गणपति उत्सव की पूरे देश में जबर्दस्त धूम होती है। आस्था और भक्ति से जुड़े पर्व के अलावा अब यह भव्य समारोह, शौक और उत्साह से जुड़ा पर्व भी हो गया है। महाराष्ट्र के अलावा देश के विभिन्न शहरों में लोग अपने घरों और पंडालों में यह उत्सव धूमधाम से मनाने लगे हैं। हालांकि हमेशा से ही गणपति विसर्जन को ले कर

गणपति उत्सव की पूरे देश में जबर्दस्त धूम होती है। आस्था और भक्ति से जुड़े पर्व के अलावा अब यह भव्य समारोह, शौक और उत्साह से जुड़ा पर्व भी हो गया है। महाराष्ट्र के अलावा देश के विभिन्न शहरों में लोग अपने घरों और पंडालों में यह उत्सव धूमधाम से मनाने लगे हैं। हालांकि हमेशा से ही गणपति विसर्जन को ले कर

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गणपति उत्सव की पूरे देश में जबर्दस्त धूम होती है। आस्था और भक्ति से जुड़े पर्व के अलावा अब यह भव्य समारोह, शौक और उत्साह से जुड़ा पर्व भी हो गया है। महाराष्ट्र के अलावा देश के विभिन्न शहरों में लोग अपने घरों और पंडालों में यह उत्सव धूमधाम से मनाने लगे हैं। हालांकि हमेशा से ही गणपति विसर्जन को ले कर

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गणपति उत्सव की पूरे देश में जबर्दस्त धूम होती है। आस्था और भक्ति से जुड़े पर्व के अलावा अब यह भव्य समारोह, शौक और उत्साह से जुड़ा पर्व भी हो गया है। महाराष्ट्र के अलावा देश के विभिन्न शहरों में लोग अपने घरों और पंडालों में यह उत्सव धूमधाम से मनाने लगे हैं। हालांकि हमेशा से ही गणपति विसर्जन को ले कर कई सवाल उठाए जाते रहे हैं, जैसे कि गणेश प्रतिमाएं पानी में विसर्जित करने से जल प्रदूषण फैलता है, क्योंकि प्रतिमाओं में प्लास्टर ऑफ पेरिस, सिंथेटिक पेंट्स, प्लास्टिक आदि का उपयोग किया जाता है। प्रतिमाओं के साथ पूजा का सामान आदि भी पानी में प्रवाहित किया जाता है, जिससे समुद्र तट, नदी के तट पर कचरा फैलता है। लेकिन अब लोगों में इको फ्रेंडलि गणपति को ले कर भी काफी जागरूकता आयी है। ज्यादा से ज्यादा लोग विसर्जन के लिए नदी और समुद्र को प्रदूषित करने के बजाय घर में ही विसर्जन करने को महत्व देते हैं इसी तरह ऐसी मूर्तियां खरीदना चाहते हैं, जो इको फ्रेंडलि तरीके से बनायी गयी हों। हाल ही में मुंबई हाई कोर्ट ने एक ऑर्डर जारी किया है, जिसमें प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनायी गयी मूर्तियों को बिना इजाजत के पानी में विसर्जित नहीं किया जा सकता है। पर्यावरण के लिए आज कल कई संस्थाएं और व्यक्ति बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।

इस बारे में मुंबई के ग्रीन प्रैक्टेसेज की संस्थापक माना शाह ने बातचीत में कई बातें शेयर कीं। उनका कहना है, ‘‘शुरुआत में, इको फ्रेंडलि प्रतिमाओं को ले कर लोगों के मन में काफी झिझक थी। बहुत से लोग प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों के चमकीले, चमकदार रूप के आदी थे और मानते थे कि पर्यावरण के अनुकूल विकल्प दिखने या टिकाऊपन के मामले में ये मूर्तियां उनसे मेल नहीं खाएंगी। लेकिन अब यह धारणा बदल गई है। जब लोग देखते हैं कि लेड बेस्ड जहरीले रंगों का इस्तेमाल किए बिना भी पर्यावरण के अनुकूल मूर्तियां कितनी खूबसूरती से सजी और जीवंत हो सकती हैं, तो वे भी खुश हाते हैं। ग्रीन प्रैक्टिसेज में, हमने साल दर साल मांग बढ़ती देखी है। कई ग्राहक एक दशक से भी ज्यादा समय से हर साल हमारे पास वापस आ रहे हैं। सबसे बड़ा बदलाव यह है कि लोग अब सुंदरता के साथ-साथ अपनी जिम्मेदारी को भी समझ रहे हैं। वे इस तरह से त्योहार मनाना चाहते हैं, जिनमें वे खुल कर एंजॉय तो कर सकें, लेकिन जिम्मेदारीपूर्ण तरीके से। और एक बार जब वे इको फ्रेंडलि मूर्तियों की ओर रुख कर लेते हैं, तो वे शायद ही कभी पीछे मुड़ते हैं।’’

