हमारे देश का सबसे मजेदार त्योहार है होली। सही मायनों में मस्ती, उमंग, रंग, तरंग जैसे शब्द इसी त्योहार से जुड़े हुए महसूस करते हैं। यह दुश्मनों को भी गले लगाने का त्योहार है। हालांकि अब समाज में आते खुलेपन के कारण होली से जुड़ा वह आकर्षण भी नहीं रहा।

हमारे देश का सबसे मजेदार त्योहार है होली। सही मायनों में मस्ती, उमंग, रंग, तरंग जैसे शब्द इसी त्योहार से जुड़े हुए महसूस करते हैं। यह दुश्मनों को भी गले लगाने का त्योहार है। हालांकि अब समाज में आते खुलेपन के कारण होली से जुड़ा वह आकर्षण भी नहीं रहा।

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हमारे देश का सबसे मजेदार त्योहार है होली। सही मायनों में मस्ती, उमंग, रंग, तरंग जैसे शब्द इसी त्योहार से जुड़े हुए महसूस करते हैं। यह दुश्मनों को भी गले लगाने का त्योहार है। हालांकि अब समाज में आते खुलेपन के कारण होली से जुड़ा वह आकर्षण भी नहीं रहा।

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हमारे देश का सबसे मजेदार त्योहार है होली। सही मायनों में मस्ती, उमंग, रंग, तरंग जैसे शब्द इसी त्योहार से जुड़े हुए महसूस करते हैं। यह दुश्मनों को भी गले लगाने का त्योहार है। यह बात और है कि दुश्मनों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर गले लगाने के जोश में खूबसूरत पड़ोसिन, नयी-नवेली भाभी और सलहज, कमसिन साली सभी को गले लगा लिया जाता है, हालांकि अब समाज में आते खुलेपन के कारण होली से जुड़ा वह आकर्षण भी नहीं रहा। 

आमतौर पर हर त्योहार से कुछ ना कुछ परंपराएं जुड़ी होती हैं। होली भी इनसे अछूती नहीं है। यह बात और है कि समय की कमी और परिवारों के सिमटने के कारण अब सिर्फ नाम के लिए ही परंपरा निभा ली जाती है, वह भी थोड़े बदलाव के साथ। पहले होली की शुरुआत एक-डेढ़ महीने पहले यानी वसंत पंचमी से ही हो जाती थी। वसंत पंचमी वाले दिन ही होलिका दहन की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। एक जगह होली लगनी शुरू हो जाती थी और महीनेभर हर घर से लोग होलिका में लकडि़यां, सूखे पत्ते, टहनियां डालते रहते थे। एक तरह से लोगों में होड़ लगी रहती थी कि कहां की होली सबसे ऊंची और सबसे बड़ी होगी। होली की पूजा करने के लिए घर की विवाहित महिलाएं पूरी सजधज के साथ जाती हैं और मिठाई, जल, कलावा, अनाज जैसी चीजें होलिका को समर्पित करती हैं। होलिका जलने के बाद उसमें बाल-बूट भून कर खाए जाते हैं, जो फसल के पकने का संकेत है।

पहली होली मायके में

शादी के बाद लड़की की पहली होली मायके में मनाने की परंपरा है। छोटी होली या होलिका दहन वाले दिन लड़की अपने भाई के साथ पीहर आ जाती है। दूसरे दिन दामाद भी सालियों, सलहजों के साथ होली खेलने की आस मन में दबाए सुबह-सुबह ससुराल पहुंच जाता है। दामाद को होली खिलाई दे कर, पकवान खिला कर विदा किया जाता है। जब तक नयी दुलहन ससुराल पहुंचती है, तब तक होली का हुड़दंग या तो शांत हो जाता है या फिर मनचले देवरों, ननदोइयों का जोश ठंडा भी पड़ चुका होता है। अगली होली तक नयी दुलहन हाथ में डंडा ले कर होली खेलने आए देवरों की पिटाई करने को तैयार हो जाती है। समाजशािस्त्रयों का मानना है कि इस परंपरा को निभाने के पीछे गहरी सामाजिक सोच छुपी है। होली खेलने के बहाने नयी-नवेली दुलहन से ससुराल में कोई छेड़छाड़ ना करे और दामाद भी होली खेलने के बहाने अपने ससुराल के लोगों से हिल-मिल जाए। पहले आमतौर पर लड़कियों का मायके आना-जाना इतना आसान भी नहीं होता था, सो इसलिए भी पहली होली, तीज जैसे त्योहार मायके में मनाने की परंपरा बनायी गयी, ताकि लड़कियों को मायके की याद ना सताए। 

मायके से आए उपहार

हमारे यहां हर त्योहार पर बेटियों के घर मायके से मिठाई और उपहार भेजने की परंपरा भी रही है। इसके पीछे भी यही कारण रहा होगा कि लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती थी और मायके की संपत्ति में भी बेटियों का कोई अधिकार नहीं रहता था। इसलिए हर तीज-त्योहार पर बेटी के घर में उपहार, फल और मिठाइयों की सौगात भेज कर माता-पिता अपनी बेटी की हर संभव मदद किया करते थे। होली पर भी बेटी के घर गुजिया, नमकीन सेव, बरतन, ठंडाई आदि माता-पिता भेजते हैं। 

