Tuesday 23 August 2022 03:30 PM IST : By Sarojini Nautiyal

आउटसाइडर

outsider

इस समय तो वहां सुबह के 10 बज रहे होंगे, रोहित चाय-नाश्ता कर चुका होगा अब तक। भारत में रात के 11 बज रहे हैं, पूरे 11 घंटे का अंतर है। रोहित को अमेरिका गए डेढ़ माह हो गए। थोड़ा-बहुत तो रम गया होगा, आजकल के बच्चों का एक्सपोजर पहले से ही अच्छा-खासा हो जाता है, रात-दिन इंटरनेट में लगे रहते हैं, कहां क्या हो रहा है, सब जानकारी रखते हैं। मुक्ता ने घड़ी पर नजर डाली, स्काइप की सेटिंग ठीक की।

‘‘रोहित बेटे, हो गया नाश्ता-पानी, कैसा चल रहा है, आज तो छुट्टी होगी?’’

‘‘हां मम्मी, छुट्टी है... नाश्ता आराम से करूंगा,’’ रोहित का स्वर अलसाया हुआ था।

‘‘अभी तक कुछ नहीं लिया... टाइम से खाया कर... बन गए होंगे तेरे यार-दोस्त, अब तो नहीं आती होगी घर की याद,’’ मुक्ता भावुक हो उठी।

‘‘हां, सब ठीक है... यार-दोस्त तो इंडिया में रह गए, मैं तो अभी वैसे भी आउटसाइडर हूं... अच्छा मम्मी, रखता हूं अभी... आप लोग अपना ध्यान रखिए।’’

‘‘ठीक है... प्यार बेटा,’’ मुक्ता उदास हो गयी।

एेसे ही नहीं कहा गया- दूर के ढोल सुहावने, कितनी फीकी-फीकी थीं उसकी बातें। 

आउटसाइडर... कितना अकेलापन है इस शब्द में, मुक्ता ने भोगी है इसकी तल्खी, वह भी अपनों के बीच। तू तो बेटा बाहरी लोगों के बीच है। आज नहीं तो कल तेरे कुछ मित्र बन जाएंगे, तब नहीं रहेगा तू आउटसाइडर। मैं... मैं तो बेटा अभी तक हूं।

नयी-नयी शादी हुई थी। सुमित रेंजर के प्रशिक्षण के लिए नैनीताल चले गए। हफ्तेभर के लिए आए थे। रिश्ते के देवर मजाक में ‘‘भाभी जी, इस गरमी में आप यहां क्या करेंगी। आप भी भैया के साथ नैनीताल चली जाइए,’’ कह कर मेरे दिल को गुदगुदा देते। नादान थी,सोचती, क्या पता एेसा हो सकता हो। पर यह बात ही रह गयी। यह कहां संभव था। 

‘‘मीतू, ध्यान से अपनी ट्रेनिंग पूरी करना, अभी तक अच्छे नंबर आए हैं तेरे...’’ सास जी इन वाक्यों को बोलने में जो दम लगातीं, उससे ये वाक्य धमकी जैसे लगने लगते। मेरे दिल पर बोझ बढ़ जाता।

धीरे-धीरे मेहमान विदा हो गए। सास जी अपनी बेटी और छोटे पुत्र के साथ अपनी पहले वाली दिनचर्या में आ गयी थीं। दीदी भी अकसर शाम को आ जाती थीं। दीदी का घर यहां से अधिक दूर नहीं है। नहर-नहर जाएं, तो एक किलोमीटर होगा। सड़क से डेढ़ किलोमीटर पड़ता है। दीदी पैदल नहर के रास्ते से आती हैं। इधर छोटा सा बाजार है, जरूरत का सामान, साग-सब्जी खरीदी और अपनी मां के यहां भी अपनी उपस्थिति दे दी। उधर दिन सरकता है, इधर घर दीदी की राह देखने लगता है। शाम होते ही दीदी के आने पर घर का कोरम पूरा हो जाता। 

