मिलें हौसले और हिम्मत की मिसाल रूमा देवी से, जिन्होंने फैशन की दुनिया में भारत का डंका बजाया है।

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बाड़मेर के एक गांव की साधारण सी युवती ने यह कभी नहीं सोचा होगा कि अपने जीवन में आने वाले जिन तूफानों को वह जिंदगी की राह का रोड़ा समझ रही है, वही उसके भविष्य को एक नए रास्ते पर ला खड़ा करेंगे। हम बात कर रहे हैं रूमा देवी की, जिन्होंने राजस्थान की पारंपरिक कला के क्षेत्र को विस्तार दे कर उसे अंतर्राष्ट्रीय पटल तक पहुंचाया है। आमतौर पर जब कोई इंसान मुश्किल परिस्थितियों में फंसता है, तो सिर्फ अपना जीवन ही संवारने की कोशिश करता है, लेकिन जो यह सोचे कि उसे दूसरों को भी सही राह दिखानी है, वही दूसरों से अलग होता है।

रूमा देवी आज फैशन जगत में एक जाना माना नाम बन चुकी हैं। उन्हें 2018 में प्रतिष्ठित नारी शक्ति पुरस्कार के अलावा और भी कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में 2020 में हुई 17वीं एनुअल इंडिया कॉन्फ्रेंस में बतौर गेस्ट स्पीकर आमंत्रित किया गया। जर्मनी में हुई टेक्सटाइल एग्जीबिशन में सिर्फ रूमा देवी के ग्रुप को मुफ्त स्टॉल उपलब्ध कराया गया था।

अपने शुरुआती सफर के बारे में रूमा बताती हैं, ‘‘17 साल की उम्र में मेरी शादी कर दी गयी, जैसे तैसे करके घर चल रहा था। अपने पहले बच्चे को दवा के अभाव में मैंने जब खो दिया, तो कई दिनों तक डिप्रेशन में रही। घर में गरीबी का आलम यह था कि जीवनयापन करना भी मुश्किल था। गांव में कुछ खास काम नहीं मिलता। एक दिन मैंने सोचा गांव की औरतें मायके जाती हैं, तो बैग ले कर जाती हैं। क्यों ना मैं इनके लिए बैग बनाऊं। इस काम के लिए कुछ और औरतों को अपने साथ जोड़ा और 100-100 रुपए मिला कर सेकेंड हैंड सिलाई मशीन खरीद कर काम की शुरुआत की। अब तो हमारी समस्या और भी बढ़ गयी थी। लोग ज्यादा थे और काम कम। आखिर कोई कितने बैग खरीदेगा। फिर हम ग्रामीण विकास चेतना संस्थान में काम मांगने गए। उन्होंने हमें 3 दिन में पूरा करने के लिए ऑर्डर दिया। हमने वह काम एक रात में ही पूरा कर दिया और इस तरह से उस संस्था से मैं जुड़ गयी।’’

हार्वर्ड कैसे पहुंची

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में लेक्चर देने के लिए जब न्योता आया, तो एक महीने तक तो मैंने मेल का जवाब ही नहीं दिया। एक महीने बाद दोबारा वहां से मैसेज आया। मेरे सामने समस्या थी कि वहां जाने का खर्चा कैसे पूरा कर पाएंगे। फिर बजाज ग्रुप के सहयोग से वहां जाना संभव हो पाया। वहां जा कर यह अहसास हुआ कि अगर यहां नहीं आते, तो बहुत बड़ी गलती करते। पहली विदेश यात्रा का अनुभव जर्मनी में हुई हेमटेक्सटाइल एग्जीबिशन में काम आया। यहां पर हमें फ्री बूथ दिया गया। बूथ पर पूरा दिन भीड़ लगी रहती थी, लेकिन फंड और मैनपॉवर के अभाव की वजह से हम ज्यादा ऑर्डर्स नहीं ले पाए। इसके बाद सिंगापुर, थाइलैंड, दुबई में भी एग्जीबिशंस कीं।

पहली एग्जीबिशन की यादें

सबसे पहली एग्जीबिशन दिल्ली में हुई। वहां पर हमारे हाथ से बनाए कपड़े लोगों को बहुत पसंद आए और 3 दिन की एग्जीबिशन में हमारी 10-15 हजार की कमाई हो गयी। उसके बाद से हमने अगली एग्जीबिशन की तैयारी करनी शुरू दी। रूमा देवी बताती हैं, ‘‘बाड़मेर के आसपास के गांव जा जा कर हमने महिलाओं को मनाना शुरू किया, जो काफी मुश्किल काम था। किसी तरह 10 महिलाओं से शुरू हुआ सफर आज 30 हजार महिलाओं तक पहुंच गया है। जयपुर में हुए एक फैशन शो में भाग लेने पहुंचे, तो वहां मजाक भी खूब उड़ा, लेकिन कहते हैं जहां चाह वहां राह। कई अड़चनों के बाद हेरिटेज फैशन शो आयोजित किया गया। शो के बाद 5 डिजाइनरों ने अपने कलेक्शन के लिए हमसे कपड़े बनवाए। इसके बाद मुझे दिल्ली में डिजाइनर ऑफ द इअर अवॉर्ड भी दिया गया।’’

आज रूमा देवी ब्रांड किसी परिचय की मोहताज नहीं है। फैशन डिजाइनरों को कड़ी टक्कर देने वाली रूमा देवी का कहना है कि कड़ी परिस्थितियों ने हर कदम पर उनकी हिम्मत बढ़ायी है। कहना गलत ना होगा कि चाहे महिला हो या पुरुष, अगर ठान ले, तो अपने साथ-साथ दूसरों का जीवन भी बदल सकता है।