बंगाल से बाहर रह कर भी बंगाली परिवार कैसे अपनी संस्कृति को कायम किए हुए हैं। मिलिए, ऐसे ही एक परिवार की चौथी पीढ़ी से, जिनके पूर्वज ईस्ट इंडिया कंपनी के समय दिल्ली आए थे। इस परिवार ने दुर्गा पूजा से जुड़ी मान्यताअों और परंपराअों को आज तक संजोए रखा है।

बंगाल से बाहर रह कर भी बंगाली परिवार कैसे अपनी संस्कृति को कायम किए हुए हैं। मिलिए, ऐसे ही एक परिवार की चौथी पीढ़ी से, जिनके पूर्वज ईस्ट इंडिया कंपनी के समय दिल्ली आए थे। इस परिवार ने दुर्गा पूजा से जुड़ी मान्यताअों और परंपराअों को आज तक संजोए रखा है।

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बंगाल से बाहर रह कर भी बंगाली परिवार कैसे अपनी संस्कृति को कायम किए हुए हैं। मिलिए, ऐसे ही एक परिवार की चौथी पीढ़ी से, जिनके पूर्वज ईस्ट इंडिया कंपनी के समय दिल्ली आए थे। इस परिवार ने दुर्गा पूजा से जुड़ी मान्यताअों और परंपराअों को आज तक संजोए रखा है।

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विश्वजीत भट्टाचार्य रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारी हैं। उनके पिता जी दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे, जो 1949 में बंगाल से दिल्ली आए थे। उनकी पत्नी मधुश्री भट्टाचार्य एक टीचर हैं। वे ऐसे गणमान्य डॉक्टर सेन परिवार से ताल्लुक रखती हैं, जिनके नाम से दिल्ली के चांदनी चौक में एच. सी. सेन मार्ग आज भी प्रसिद्ध है। मधुश्री सेन परिवार की चौथी पीढ़ी हैं। मधुश्री बताती हैं, ‘‘हमारे परदादा पहले बंगाली थे, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के समय दिल्ली आए थे। उन्हीं के समय में पहली दुर्गा पूजा चांदनी चौक की नयी सड़क में हुई थी। उसके बाद कश्मीरी गेट और फिर दरियागंज में हुई। उसके बाद दिल्ली में कई जगहों पर पूजा शुरू हुई। दिल्ली के चितरंजन पार्क को मिनी बंगाल कहा जाता है। वहां 14 से अधिक जगहों पर पूजा होती है। धीरे-धीरे दिल्ली में अब तो 900 से भी ज्यादा जगहों पर दुर्गा पूजा होने लगी हैं। शादी के बाद मैं चितरंजन पार्क आ गयी। यहां रहते हुए हमें काफी वक्त हो गया है। हम लोग ग्रेटर कैलाश पार्ट टू के पंडाल में अकसर दुर्गा पूजा में भाग लेते हैं, जो हमारे घर के पीछे चितरंजन पार्क के बॉर्डर में हैं।’’ 

विश्वजीत भट्टाचार्या और उनकी पत्नी, सिंदूर खेला

बहुत से लोग, जो अपनी रोजी-रोटी की खातिर बंगाल से दिल्ली आए और यहीं आ कर बस गए, उन्होंने अपनी कॉलोनियों में पंडाल बनाए और पूजा करनी शुरू की। मूर्ति पूजा वैसे ही होती रही जैसे पहले हुआ करती थी। अब महामारी की वजह से पूजा की रौनक भले ही कम हो गयी है, लेकिन पूजा आज भी उतनी ही शिद्दत से होती है। विश्वजीत बताते हैं, ‘‘शाम की आरती के बाद रंगारंग कार्यक्रम के लिए कलकत्ते से आर्टिस्ट बुलाए जाते हैं। पहले थिएटर और ड्रामा लोकल लोगों से कराए जाते थे, लेकिन पूजा पंडाल अपनी क्षमता के मुताबिक कलकत्ता से आर्टिस्ट बुलाते हैं। मूर्ति और मूर्ति के कपड़े यानी ‘डाकेसाज’ कलकत्ते से आना-जाना भी तय रहता है, पर हर पंडाल ऐसा नहीं करता। हर पूजा पंडाल का अपना अंदाज होता है।’’ 