ससुर जी के असमय चले जाने के धक्के को परिवार ने बड़े धैर्य और हिम्मत से झेला था। अपनी एकजुटता की ताकत को आजमा चुका था। दुश्मनी किसी से नहीं और भरोसे की अपेक्षा भी किसी से नहीं। महत्व भी किसी का नहीं और प्रशंसा करना तो निठल्ले बैठे लोगों का काम होता है। अब मुक्ता किस बात पर मुंह खोले। वह चीजों से बतियाने लगी। ड्रॉइंगरूम में ससुर जी का बड़ा सा तैलचित्र लगा है। कलाकार ने अपनी तूलिका से प्राणतत्व उड़ेला है। उससे छवि में जो प्रभाव दिखायी देता है, वह सास जी के कमरे में लगी उनकी फोटो में नजर नहीं आता। जिस प्रकार से परिवार उनको याद करता है, उनको प्रस्तुत करता है, उससे उनके समकालीन सब बौने हो जाते हैं। यहां तक कि उनके स्वयं के बड़े भाई का कद छोटा हो गया था।

सुमित के पिता जी सिंचाई विभाग में ओवरसियर थे। मिलनसार तबियत के व्यक्ति थे। रिटायर होते-होते दो बड़ी जिम्मेदारियों को निभा गए, एक दीदी की शादी और दूसरा, पहाड़ और नगर के युग्म से निकले सुंदर, रमणीक, अभिजात्य देहरादून में दो बीघे जमीन में बाग-बगीचे से घिरा बसेरे का निर्माण। मकान बड़ा तो नहीं है, मगर सुविधाजनक अवश्य है। सास जी में अपने मकान को ले कर बहुत स्वामित्व बोध है। ‘‘एेसे ही नहीं जोड़ा हमने ये सब,’’ वे अपने बच्चों से कहतीं, ‘‘तुम्हारे पापा की तपस्या और मेरी साधना।’’

जाने क्यों मुझको एेसा लगता कि उनका यह कथन केवल लड़कों के लिए है, क्योंकि परिवार ने ज्यादा दांव लड़कों पर लगाया, बेटियां तो तपस्या और साधना में भागीदार बनीं। ससुर जी रिटायर हुए ही थे कि परिवार अस्पताल के चक्कर काटने लगा। ससुर जी को फेफड़ों का कैंसर हो गया था, धूम्रपान के शौकीन थे। सास जी के प्रतिबंधों और चौकसी के बावजूद वे बीमारी की गिरफ्त में आने से बच नहीं पाए। सास जी ने कमर कसी और पूरे परिवार को एक टीम में बदल दिया। अपने साधनों से आगे जा कर उपचार चयन किया। बस, विदेश गमन को छोड़ कर इलाज की उन सारी संभावनाओं को आजमाया, जो देश में मुमकिन थे। 

‘‘सेवा में तो कोई सुमित की मां की बराबरी नहीं कर सकता’, ‘सेवा तो सुमित के पापा की हुई,’ ‘जगदंबा प्रसाद जी जैसी किस्मत सबकी नहीं होती।’ कुछ एेसी बातें चर्चा के बीच कानों में पड़ती रहतीं।

पिता तो हाथ नहीं आए, मगर पिता जाते-जाते परिवार को सेवा का प्रतिदान परिवार की बढ़ी हुई प्रतिष्ठा के रूप में दे गए। सास जी टूटीं,पर अधिक मजबूती के साथ दोबारा खड़ी हो गयीं। मायके की तरफ से बड़ा आत्मीय संबल रहा। परिवार को नहीं टूटने दिया। 

सुमित की खामोशी लंबी होते देख मां ने जिन शब्दों में बेटे को दिलासा दी और हौसला बढ़ाया, वह उसने मुक्ता को जिस प्रकार पहली रात ही बताया, उससे उसे परिवार में सास की अहमियत का अंदाजा लग गया था। सुमित बोला था, ‘‘मुक्ता, जानती हो मां ने क्या कहा। मां ने कहा, ‘तू अपने दिल पर यह क्या बोझ ले कर बैठ गया। पापा सब कुछ कर गए हैं बेटा, तू अपना भविष्य देख... मैं हूं ना.. अपनी मां का भरोसा कर, वैसे भी तुम मेरे साथ ही रहे हो, पापा तो नौकरी में इधर-उधर रहे ज्यादातर... कल से तू अपने फुटबाल की प्रैक्टिस में जाएगा...’’ कहते-कहते सुमित का चेहरा जिस आभा से प्रदीप्त हुआ, उसमें मां के विराट स्वरूप को देख कर वह चौकन्नी हो गयी। वह बहुत सरल सहज वातावरण से आयी थी, जहां मां की सारी बातों को मानने की अनिवार्यता नहीं थी। मां बस मां है...प्यारी-प्यारी मां।

