छंट ही जाएगा कुहासा उदासी का
जिस तरह हम खिलखिलाते-मुस्कराते हैं, उसी तरह कभी-कभी रोना, उदास होना भी लाजिमी है। हमारे मन में सकारात्मक व नकारात्मक, दोनों तरह की भावनाएं जन्म लेती रहती हैं। दरअसल हम पॉजिटिविटी पर बहुत जोर देते हैं, लिहाजा दुखी होने, रोने या उदास होने को बुरा समझते हैं। लेकिन यह भी एक स्वाभाविक भावना है और इसे
जिस तरह हम खिलखिलाते-मुस्कराते हैं, उसी तरह कभी-कभी रोना, उदास होना भी लाजिमी है। हमारे मन में सकारात्मक व नकारात्मक, दोनों तरह की भावनाएं जन्म लेती रहती हैं। दरअसल हम पॉजिटिविटी पर बहुत जोर देते हैं, लिहाजा दुखी होने, रोने या उदास होने को बुरा समझते हैं। लेकिन यह भी एक स्वाभाविक भावना है और इसे
जिस तरह हम खिलखिलाते-मुस्कराते हैं, उसी तरह कभी-कभी रोना, उदास होना भी लाजिमी है। हमारे मन में सकारात्मक व नकारात्मक, दोनों तरह की भावनाएं जन्म लेती रहती हैं। दरअसल हम पॉजिटिविटी पर बहुत जोर देते हैं, लिहाजा दुखी होने, रोने या उदास होने को बुरा समझते हैं। लेकिन यह भी एक स्वाभाविक भावना है और इसे
जिस तरह हम खिलखिलाते-मुस्कराते हैं, उसी तरह कभी-कभी रोना, उदास होना भी लाजिमी है। हमारे मन में सकारात्मक व नकारात्मक, दोनों तरह की भावनाएं जन्म लेती रहती हैं। दरअसल हम पॉजिटिविटी पर बहुत जोर देते हैं, लिहाजा दुखी होने, रोने या उदास होने को बुरा समझते हैं। लेकिन यह भी एक स्वाभाविक भावना है और इसे स्वीकार किया जाना चाहिए।
परेशान, उदास, हताश या दुखी होना इतना भी बुरा नहीं, जितना समझा जाता है। दरअसल जब कभी ऐसी भावना हमें घेरती है तो हम अपने जीवन, परिवेश, लोगों या स्थितियों के बारे में गंभीरता से सोचते हैं। दुखी होने का मतलब यह नहीं है कि हम चुनौतियों से घबरा रहे हैं, स्थितियों का सामना नहीं कर पा रहे हैं। यह एक प्रक्रिया है, जिससे गुजरते हुए हम चीजों को उनकी वास्तविकता में स्वीकारना सीखते हैं, उन पर ध्यान केंद्रित कर पाते हैं और हमारे भीतर सहनशक्ति क्षमता विकसित होती है।
धर्मशिला नारायणा सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल दिल्ली की मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. नेहा दत्त कहती हैं, ‘‘रोना या उदास होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। कई बार इस प्रक्रिया से गुजरना बहुत जरूरी होता है, ताकि किसी बड़े नुकसान से बचा जा सके। सभी को पता है कि सुख-दुख जीवन का हिस्सा हैं और अच्छी-बुरी स्थितियां आती-जाती रहती हैं। हां, इनसे निपटने की मानसिकता भी जरूरी है ताकि ऐसी स्थिति डिप्रेशन में ना बदले।’’
अपने-अपने दुख
हर किसी की स्थिति अलग होती है, स्थिति को देखने का नजरिया और उससे निपटने का तरीका भी अलग होता है। कोई छोटी सी समस्या से परेशान हो सकता है तो कोई अथाह परेशानी में भी मुश्किल से रो पाता है। इससे पता चलता है कि किसी के भीतर भावनाओं को नियंत्रित करने की कितनी क्षमता है और वह विपरीत परिस्थिति में कैसे व्यवहार करता है। कुछ लोग भावनात्मक रूप से मजबूत होते हैं, विपरीत स्थिति में खुद को संभाल लेते हैं। दूसरी ओर कुछ लोग अति संवेदनशील या भावुक होते हैं। वे जल्दी घबरा सकते हैं, प्रतिक्रिया जता सकते हैं और नेगेटिव सोचने लगते हैं। कुछ लोग नाजुक होते हैं तो कुछ रफ-टफ बने रह जाते हैं।
जब उदासी अकसर सताए
कुछ लोग अपने वर्तमान और भविष्य के बारे में जरूरत से ज्यादा सोचने लगते हैं। उनके मन में असुरक्षा भय और चिंता ज्यादा होती है। आज के अनिश्चित माहौल में तो ऐसा कभी ना कभी सब के साथ ही होता है। डर, चिंता, तनाव से मन घिरा रहता है। अगर जल्दी इन स्थितियों से खुद को अलग ना किया जाए तो नकारात्मकता हावी हो जाएगी। इसलिए अगर ऐसा लग रहा है कि अकसर ही उदासी या हताशा घेर रही है, नेगेटिव विचार मन में आ रहे हैं तो अपने प्रति उदार होने के बजाय थोड़ा कठोर बनें। अनुशासित रहने का प्रयास करें, रोज कुछ देर योग और ध्यान करें। नियमित ऐसा करने से भी लाभ ना हो तो किसी अच्छे मनोचिकित्सक से संपर्क करें, ताकि अपनी भावनाओं पर समय रहते नियंत्रण पा सकें।
स्थितियों से बाहर कैसे निकलें
डॉ. नेहा दत्त कहती हैं कि दुखी होना स्वाभाविक बात है, लेकिन दुख में डूब जाना शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता। खुद से बाहर निकलने के तरीके ढूंढ़ने जरूरी हैं, तभी आगे बढ़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए किसी करीबी का बिछोह (मृत्यु) पीड़ादायक है, जिससे उबरने में लंबा वक्त लग सकता है। ऐसी स्थिति में यही सोच दिलासा देती है कि मृत्यु को टाला नहीं जा सकता, यह अंतिम सत्य है और मौत के बाद कोई दोबारा लौटता नहीं, इसलिए उसके पीछे छूटी जिम्मेदारियों के बारे में सोचें। उसकी अच्छी स्मृतियों को याद करें, अपने बच्चों, निकट संबंधियों, माता-पिता और अन्य तमाम उत्तरदायित्वों के बारे में सोचें। अपने आसपास के उन लोगों के बारे में सोचें, जिन्होंने कभी अपनों को खोया और फिर आगे बढ़े। सोचें कि आपके अपनों को आपकी जरूरत है, इसलिए भावनाओं को थोड़ा नियंत्रित करना होगा। प्रियजनों से बात करते रहें, दुख को स्वीकारें, नकारात्मक विचारों व लोगों से दूर रहें।
व्यस्त रहें, काम करते रहें, फिजिकल एक्टिविटी करें, ताकि मन व शरीर थक जाएं और दिल को सुकून पहुंचे। थोड़ी देर का व्यायाम भी अच्छा महसूस कराने वाले हारमोन्स को एक्टिव कर देगा। इससे ब्लड सर्कुलेशन बढ़ेगा और मन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अपनी ओर से हरसंभव प्रयास करें। अगर इनसे भी कुछ समय बाद राहत ना महसूस हो तो मनोचिकित्सक से मिलने में हिचकिचाएं नहीं।