पुणे का एक छोटा सा हॉस्पिटल। वैसे तो यह प्राइवेट हॉस्पिटल है, लेकनि यहां डलिीवरी कराने के लिए गरीब परविारों का तांता लगा रहता है। घर की बहू जब लेबर रूम में होती है, तो शायद इनमें से कुछ यह भी दुआ मांगते होंगे कि उनके घर बेटी का जन्म हो। इसके पीछे यह कारण नहीं होता कि इन्हें बेटी की बहुत चाह है,

पुणे का एक छोटा सा हॉस्पिटल। वैसे तो यह प्राइवेट हॉस्पिटल है, लेकनि यहां डलिीवरी कराने के लिए गरीब परविारों का तांता लगा रहता है। घर की बहू जब लेबर रूम में होती है, तो शायद इनमें से कुछ यह भी दुआ मांगते होंगे कि उनके घर बेटी का जन्म हो। इसके पीछे यह कारण नहीं होता कि इन्हें बेटी की बहुत चाह है,

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पुणे का एक छोटा सा हॉस्पिटल। वैसे तो यह प्राइवेट हॉस्पिटल है, लेकनि यहां डलिीवरी कराने के लिए गरीब परविारों का तांता लगा रहता है। घर की बहू जब लेबर रूम में होती है, तो शायद इनमें से कुछ यह भी दुआ मांगते होंगे कि उनके घर बेटी का जन्म हो। इसके पीछे यह कारण नहीं होता कि इन्हें बेटी की बहुत चाह है,

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पुणे का एक छोटा सा हॉस्पिटल। वैसे तो यह प्राइवेट हॉस्पिटल है, लेकिन यहां डिलीवरी कराने के लिए गरीब परिवारों का तांता लगा रहता है। घर की बहू जब लेबर रूम में होती है, तो शायद इनमें से कुछ यह भी दुअा मांगते होंगे कि उनके घर बेटी का जन्म हो। इसके पीछे यह कारण नहीं होता कि इन्हें बेटी की बहुत चाह है, बल्कि यह लालच होता है कि अगर बेटी हुई, तो डिलीवरी का सारा खर्चा माफ हो जाएगा। जी हां, यह अनोखी पहल की है इस हॉस्पिटल के एमडी गाइनीकोलॉजिस्ट डॉ. गणेश रख ने। मुलगी वाचवा अभियान यानी बेटी बचाअो अभियान के तहत इस हॉस्पिटल में लगभग 650 बेटियों का जन्म मुफ्त में कराया जा चुका है।
 हमारे समाज में जहां बेटों के जन्म पर जश्न अौर बेटियों के जन्म पर मातम मनाया जाता हो, वहां पर डॉ. गणेश रख की यह पहल समाज के इस नजरिए में बदलाव लाने में बड़ा योगदान दे रही है। पांच साल पहले पुणे के इस अस्पताल में किसी अाम अस्पताल जैसा ही माहौल रहता था। लड़का हुअा, तो बधाई देनेवालों अौर रिश्तेदारों को जमघट लग जाना, जश्न का माहौल अौर पूरे अस्पताल में मिठाई बांटना, जबकि लड़की होने पर माहौल ठीक इसके उलट रहता।
डॉ. गणेश रख का कहना है, ‘‘हम डॉक्टरों के लिए किसी की मौत की खबर देने जितना ही मुश्किल है किसी को लड़की पैदा होने की खबर देना। लड़की के जन्म के समय अौरतों का रोना, परिवारवालों का बिल देने से इनकार कर देना अादि ऐसी बातें हैं, जिनकी वजह से मन बहुत दुखी होता था। मुझे लगता था कि अाखिर वह दिन कब अाएगा, जब समाज का रवैया बेटियों के प्रति बदलेगा। दरअसल, हमारे समाज में बेटियों को पराया धन अौर जिम्मेदारी मान कर लोग उनके भरण-पोषण के खर्चे को बोझ समझते हैं। इसका एक ही हल है कि लड़कियों के खर्चे को कम किया जाए। इसलिए हमने यह पहल की है कि लड़की के जन्म के समय हॉस्पिटल की फीस ना लें अौर 5 साल तक उसके सभी टीके मुफ्त लगाएं।’’
5 साल पहले छोटे स्तर से शुरू हुअा यह अभियान अाज इतना बढ़ चुका है कि पूरे देश के 10 हजार से ज्यादा डॉक्टर्स इसमें जुड़ चुके हैं। इनके अलावा केमिस्ट, पैथोलॉजिस्ट्स, प्राइवेट स्कूल, कोचिंग सेंटर्स अादि भी जुड़ चुके हैं, जो लड़कियाें के लिए 20 से 100 प्रतिशत तक डिस्काउंट देते हैं। डॉ. गणेश की मानें, तो अाज उनके साथ 1 लाख से ज्यादा वालंटियर्स काम कर रहे हैं। देश-विदेश दोनों जगह से इन्हें खूब वाहवाही मिल रही है। बिग बी अमिताभ बच्चन का कहना है, ‘‘मेरे करोड़ों फैन हैं, लेकिन मैं डॉ. गणेश रख का फैन हूं। सही मायनों में वही रियल हीरो हैं।’’