प्रेम और अभावों में विह्वल कवि जयशंकर प्रसाद को अपना प्रिय कवि बताने वाली, ले चल मुझे भुलावा दे कर मेरे नाविक धीरे-धीरे... को अपना थीम गीत मानने वाली, यथार्थ के दर्शन वाले पतिगृह में जिंदगी की पारी खेलने के लिए खुद को तैयार करने लगी। आखिर उसने रॉबर्ट ब्राउनिंग को भी पढ़ा था। अपने माता-पिता को दिन-प्रतिदिन की समस्याओं का निस्तारण करते देखा था।

घर की गोष्ठी में कोई औपचारिक निमंत्रण थोड़े मिलेगा, फिर सभी तो पढ़े-लिखे हैं, चर्चा करने को बहुत कुछ होता है। मेरे घर में सब कितना रस लेते हैं, जब भी मैं कुछ बोलती हूं। रोजमर्रा की बातचीत में कवियों-लेखकों के कथनों को दृष्टांत के रूप में उद्धृत करना आदत में है। मुझे खुद स्पेस बनाना होगा। मुक्ता सजग हो गयी। गृहस्थी में हाथ पर हाथ धर के गप नहीं मारी जाती है। स्कूल का खिलंदड़ापन हमेशा थोड़े रहता है। मुक्ता मटर छीलती सास-ननद के बीच घुस गयी। अभी एक-दो मटर ही छीली थी कि स्नेहा, ‘‘भाभी, मटर मैं और मां जी छील लेंगे, आप छत से कपड़े ले आइए,’’ कहने लगी।

‘‘हां, सूख गए होंगे,’’ सास जी ने भी अनुमोदन कर दिया। मुक्ता के पास कोई चारा नहीं बचा। हाथ की मटर छोड़ कर पीछे के दरवाजे से आंगन में आ गयी। आंगन से लगा किचन गार्डन। किचन गार्डन में लगा भीगा-भीगा पुदीना भी उसके कुम्हलाए मन को सहला नहीं पाया। गार्डन के बायीं ओर एक छोटा गेट, जो सुमित के ताऊ जी के आम के पेड़ों से घिरे मकान में खुलता है। इसी पीछे के दरवाजे से निकल कर सुमित उसे ताऊ जी के यहां डिनर में ले गया था। शादी के अगले दिन की ही बात थी। सुमित की 2-4 दिनों की ही छुटि्टयां बची थीं,ताई जी ने नवदंपती के स्वागत में दिए जानेवाले भोज को निष्कंटक रखने के लिए शादी की औपचारिकताओं के निपटते-निपटते हमें अपने यहां रात्रिभोज में आमंत्रित कर दिया। मुक्ता दुलहन बनी सुमित के साथ जब पीछे के दरवाजे से खुले आंगन में आयी, तो जगह बहुत अनजानी सी लगी। एेसा लगा जैसे किसी फलों के बाग से हो कर गुजरना है। 

गेट पार करते ही सुमित ने मुड़ कर अपने घर की ओर देखा और मुक्ता को अपनी बांहों में भर लिया। वनप्रदेश की नीरवता और सुशांत युगल। 

‘‘चलें,’’ सुमित ने ही बोला था। मुक्ता सकुचा गयी। एक मधुर मुस्कान अधरों पर तिर गयी। दायीं ओर मुड़ी सीढि़यों की तरफ और बिना गिने चढ़ गयी। उसके घर में छत में जाने के लिए तेईस सीढि़यां हैं और कॉलेज में लाइब्रेरी दूसरी मंजिल में है, वहां जाने के लिए तीस सीढि़यां चढ़नी पड़ती हैं।