कैसे बनती हैं इको फ्रेंडलि मूर्तियां

इको फ्रेंडलि गणेश प्रतिमाएं प्राकृतिक, बायोडिग्रेडेबल चीजों से बनायी जाती हैं जो विसर्जन के दौरान सुरक्षित रूप से घुल जाती हैं और पर्यावरण पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं छोड़ती हैं। इन मूर्तियों में मुख्य रूप से शादु माटी और मुल्तानी मिट्टी का उपयोग किया जाता है, जो प्राकृतिक मिट्टी के पारंपरिक रूप हैं जिन्हें हाथ से आकार दिया जाता है और सदियों पुरानी तकनीकों का उपयोग करके धूप में सुखाया जाता है। जिन मूर्तियों को लंबी दूरी तक ले जाना होता है या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भेजना होता है, उनके लिए पेपर मैशी की मूर्तियां बेस्ट हैं, जो वजन में हल्की होने के साथ मजबूत भी होती हैं। यह पूरी तरह से बायोडिग्रेडेबल है। आजकल प्लांटेबल मूर्तियां भी बन रही हैं, जो इको फ्रेंडलि मिट्टी से बनायी जाती हैं जिसमें तुलसी या सूरजमुखी जैसे बीज होते हैं, ताकि विसर्जन के बाद, भक्त उसी मिट्टी से नए जीवन को पनपते हुए देख सकें। इन सभी मूर्तियों को नेचुरल वॉटर कलर से रंगा जाता है, जिनमें प्लास्टर ऑफ पेरिस, सिंथेटिक पेंट या प्लास्टिक का बिल्कुल भी उपयोग नहीं किया जाता है।

सुंदरता में नहीं आती कमी

प्राकृतिक रंग भले ही निऑन जैसे चटख न हों, लेकिन उनमें एक कोमल, मिट्टी जैसी चमक होती है जो कई लोगों को और भी खूबसूरत लगती है। कुशल कारीगर प्राकृतिक रंगों और पारंपरिक तकनीकों का उपयोग करके बारीक विवरण, अभिव्यक्ति और सुंदरता को उभारना जानते हैं। परिणामस्वरूप, ऐसी मूर्तियाँ बनती हैं जिनका रंग भले ही चटक न हो, लेकिन उनमें गहराई, गर्मजोशी और चरित्र होता है। माना शाह कहती हैं, '' ऐसी मूर्तियां अच्छी और दिव्य लगती हैं क्योंकि उन पर कृत्रिम चमक नहीं होती। इनका सौंदर्यबोध उनकी सादगी में निहित है। ये शांत, गरिमामय और सोच-समझकर बनाई गई लगती हैं, जो उन लोगों को बहुत पसंद आती है जो एक ज़्यादा सार्थक उत्सव की तलाश में हैं।”

कैसे हो विसर्जन

पिछले कुछ वर्षों में, मुंबई जैसे शहरों में गणेश उत्सव में पर्यावरण के प्रति संवेदनशील प्रथाओं की ओर एक सचेत बदलाव देखा गया है। सबसे बड़े बदलावों में से एक विसर्जन के तरीके में है। कई परिवार घर पर ही अपनी मिट्टी की मूर्ति को सम्मानपूर्वक विसर्जित करने के लिए एक साफ़ बाल्टी का उपयोग करके घर पर ही विसर्जन करना पसंद कर रहे हैं।प्लांटेबल मूर्तियां हों तो, उन्हें गमले या बगीचे में डाल दिया जाता है जहाँ कुछ ही हफ़्तों में बीज अंकुरित हो जाते हैं, जिससे विदाई एक नए उत्साह का प्रतीक बन जाती है।

प्रयुक्त पूजा सामग्री का भी अधिक सोच-समझकर उपयोग किया जा रहा है। फूल, माला या प्रसाद को समुद्र में फेंकने के बजाय, कई परिवार अब उन्हें खाद बनाने के लिए अलग कर देते हैं। यह त्यौहार धीरे-धीरे प्लास्टिक की सजावट, थर्मोकोल के मंच और सिंथेटिक पैकेजिंग से हटकर ऐसी प्रथाओं की ओर बढ़ रहा है जो आस्था और पृथ्वी, दोनों का सम्मान करती हैं।

लोग हो रहे हैं जागरूक

लोग अब प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों और लेड बेस्ड रासायनिक पेंट से होने वाले नुकसान के बारे में कहीं अधिक जागरूक हैं, जो समुद्री जीवन को प्रदूषित करते हैं और झीलों और नदियों में जहरीला कीचड़ छोड़ते हैं। उत्साहजनक बात यह है कि जागरूकता अब कार्रवाई में बदल रही है। परिवार भक्ति के साथ-साथ ज़िम्मेदारी के साथ भी उत्सव मनाना चाहते हैं। वे सवाल पूछ रहे हैं, लेबल पढ़ रहे हैं, और सोच-समझकर ऐसी मूर्तियाँ चुन रहे हैं जो सुरक्षित, प्राकृतिक और पर्यावरण के अनुकूल हों।

पर्यावरण-अनुकूल होने का विकल्प उम्र और आय के दायरे से बाहर जाकर दिलचस्प तरीकों से बदलता है। ज़्यादातर खरीदार शहरी, शिक्षित पृष्ठभूमि, युवा माता-पिता, कामकाजी पेशेवर और सेवानिवृत्त नागरिक होते हैं, पर्यावरण के प्रति सचेत हैं और चाहते हैं कि वे त्यौहार मनाने के उत्साह में पर्यावरण को प्रदूषित न करें।