मूल रूप से पुरानी दिल्ली की रहनेवाली सीमा का कहना है, ‘‘होली पर पुरानी दिल्ली का रंग ही कुछ और होता है। लगभग महीनाभर पहले से ही छोटे बच्चे पानी भरे गुब्बारे आने-जाने वालों पर फेंकना शुरू कर देते हैं। शुरू-शुरू में तो बच्चे गुब्बारा मार कर डर के मारे छुप जाते हैं, लेकिन जैसे-जैसे होली का दिन पास आता जाता है, यह डर खत्म हो जाता है। फिर तो गुब्बारों में पानी के साथ पक्का रंग भी घुल जाता है। इतना जरूर है कि खासकर इस त्योहार पर लड़कियों के घर से बाहर निकलने पर बैन लग जाया करता था। बचपन में हमने भी इस खेल का खूब आनंद लिया है। होली से जुड़ी एक और याद है, वह है मेवों, मखानों, सूखे नारियल और टॉफियों को पिरो-पिरो कर कंडी बनाना। होली से 15-20 दिन पहले हम ये कंडियां बनाना शुरू कर देते थे। इन्हें होली की मिठाई के साथ दामाद और नातियों के लिए भेजा जाता है। छोटे बच्चे यही कंडी पहन कर होलिका पूजन के लिए जाते हैं। छोटे बच्चों के लिए जहां टॉफी, चॉकलेट, चूइंगम जैसी चीजें माला में पिरोयी जाती थीं, वहीं दामाद के लिए दो या तीन लड़ीवाली कंडी में काजू, बादाम, चिलगोजे, मखाने ज्यादा लगाए जाते थे। मेरे एक जीजा जी को पान मसाला खाने का शौक था। मेरी मम्मी ने एक बार उनके लिए पान मसाले के पाउच कंडी में पिरो कर भेजे थे, जिसे देख कर दीदी के ससुराल वालों ने जीजा जी का खूब मजाक बनाया।’’

कंडी पहनने की यह परंपरा भी अब लुप्त हो रही है। पहले रात-रात भर बैठ कर संयुक्त परिवारों में अपने हाथों से कंडियां बनायी जाती थीं। कंडी बनाते-बनाते नजर बचा कर चिलगोजे, बादाम और टॉफियां खाने के लालच में घर के बच्चे भी इस काम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। दामाद की पहली होली पर ससुरालवाले दो या तीन लडि़यों वाली कंडी बना कर खासतौर से भेजा करते थे और इसके साथ आती थी दामाद के नहाने के लिए लोटा, बालटी और पिचकारी। सामर्थ्य के अनुसार लोग पीतल, स्टील और चांदी की चीजें भेजा करते थे। पीतल की बड़ी पिचकारी के साथ प्रतीक स्वरूप चांदी की छोटी सी पिचकारी, चांदी का लोटा ले कर भाई अपनी बहन के घर होली से पहले जाता था और बहन को अपने साथ ले आता था। 

बासी खाना और बसौड़ा

कुछ परिवारों में होलिका दहन वाले दिन खाना बना कर रख दिया जाता है, जिसे अगले दिन भी खाया जाता है। शायद इसीलिए कि अगले दिन घर की महिलाअों को खाना बनाने के काम से मुक्ति मिले। धुलैंडी के एक सप्ताह 
बाद बसौड़ा पूजा जाता है, जिसमें ठंडा खाना मिट्टी के सकोरों में रख कर पूजा की जाती है। एेसा लोगों को यह समझाने के लिए किया जाता है कि अब मौसम बदलना शुरू हो गया है, इसलिए फागुन खत्म होने के साथ बासी भोजन खाना भी सब बंद कर दें।

परंपराअों के अलावा हर राज्य में होली का स्वरूप भी अलग है। ब्रज की लट्ठमार होली, जयपुर में हाथी उत्सव, बंगाल में बसंतोत्सव,पंजाब का होला मोहल्ला, मणिपुर का योसंग उत्सव, नाम अलग हैं, लेकिन सब मन में उमंग और खुशी का संचार करके समूह की भावना को बढ़ावा देते हैं। कुमाऊं में शिवरात्रि के बाद से होली की बैठकें, गाना-बजाना, खाना-पीना सब शुरू हो जाता है। महिलाअों की बैठकें अलग होती हैं और पुरुषों की अलग। होली की टोली जब आज बिरज में होरी रे रसिया... गाती हुई मोहल्ले से गुजरती, तो बच्चे अपनी पिचकारी ले कर चढ़ जाया करते थे। वहीं इस टोली के पास भी बड़ी हजारा पिचकारी हुआ करती थी, जिसकी धार दूसरी-तीसरी मंजिल पर खड़े लोगों को भिगो दिया करती थी। पर जो हो ली सो होली, पहले जैसी होली अब कहां !