कपड़े सूख चुके थे। तार से बटोरे। कुछ नीचे गिर गए थे। हवा थोड़ा तेज थी, मुक्ता ने गट्ठर बना दिया। धूप अलसायी पसरी हुई थी। चारों ओर नजर दौड़ायी, कोई एकाएक दिखा नहीं। जल्दी क्या है, मुक्ता ने गट्ठर से अपना ब्लाउज निकाला, सिर पर रखा और मुंडेर पर हाथ टिका दिए। पेड़ों के बीच एक औरत घास काट रही है, जहां से दूध आता है, उनकी बहू है। पीली भूरी धोती और लाल ब्लाउज में वह झुरमुट में लुकाछिपी करती सी लग रही है। काफी देर हो गयी है उसे घास काटते। दो गट्ठर बने हुए हैं। लकडि़यां भी बीनी हुई हैं। बाग में कितनी चीजें मिल जाती हैं। हवन के लिए आम की लकडि़यां, बंदनवार के लिए आम के पत्ते। वैसे बाग में केवल आम के ही पेड़ नहीं है, पुलम, लीची, आड़ू की भी अच्छी-खासी संख्या है, चकोतरा भी दिख रहा है। आम पर क्या बौर आयी हुई है। पुलम, आड़ू फूलों से नहाए हुए हैं। ताऊ जी का बगीचा भी बहुत बड़ा है। पेड़ों के झुरमुट में मकान के बस कुछ हिस्से दिखते हैं। कहने को मकान लगे हुए हैं, दरअसल बाग लगे हुए हैं। मकान बहुत दूर और, दिल तो...। धीरे-धीरे बाग और गेट के किस्से फूटने लगे थे। ‘‘हमने तो सब कुछ जेठ जी पर छोड़ दिया था, सुमित के पापा को कहां थी फुरसत,’’ उद्गारों से सास जी जितना ढकतीं, उससे अधिक छलक जाता। खैर, बच्चों ने ताऊ-ताई के प्रति अपने आदर भाव में कोई कमी नहीं आने दी और प्रकट रूप से दोनों परिवारों के मध्य परस्पर प्रेम और सम्मान की लोग मिसाल देते हैं।

कुल चौबीस सीढि़यां थीं, एक ज्यादा चढ़नी-उतरनी पड़ेगी। मुक्ता कपड़ों की तह कर चुकी थी, सावधानी से। पिछली बार पैंट सीधी नहीं की थी। एक बार फिर चेक किया। सब ठीक लगा। सब कुछ ठीक ही लगता है, मगर चूक दुबक कर बैठी रहती है, फिर रंगे हाथों पकड़वाती है। फिलहाल तो कुछ नहीं नजर आया। दीवान पर कपड़े एक तरफ रख दिए। कमरे की ओर जाते हुए रसोई में नजर डाली। सास जी चावल चढ़ा चुकी थीं, स्नेहा सलाद की तैयारी कर रही थी, बगीचे के ताजे हरे खीरे और लाल टमाटर चिलमची में रखे हुए दिखे। सास जी का साम्राज्य सचमुच बड़ा दमदार है। प्रकृति की इस ताजगी और कोमलता में भी एक ठसक है।
कपड़े अलमारी में रखे, तभी नजर मोती जड़े पर्स पर पड़ी। सुषमा ने खुद अपने हाथ से बना कर शादी में दिया था। यह उसके लिए बहुत खास था, इसलिए नहीं कि सहेली ने गिफ्ट किया। उसने तो कढ़ा हुआ मेजपोश भी दिया है। पर्स में सुमित की चिटि्ठयां रखी हैं, गुलाबी लिफाफे। क्या टाइम हुआ होगा... सवा बज रहा है। अभी सुबोध के आने में आधा घंटा है। मुक्ता ने 2-3 चिटि्ठयां निकालीं, थोड़े परदे खींचे और पलंग पर पसर गयी, दो तकियों पर सिर टिकाए। आधा घंटा चुपचाप निकल गया। 

