काठीखेड़ा गांव में सैनिटरी पैड बनाने की मशीन लगते ही महिलाओं की स्थिति में कई बदलाव आए। सुमन और स्नेहा की मेहनत ने उन्हें ऑस्कर अवॉर्ड दिला दिया। उनके संघर्षों पर बनी शॉर्ट डॉक्यूमेंटरी ने पीरियड्स- एंड ऑफ सेंटेंस को ऑस्कर अवाॅर्ड जीता है।

काठीखेड़ा गांव में सैनिटरी पैड बनाने की मशीन लगते ही महिलाओं की स्थिति में कई बदलाव आए। सुमन और स्नेहा की मेहनत ने उन्हें ऑस्कर अवॉर्ड दिला दिया। उनके संघर्षों पर बनी शॉर्ट डॉक्यूमेंटरी ने पीरियड्स- एंड ऑफ सेंटेंस को ऑस्कर अवाॅर्ड जीता है।

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काठीखेड़ा गांव में सैनिटरी पैड बनाने की मशीन लगते ही महिलाओं की स्थिति में कई बदलाव आए। सुमन और स्नेहा की मेहनत ने उन्हें ऑस्कर अवॉर्ड दिला दिया। उनके संघर्षों पर बनी शॉर्ट डॉक्यूमेंटरी ने पीरियड्स- एंड ऑफ सेंटेंस को ऑस्कर अवाॅर्ड जीता है।

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क्लिक, क्लिक, क्लिक !!! कैमरे की फ्लैश लाइट्स ऑस्कर समारोह में सुमन और स्नेहा पर पड़ रही थीं, क्योंकि उनके संघर्षों पर बनी शॉर्ट डॉक्यूमेंटरी पीरियड. एंड ऑफ सेंटेंस को ऑस्कर अवाॅर्ड मिलने जा रहा था। ‘हम जीत गए’ का अहसास सुमन और स्नेहा के रोम-रोम में भरा था। ऑस्कर अवाॅर्ड ट्रॉफी पकड़े वे दोनों एक-दूसरे को बधाई दे रही थीं। सुमन और स्नेहा के हिंदुस्तान वापस आने पर हम उनसे मिलने हापुड़ के काठीखेड़ा गांव में पहुंचे। गाय-भैंसों के तबेलों के बीच कच्ची ईंटों के बने, पुते छोटे से एक कमरे के सामने 2-3 छोटी बच्चियां खेलती मिलीं। दीवार पर सबला समिति का बोर्ड दिखा। इस यूनिट के अंदर 3-4 मशीनें लगी हैं, जहां 5-6 युवतियां सैनिटरी पैड बनाती मिलीं।

अवाॅर्ड की खुशी

सुमन अपनी सासू मां के साथ

सुमन का कहना था कि उन्होंने सिर्फ टीवी में फिल्मी अवाॅर्ड ही देखे हैं। ऑस्कर फिल्मों का सबसे बड़ा अवॉर्ड है, यह उन्होंने पहली बार जाना। ऑस्कर अवाॅर्ड का वह पल उनके जीवन को नया मोड़ दे गया। कुल 18 लोगों ने फिल्म पीरियड. एंड ऑफ सेंटेंस में काम किया है। इनमें से कोई भी एक्टर नहीं है, ना ही किसी ने फिल्म से पहले कोई रिहर्सल की थी। फिल्म की कहानी महिलाओं की माहवारी की समस्या पर है, जो इन दो युवतियों के संघर्ष के माध्यम से कही गयी है। सुमन की नयी जिंदगी शादी करके दिल्ली से हापुड़ के काठीखेड़ा गांव आने पर शुरू हुई।

इस गांव में तब बिजली, सड़क, टॉयलेट कुछ भी नहीं था, सैनिटरी पैड तो बहुत दूर की बात थी। गांव में महिलाओं के लिए रोजगार या महिलाओं का सशक्त होना तो एक सपना था। लोगों को स्वास्थ्य के लिए सचेत करने के नाम पर सिर्फ ‘एक्शन इंडिया’ गैर सरकारी संस्था और आंगनवाड़ी की कुछ वर्कर थीं। सुमन ने नौकरी करना चाहा। इसी एनजीओ द्वारा एक छोटे से इंटरव्यू के बाद उन्हे चुना गया। तभी से काठीखेड़ा गांव की महिलाओं के जीवन में बदलाव की शुरुआत हुई।

सैनिटरी पैड्स बनाती हुई एक वर्कर

पीरियड्स में समस्या

सबला समिति की पूरी यूनिट

काठीखेड़ा गांव की महिलाओं के लिए सबसे बड़ी समस्या थी कि माहवारी के समय टॉयलेट कहां जाएं। घर से दूर जाना पड़ता था। दिन के उजाले में तो बहुत परेशानी होती। बच्चियों ने स्कूल जाना सिर्फ इसीलिए छोड़ दिया, क्योंकि माहवारी में टॉयलेट जाने में परेशानी होती। वे पानी कम पीतीं, जिससे यूरिन पास करने ना जाना पड़े। अकसर महिलाएं यूटीआई से परेशान रहतीं। आश्चर्य की बात यह थी यहां की महिलाओं ने पैड को ना देखा था और ना ही उसके बारे में सुना था।

सैनिटरी पैड की मशीन के आने के बाद गांव की महिलाओं में सकारात्मक बदलाव आए। सबला समिति में लगी पैड मशीन की इस यूनिट में 7-8 युवतियां काम करती हैं। इससे पहले इस गांव में युवतियों के लिए रोजगार के कोई अवसर नहीं थे।

स्नेहा अपनी मां व भाभी सुमन के साथ

रोजगार के अवसर

2000 रुपए प्रतिमाह पानेवाली इन लड़कियों का टारगेट एक दिन में 600 सैनिटरी पैड बनाने का है। काम करने का समय सुबह 9 से 6 बजे तक है। पर ये लड़कियां देर रात तक काम करती हैं।

पिछले सालों में स्नेहा ने कई उतार-चढ़ाव देखे। स्नेहा ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई करते हुए इस समिति में काम किया। वे कहती हैं, ‘‘मैं किसान की बेटी हूं। मुझे दिल्ली पुलिस में भर्ती होने का मन है। कोचिंग लेनेे के लिए रुपयों की जरूरत है। इस नौकरी से मुझे रुपए मिलते हैं। मैं चाहती हूं नौकरी करके अपने माता-पिता का नाम रोशन करूं। सैनिटरी पैड बना कर महिलाओं को इसके प्रति जागरूक करना इतना आसान नहीं था। इस दौरान मुझे कई तरह की बातें सुनने को मिलीं, पर सासू मां और कोर्डिनेटर शबाना आपा के हौसलों से राहत थी।’’ उनके सैनिटरी नैपकिन का नाम ‘फ्लाई’ है, जो विद विंग्स और विदआउट विंग्स भी बनाए जाते हैं।