घोड़े की घास से यारी
शुरुअात में घर से इस मुहिम के लिए सपोर्ट नहीं मिल पाया। डॉ. गणेश रख की पत्नी अौर भाई ने भी उनका कम विरोध नहीं किया। उनकी शिकायत थी कि पहले ही सिर पर लोन है अौर घर का खर्चा भी मुश्किल से चलता है, ऐसे में अगर वे लड़कियों की डिलीवरी का खर्चा लेना बंद कर देंगे, तो यह घोड़े की घास से यारी करने जैसा होगा। डॉ. गणेश रख बताते हैं, ‘‘उस समय मेरे पिता जी ने मुझे बहुत सपोर्ट किया। उन्होंने घरवालों को समझाया कि अगर पैसे की कमी होगी, तो मैं दोबारा से कुलीगिरी कर लूंगा, लेकिन इस वजह से एक अच्छा काम रुकना नहीं चाहिए। अाज जब हजारों लोग मुझे दुअाएं देते हैं, तो मेरे घरवालों को भी बहुत खुशी होती है। अब घर में सभी मेरा सपोर्ट करते हैं।’’
बचपन से कुश्ती लड़ने का शौकीन यह गाइनीकोलॉजिस्ट अपने इस शौक को कैरिअर इसलिए नहीं बना पाया था, क्योंकि मजदूरी करनेवाली मां का कहना था कि कुश्ती लड़ कर तुम्हें ज्यादा भूख लगती है अौर फिर तुम पूरे परिवार का खाना अकेले ही खा जाते हो, इसलिए बेहतर है कि कोई एेसा काम करो, जिसमें फिजिकल एक्टिविटी कम हो। जिस व्यक्ति ने खुद मुफलिसी के दिन देखे हों, वह अाखिर दूसरों की मजबूरी को क्यों नहीं समझेगा।


डॉ. गणेश रख का कहना है, ‘‘हम लड़कों के खिलाफ नहीं हैं। सोसाइटी में बैलेंस बनाने के लिए दोनों ही जरूरी हैं, लेकिन समाज के तरक्की करने अौर शिक्षा में सुधार होने के बावजूद सेक्स रेशो कम होता जा रहा है। 1961 में हुई जनगणना में यह 1000 ः 976 था, वहीं 2011 में यह घट कर 1000 ः 914 रह गया है। अस्पताल में डिलीवरी के लिए अानेवाले सब लोग लड़के की चाहत लिए ही अाते हैं, इनमें से कुछ तो एेसे भी होते हैं, जिन्होंने लड़का पैदा करने के लिए अलग-अलग टोटके कराए होते हैं। कुछ लोग तो किसी वैद्य या डॉक्टर से कोई दवा ले कर भी अाते हैं, जबकि अपने इतने सालों के कैरिअर में मैंने अाज तक ऐसी किसी दवाई के बारे में नहीं सुना।’’
‘‘अस्पताल में लड़की होने पर हमारे यहां मिठाई बांटी जाती है, रिश्तेदारों को बुके दिए जाते हैं अौर केक काट कर उसका जन्मदिन मनाया जाता है। इसका खर्चा उठाने में हॉस्पिटल का स्टाफ भी पूरी मदद करता है।’’
बहरहाल, छोटी सी मुहिम बड़ी बन चुकी है अौर समाज में धीरे-धीरे बदलाव भी अा रहा है। लेकिन बड़ी जंग अभी बाकी है। ‘‘जिस दिन लोग लड़के के बजाय लड़की होने की मन्नत मांगने लगेंगे, उस दिन मैं समझूंगा कि मेरा प्रयास सार्थक हो गया है। अौर तब से मैं लड़कियों की डिलीवरी का खर्चा लेना शुरू कर दूंगा। अाखिर मुझे भी तो हॉस्पिटल चलाना है,’’ बात खत्म करते हुए डॉ. गणेश रख ने कहा।