पीछे साइकिल खड़ी करने की खड़खड़ हुई। सुबोध आ गया था। कॉलेज की फुटबाल टीम में है। आजकल अभ्यास जोरों पर है। तामझाम रखने की आवाजें। ‘‘थोड़ा ठहर कर नहाना,’’ सास जी की रोज की हिदायत। कुछ बातें रोज एक जैसी होती हैं। सुबोध प्यारा अहसास,अकारण भी भाभी बोलता है।

गरमी अपना असर दिखाने लगी थी। नन्ही-नन्ही अमियां झुंडों में दिखने लगीं। पुलम और आड़ू की भी बहार थी। कुल 12 पेड़ हैं- पांच आम के, बाकी दो लीची, दो पुलम, दो आड़ू और एक चकोतरे का, सारे गिन लिए। अब क्या पत्ते भी गिन लूं। समय ही समय, तीन दिनों के बराबर एक दिन हो रहा है। मकान के बरामदे से लगी फुलवारी भी अच्छी है। गुलाबी, पीले और सफेद बोगनवेलिया तो मकान के हर तरफ हैं। पेड़-पौधों के रोज बदलते रंग और रूप जीवन की गति का अहसास करा देते हैं। इनकी ढाल में छायावादी कवियों के धूप में छाया को तलाशने वाले दर्शन के रहस्य को समझा। मगर हिंदी साहित्य के इतिहास को देखना लंबे दिनों के उबाऊपन की बोझिलता को और बढ़ा देता। शाम होती है, ‘एक दिन और बीता’ उपलब्धि बन मन को बहला जाता। पर गरमियों की शाम यों ही कहां गुजरती है। छत में हो आयी। सब्जी-दाल का हिसाब समझ लिया... 

गैलरी से कुछ बातचीत की आवाजें आ रही हैं, दीदी आयी हुई हैं। बाल ठीक किए, दर्पण में देखा, कपड़ों में हाथ फेरा। 

‘‘दीदी प्रणाम,’’ कहते हुए पैर छुए। 

‘‘जीते रहो, कैसी चल रही है पढ़ाई? यहां से तो कोई गाइडेंस मिलेगी नहीं भई, सब साइंसवाले हैं। वैसे आर्ट्स में तो गाइडेंस की जरूरत भी क्या है। पढ़ाई ठीक हो रही होगी, बना लो नोट्स... एग्जाम में कैसे लिखना है, नोट्स से प्रैक्टिस हो जाती है...ठीक है, तुम देखो। मैं और स्नेहा जरा बाजार जा रहे हैं। मां जी अभी-अभी ताई जी की तरफ गयी हैं, आ जाएंगी थोड़ी देर में... नेहा जल्दी कर...’’ और घर खाली हो गया।

नोट्स... ‘‘मां जी, मेरे नोट्स वहां घर में हैं...चली जाती हूं... अगर आप कहें... परीक्षा तक वहीं रह लेती हूं।’’ 

‘‘मुक्ता, मुझे सास जी बोला कर, मां तो जन्म देने वाली होती है।’’ 

मुक्ता लंबे समय तक सास जी को कोई संबोधन नहीं दे पायी, एेसे ही काम चल गया। वह तो रोहित के पैदा होने के बाद ही उसकी जिह्वा सास जी बोलने लगी।

सुबोध साथ आया, एक दिन की प्रैक्टिस छोड़ कर। पापा उसको रोक रहे थे, मुक्ता ने समझाया। चकराता से लाए राजमा का 5 किलो का थैला जस का तस सुबोध के बैग के साथ रख दिया गया। मां ने टीका लगाया और पापा ने 100-100 के 5 नोट जेब में खोंस दिए। सुबोध जा चुका है। मुक्ता ने एक लंबी सांस ली, ससुराल के अहसास से मुक्ति। सबसे पहले चिट्ठी सुमित को, ‘‘मैं अपने घर हूं, अब यहां के पते पर भेजना, वैसे पढ़ाई का जैसा हाल है, मत ही लिखना।’’ ढाई महीने... मुक्ता पुराने खोल में आ गयी। भक्तिकाल, सूफी संत-कवि, हिंदी भाषा का विकास, गद्य साहित्य, आधुनिक युग, लौकिक संस्कृत, प्राकृत... झोंक दिया था मुक्ता ने खुद को। इधर परीक्षाएं निपटीं, उधर पत्रों का पुलिंदा डाकिया लिए खड़ा था। अभी वायवा और होना था, मगर कब, कुछ निश्चित नहीं।