पूजा के पांच दिन

विदाई के समय पान का भोग लगाती महिलाएं

मधुश्री पूजा के बारे में बताती हैं, ‘‘माना जाता है नवरात्रि में देवी दुर्गा पीहर आ रही हैं। ये सेलिब्रेशन 5 दिन का होता है, लेकिन इसकी तैयारी 2 महीने पहले से शुरू हो जाती है। जिस दिन रथ यात्रा शुरू होती है, उस दिन से इस मूर्ति की नींव पड़ जाती है यानी दुर्गा जी की काठामोह मतलब मूर्ति की फ्रेमिंग शुरू हो जाती है। पूजा के 5 दिन बहुत मुख्य माने जाते हैं। पंचमी के दिन बाजे-गाजे और सत्कार के साथ मूर्ति को पंडाल में लाते हैं। पंचमी के दिन कलश की स्थापना करते हैं। दुर्गा मां का स्वागत करते हैं। षष्ठी पूजा में सभी लोकल परिवार पंडाल में आते हैं। वहां पुरोहित पूजा करते हैं। घर-परिवार में बच्चों के लिए पूजा रखी जाती है। इसी दिन शाम को मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। सुबह अंजली पूजा और शाम को आरती की जाती है। शाम के समय में एक अलग तरह का भोग चढ़ाया जाता है, उसे शीतल भोग कहा जाता है। उसमें पूरी, हलवा, मिठाई चढ़ती है। सप्तमी के दिन सुबह पूजा होती है, उसके बाद अंजली दिया जाता है। भोग दिया जाता है। इस भोग विशेष को बनाने के लिए महिलाएं दोपहर में जुटती हैं। इसे मूल भोग कहा जाता है, जो हर दिन नया बनता है। रेसिपी रिपीट नहीं होती। शाम को पूजा के बाद लोगों को भोग दिया जाता है। यह सामान्य भोग से अलग होता है।

पूजा पंडाल में भोग एंजाय करते बंगाली परिवार

इसी तरह अष्टमी के दिन भी यही पूजा होती है। सप्तमी में 7 थाली, अष्टमी में 8 थाली और नवमी में 9 थाली का भोग लगाते हैं। इसमें खिचड़ी, लावड़ा, बेगून भाजा, आलू दम, पुलाव बनाए जाते हैं। खीर बहुत जरूरी है। मूल भोग में जो चढ़ाया जाता है, उसे पूजा के बाद सामान्य भोग में मिक्स किया जाता है। अष्टमी और नवमी की सबसे बड़ी पूजा होती है, जिसे संधि पूजा कहते हैं। इस दिन देवी दुर्गा सबसे शक्तिशाली दिखती हैं, जब वे असुर का अंत करती हैं। हर साल तिथि और समय बदलता है, कभी यह पूजा मध्य रात्रि में भी शुरू होती है। इस पूजा के लिए अलग तरह की पुष्पांजलि, अंजली और अलग भोग तैयार किया जाता है। संधि पूजा में बड़ी थाली चढ़ती है, जिसमें 108 पूरी और सवा किलो का हलवे का भोग लगता है। शीतल भोग में 108 पूरी और सवा किलो सूजी का हलवा चढ़ता है। उसके बाद नवमी पूजा होती है। संधि पूजा के भोग में पुलाव, पनीर की सब्जी, 5 तरह की भाजी के अलावा शाम को आरती में शीतल भोग में पूरी और हलवा और मिठाई बनती है। आरती में शाम को नाच होता है। इसे घुनूचि कहते हैं। उसके बाद रंगारंग सांकृतिक कार्यक्रम होता है।

पूजा और पंजिका 

सभी पूजा पंडालों के लिए पूजा पंजिका का अनुसरण करना जरूरी होता है। नवमी के दिन होम यानी हवन होता है। इसमें 6-7 ब्राह्मणों का तिलक किया जाता है। दशमी के दिन मूर्ति का विसर्जन होता है, जिसे बौरोन कहते हैं। विसर्जन से पहले उनकी पूजा होती है। उन्हें पान और सिंदूर व मिठाई चढ़ायी जाती है, फिर महिलाएं सिंदूर की होली खेलती हैं।