ियों यानी ‘नो मैन्स लैंड’ पर बैठ कर खूब बातें किया करते।

रेलिंग पर टंगे गमलों से कोई टहनी तोड़ते मैंने एक शाम उससे पूछा, ‘‘तुम्हारे रूम की कल रात लाइट जल रही थी... स्टडीईंग?’’

वह खिलखिला पड़ी, ‘‘ना-ना... रेस्लिंग देख रही थी... WWE का मैच !’’

मारे खुशी के मैं 2 सीढ़ियां नीचे उचक कर उसके पास खिसक आया, ‘‘सच्ची किट्टू? तुम्हें भी शौक है इसका?’’

‘‘तो?’’ उसने कंधे उचका दिए, ‘‘जाने कितनों को पटखनी दे चुकी हूं अब तक। अरे मतलब, प्रोफेशनल ट्रेनिंग ले रही हूं यार। रेसलर बनना है... इंडिया के लिए मेडल्स लाने हैं मुझे।’’

अपने बत्तीसों दांत झलकाते, मैं उसके नजदीक सरक आया, ‘‘मैं भी अपने कॉलेज की हॉकी टीम का कैप्टन हूं।’’

उसकी आंखें भी चमक उठीं, ‘‘दैट्स कूल दीपू।’’

अब तो हमारी बातें और बढ़ती चली गयीं। बैकग्राउंड में वायलिन की पीं-पीं नहीं थी... सनन-सन हवाओं में चेहरे पर बिखरती सुनहरी लटें नहीं थीं... शरम से झुकती पलकें, गुलाबी होते गाल और पायल की खनखन भी नहीं थी। बस ‘हम आपके हैं कौन’ और ‘कुछ-कुछ होता है’ टाइप के मुलायम अहसास दिल की जमीन पर उगने शुरू हो चुके थे। यह बात अलग थी कि हमारे पिताओं के बीच घुमड़ते ‘जानी दुश्मन... खूनी रंजिश... जीने नहीं दूंगा’ वाले खतरनाक बादल उन्हें रौंदने तेजी से बढ़े आ रहे थे...

सही कहा गया है कि सबसे मीठी नींद सिर्फ इम्तिहानों के वक्त ही आती है। उस वक्त तो यह नींद लाख धकेलो, नहीं जाती थी, और आज रात मेरे लाख बुलाने पर भी गधे के सिर से सींग सरीखी गायब थी। अब तो कमरे की खिड़की में सुबह की रोशनी भरने लग गयी थी, लेकिन मैं ब्यूरोक्रेसी की तरह अभी भी लेटलतीफी में पसरा हुआ था। पापा के जबरन उठा कर छत को ठकठकाने के बाद से ही मेरे जेहन में बस अपनी और किट्टू की मीठे मक्खन-मलाई सी गाढ़ी होती दोस्ती और उसमें नामुराद मिर्चीला तड़का लगाती पापा और अंकल की अनबन की बात घूम रही थी। उनके सांप-नेवले वाले रिश्ते के पीछे की वजह समझ ही नहीं आ रही थी। करवटें बदलते हुए मैं फ्लैशबैक में जाने लगा।

हमारे मिलने के उस पहले दिन के एनकाउंटर के बाद से पापा और अंकल के खेमे में ऊपरी सन्नाटा पसर गया था। पर भीतर-ही-भीतर उनकी तनातनी इस कदर बढ़ रही थी कि लिफ्ट में अगर अंकल उतर रहे होते, तो पापा सीढ़ियां पकड़ लेते। पापा मेन गेट पर खड़े होते, तो अंकल गार्ड से जबर्दस्ती पीछेवाला गेट खुलवा कर बाहर निकलते। एक पूरब देखता, तो दूजा पश्चिम। पहला डाल-डाल... दूसरा पात-पात। पापा अगर अपने यहां इलेक्ट्रिशियन बुलाते, तो अंकल उसे पहले अपने घर ले जाते, और अगर अंकल को मेकैनिक की जरूरत होती, तो पापा उसे बीच रास्ते से रफादफा करवाते। यह तनाव अब हमारे अपार्टमेंट के मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी ट्रेंड करने लगा था। आसपड़ोस के लोगबाग पापा को टोकने लगे थे, ‘‘क्या प्रशांत जी ! इस बार बिल्डिंग में नया मेंबर आया, पर आपने अभी तक वेलकम पार्टी नहीं दी। क्यों?’’ तो कोई अंकल से पूछ बैठता ‘‘कमाल है निरंजन साहब ! घर के फर्नीचर के लिए आपने प्रशांत जी से राय नहीं ली? अरे उनसे बड़ा जानकार और भलामानस कोई और है ही नहीं।’’ लेकिन दोनों ही कुशल खिलाड़ी इन सवालों की बौछार से बच निकलते थे।

तो कुल मिला कर ऊपर से सब शांत था। पर किट्टू और मेरी गहराती दोस्ती की जमीन के नीचे लावा धधक रहा था। मैंने पापा से सीधे-सीधे, टेढ़े-मेढ़े, उल्टे-सीधे, आड़े-तिरछे, घुमा-फिरा कर... हर तरीके से जानने की कोशिश की थी कि उन्हें निरंजन अंकल से परेशानी क्या थी, पर नतीजा रहा शून्य बटा सन्नाटा। मम्मी से अपील की कि वे ही पापा से इस बाबत कुछ पता लगाएं, पर उन्होंने उदासीन विपक्ष की तरह कंधे उचका दिए।

क्रमशः