सुमित आ गए थे। कोर्स पूरा हो गया, 15 दिनों बाद जॉइनिंग है। पिथौरागढ़ पोस्टिंग हुई। घर में चहलपहल का माहौल, बधाई देने आए रिश्तेदारों की आवभगत। कथा का आयोजन भी हुआ। सास जी को अपने मायके विकासनगर जाना है, अपनी सास के भतीजे के यहां ऋषिकेश जाना है, बहुत मानते हैं सास जी को। सुमित व्यस्त रहा, मां के साथ। रात को सब भाई-बहन सुमित को घेर कर बैठ जाते,बचपन के कारनामों में लोटपोट होते रहते। दीदी भी आ गयी थी, दीदी की शादी के किस्से... फिर पापा के बड़प्पन के अनगिनत... एक-दो दिन तो सुबोध झोंकों में वहीं ढुलक गया। सास जी ने ओढ़ना डाल दिया, ‘‘दिनभर का थका हुआ... उठाना मत, यहीं सो जाएगा।’’ 

ड्रॉइंगरूम से किताबें समेट कर जब मुक्ता लौटी, तो दोनों भाई कुंभकरणी निद्रा में। अचानक कुछ समझ में नहीं आया। वापस जा कर ड्रॉइंगरूम में सोफे में लेट गयी। दस दिन बाद एक नए सफर की तैयारी का विचार आया। पहले वायवा ठीक निपट जाए, परसों है... इस बार डेट ना खिसके... दो बार एग्जामिनर आ नहीं आ पाए। पढ़ते-पढ़ते दिमाग खराब हो गया। सोचते-सोचते कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया, पता ही नहीं चला। सपने में सुमित ने जैसे बांहों में भरा हो, आंख खुल गयी। सुमित ने होंठों पर उंगली रख दी, वह सपना नहीं था।
पैंतीस साल गुजर गए। सुमित के साथ राज्य के सभी वन क्षेत्रों का भ्रमण कर लिया। जिम्मेदारी थी, तो ठाट भी कम नहीं रहे। सम्मान भी बहुत मिला। इस बीच बहुत कुछ हुआ। स्नेहा का विवाह हुआ, शहर में ही है। लड़का इंजीनियर था, परिवार में पहला। बाप रे... क्या नखरे...। सुमित ने अपना मुंह बंद किया और जेब खोल दी। सास जी ने जेवरों की पोटली तो संभाली थी इसी दिन के लिए। मुक्ता को मुंहदिखाई में घर का कोई परंपरागत, खानदानी जेवर नहीं मिला था। बाजार से तभी-तभी खरीदी एक अंगूठी पहना दी थी। घर में पहली बहू का इतना फीका स्वागत। उसे दुलहन बनी भाभी के गले में मां का अपना कुंदन का हार डालना याद आया था। भाभी करवाचौथ में उसी हार को पहनती है। रात में सुमित ने डायमंड रिंग पहनायी, सिर में हाथ फेरा और मुक्ता सब कुछ भूल गयी... ना मांगू सोना-चांदी... ना मांगू हीरा मोती, देता है दिल जो दिल के बदले... सच है, पति के प्यार के सामने सब बेमानी। सुबोध एनडीए में निकल गया था। पहले प्रयास में ही। अब तो फुल कर्नल है, कमांड भी कर चुका। आजकल सिकंदराबाद में है, बीवी-बच्चों के साथ। 

सुमित डीएफओ बने। परिवार का रुतबा बढ़ा। बेटी का विवाह हो गया था। बेटे ने इंजीनियरिंग की स्नातक डिग्री हासिल की, आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चला गया। सुमित तो चाहते थे कि उनके सर्विस में रहते रोहित भी खाने-कमाने लग जाए... बल्कि शादी भी हो जाए। लेकिन रोहित पीएचडी करना चाहता था, वह भी अमेरिका से। सुमित रिटायर हो गए और अपने प्रिय शहर देहरादून आ गए। देहरादून पहले जैसा नहीं रहा। नए राज्य उत्तराखंड की राजधानी क्या बना, दूर-दूर तक हरियाली का पता नहीं। पहले सारा जंगल था। अब कंक्रीट के जंगल उग आए हर जगह। जमीन की खरीदफरोख्त जोरों पर। ताऊ जी के 2 बेटों ने अपने-अपने मकान बना लिए थे। तीसरा लंदन में है। इधर भी दोनों भाइयों के मकान बन गए थे। 

सास जी अभी तक तो पुराने मकान में ही रह रही थीं। वैसे अब बस की बात नहीं रही। बुढ़ापे ने असर दिखाना शुरू कर दिया है। कई बार कहा, फिर एक दिन सुमित जबर्दस्ती उठा कर ले आए रोजमर्रा के सामान के साथ। बाकी पुराने घर में ही है। विश्वास ही नहीं होता कि सास जी, जो रसोई, घर, बगीचा, छत, आंगन सब जगह एक साथ दिखायी देती थीं, अब इतने छोटे दायरे में सिमट गयीं। अपने कमरे में, ज्यादातर समय लेटे-लेटे ही बीतता है। सुबह-शाम बरामदे में बैठ जाती हैं, आरामकुर्सी मेें। शाम को चाबी ले कर जाती हैं बरामदे में। वहीं से छड़ी टेक-टेक कर पुराने घर चली जाती हैं, दीया-बाती करने। कुछ ठीकठाक भी करती होंगी, कुछ ध्यान आ जाता है, ढूंढ़ती भी हैं। अपने हिसाब से तजबीज करती रहती हैं। याददाश्त अभी ठीक है। मुक्ता को इस बात की बड़ी फिक्र रहती कि कहीं बाथरूम में गिर ना जाएं। उसने सास जी को नहलाने-धुलाने का काम सब अपने हाथ में ले लिया। नौबत रात डायपर पहनाने की भी आ गयी। 

‘‘किसी को रख लो मां जी के लिए,’’ प्रायः सुमित मुक्ता की व्यस्तता देख कर कह देता।’’

‘‘देखती हूं,’’ मुक्ता कह देती। लेकिन उसकी मंशा लग नहीं रही थी। उसे काम वाली पर ज्यादा विश्वास नहीं है, ‘‘अभी इतनी नौबत नहीं है, अपने रोजमर्रा के काम तो वह खुद कर लेती हैं। वे नहा भी लें, पर मैंने अपने डर से नहलाना-धुलाना अपने हाथ में ले लिया। फिर कोई एेसा कर भी नहीं सकता, सफाई भी तो चाहिए। कोई ज्यादा काम नहीं है, कपड़े कमला धो देती है,’’ मुक्ता कहती। 

सुमित कुछ दिनों के लिए चुप हो जाता। बाल बनाते, क्रीम-दवाई लगाते सास जी गांव, जमीन की कई दास्तानें मुक्ता को सुनातीं, बातें कई बार दोहरा भी जातीं। मुक्ता अपेक्षित जिज्ञासा दिखाती रहती। आखिर इंसान को केवल खाना-सोना नहीं है, उसे बोलने-बतियाने वाला भी चाहिए। दीदी भी आती रहती हैं। अब कम आ पाती हैं। घर में छोटा पोता है। दीदी के आने से मुक्ता को जरा राहत मिल जाती। 

‘‘कुछ लाना तो नहीं है पुराने घर से, मैं जल्दी में हूं,’’ दीदी का मां जी से ये कहना मुक्ता को हैरान करने लगा था।

‘‘ऋषिकेश, इंद्रमणि के यहां से भागवत का कार्ड आया हुआ है, मेरे नाम से है... तेरी राह देख रही थी, बड़े दिनों में आयी।’’

‘‘कार्ड तो सास जी, अधिकतर सब आपके ही नाम से आते हैं, देख तो लेते हैं ये...’’ मुक्ता रोक नहीं पायी, बीच में बोल पड़ी।

‘‘वह तो ठीक है... पर ये इसकी दादी के मायके से आया है... मुझे बहुत मानते हैं...’’ सास जी थोड़ा ठहर-ठहर कर बोल रही थीं। 

मुक्ता ने कमला को चाय के लिए कह दिया, ‘‘साहब की मत बनाना, ताऊ जी की तरफ गए हैं।’’

दिमाग गरम हो गया था। ‘मैं केवल गांव की अनसूया, प्रेमा... और ताई जी की बीते जमाने की बातों की साझीदार हूं। कोई काम की बात क्या मुझसे नहीं की जा सकती, पुराने घर की चाबी के योग्य नहीं हूं मैं,’ मुक्ता का दिल रिस रहा था, ‘जिंदगी बीत गयी। क्या कमाया मैंने!’

चाय बरामदे में आ गयी। दीदी पुराने घर से लौट रही थीं, हाथ में सास जी की चेकबुक थी। मुक्ता कुछ नहीं बोली। बस अपमानित होती रही। अपमान के कई चेहरे हैं, पर रंग एक ही है- स्याह। मुक्ता विवर्ण हो गयी, घुटने ने उसे जकड़ लिया।

‘‘पांच हजार का लिख दे,’’ सास जी बोलीं।

‘‘यहां पर दस्तखत कर दीजिए, मां जी।’’ 

सास जी ने चाय का गिलास जमीन में रख दिया। और समय होता, तो मुक्ता पकड़ लेती, आज वह मूर्तिवत बनी रही।

‘‘सुमित तो समापन में जाएगा। तू कल जा रही है, इंद्रमणि को पकड़ा देना। चेकबुक वहीं रख दे और चाबी लगा कर दे दे।’’

‘‘ठीक है,’’ दीदी ने चेक अपने पर्स में डाला, चेकबुक संभाली और पुराने घर की ओर चल दी। वापस आयी, सास जी को चाबी थमायी और तेज कदमों से गेट की तरफ बढ़ गयी।

कमला ने चाय के जूठे बरतन समेटे और रसोई की ओर जाने लगी। 

‘‘दाल मूंग की, सब्जी गोभी की बना देना। दाल में मसाले कम डालना, तुझे पता ही है,’’ मुक्ता कमला से कह कर अपने कमरे में आ गयी। 

सास जी बाथरूम में हैं, मुक्ता ने कान उधर लगा दिए। मुंह-हाथ धोने की आवाज आयी। नल बंद हो गया। उड़का हुआ दरवाजा खुला। बाहर निकल कर बरामदे की ओर बढ़ीं, पूजा का समय हो गया। मुक्ता ने खिड़की से देखा, सास जी पुराने घर की ओर जा रही हैं, झुकी हुई, धीरे-धीरे। देह बदल गयी। दम भी क्षीण हो रहा है मगर, मुक्ता को आहत करने की पूरी ताकत है। मुक्ता ने अहसास को झटक दिया।

सुमित सही कहते हैं, ‘‘मैंने दे दी है ना तुम्हें अपनी जिंदगी की चाबी, अब तुमको और किस चाबी की जरूरत है।’’ वाकई... और क्या चाहिए। मुक्ता ने रॉबर्ट ब्राउनिंग पढ़ा है, हिम्मत वाला हर खराबी से कुछ बेहतरीन निकाल लेता है। 

मुक्ता को अब पीछे नहीं, आगे देखना है। ‘बेटा, तू तो परदेस में है, मुश्किल से महीनाभर हुआ है। तू खुद को आउटसाइडर महसूस कर रहा है। मैं, बेटा, पिछले 37 सालों से अपने घर में आउटसाइडर रही हूं। अपनों के बीच में आउटसाइडर होना कैसा होता है, यह तू कभी भी नहीं जान सकता... पर एक वायदा है तेरी मां का तुझसे, तेरी मां तेरी पत्नी को आउटसाइडर महसूस नहीं होने देगी। उसे अपनी असली दौलत सौंपेगी। अपनेपन की... विश्वास की।’ 

मुक्ता उठी, बाथरूम गयी, हाथ-मुंह धोया, बरामदे में आयी और बाहर की लाइट जला दी।