चाय बटा बारिश
अचानक बस रुकी, जिसमें से वह जींस-टीशर्ट पहने उतरी। मेरा चेहरा खिल उठा। वह इधर-उधर टहल रही थी। मैंने उसको निहारते हुए आधे घंटे तक चाय गटकी, महज एक गिलास।
अचानक बस रुकी, जिसमें से वह जींस-टीशर्ट पहने उतरी। मेरा चेहरा खिल उठा। वह इधर-उधर टहल रही थी। मैंने उसको निहारते हुए आधे घंटे तक चाय गटकी, महज एक गिलास।
अचानक बस रुकी, जिसमें से वह जींस-टीशर्ट पहने उतरी। मेरा चेहरा खिल उठा। वह इधर-उधर टहल रही थी। मैंने उसको निहारते हुए आधे घंटे तक चाय गटकी, महज एक गिलास।
रोज की तरह मैं प्रतियोगी परीक्षा कोचिंग संस्थान से निकल कर चाय की टपरी पर आ बैठा, जो चारों ओर से पत्थर की लंबी पट्टियों पर टिकी थी। ऊपर पीली छान बिछी थी। दोपहर का समय था। अव्यवस्थित रूप से 5-7 मुड्ढे व कुछ लोहे के खाली ड्रम वहां बैठने वालों के लिए पर्याप्त थे।
चाय की यह टपरी कुछ अनुभवी लोगों के लिए अपने हिसाब से देश चलाने का ठिया (ठिकाना) थी। कुछ के लिए कार्यालय की थकान उतारने की जगह, तो कुछ के लिए बेहिसाब बतिया लेने का जरिया मात्र थी, तो मेरे लिए दिमाग को ऊर्जा देनेवाली औषधि का दवाखाना थी।
शहर के छोटे कस्बे के व्यस्ततम चौराहे से भागती जिंदगी को यहां बैठनेभर से सब कुछ पा लेने का अहसास होता था। जवानी के दिनों में चंचल मन के अरमान हिचकोले मार कर खिलना चाह रहे थे। ना जाने किसकी तलाश में नैनों को चैन नहीं मिल रहा था। थक-हार कर चल पड़ता था मैं अपने मकान पर।
दिल के अरमानों ने उस दिन शोर मचाना शुरू किया और तलाश खत्म हुई। चाय की टपरी में मैं मुड्ढा ले कर बैठ गया। चाय वाला, जिसने शायद पचपन-छप्पन वसंत देख लिए थे, बेमन से चाय का निर्माण कर रहा था। सहसा एक बस तेज आवाज में हॉर्न बजाती हुई आ कर रुकी, जिससे मेरे कानों से खून निकलते-निकलते बचा।
बस से एक युवती उतरी। पतली भौहें, छोटी-छोटी चमकती आंखें, गुलाबी गाल, उभरे होंठ, गौर वर्ण, मुखमंडल पर सूर्य सा असीम तेज, जो हल्के लाल रंग का सूट पहने थी और कंधे पर महीन जाली वाली चुन्नी लटकी थी, पीछे बैग पर घने काले बालों में चोटी लिपटी पड़ी थी। उसे देख कर ऐसा लगा मानो खूबसूरती की मिसाल उसी को मद्देनजर रख कर दी गयी हो।
मेरे नथुनों में चाय की महक भर गयी। सामने वह पीछे मुड़ी, जिससे उसके बैग ने मुंह चिढ़ाया। उधर चाय उफन रही थी, इधर मेरा उतावलापन बढ़ रहा था। मेरे भीतर नए अहसास ने जन्म ले लिया था। चाय वाले ने मुझे चाय पकड़ायी।
जब तक वह सामने रही, मन में उमंगें उछलती रहीं। बस के इंतजार में जब वह यहां-वहां घूम रही थी, तब रक्तप्रवाह कभी मंद तो कभी तीव्र हो रहा था। बेवजह उसकी नजर मुझ पर पड़ जाती थी। फिर बस आने पर वह उसमें चढ़ी और मेरा मन भी साथ ले गयी।
अगले दिन वह बस से उतरने के साथ ही सड़क के उस ओर खड़े भुट्टे के ठेले पर चली गयी। मन आत्मग्लानि से भर गया। तेज उमस के वक्त भी चाय होंठों से दूर नहीं कर पा रहा था मैं। अब भी उसे हसरतभरी निगाहों से निहार रहा था। केवल चाय पी कर तो उससे दोस्ती करना मुनासिब नहीं था। कल मुझे भी भुट्टा खाना होगा, मन ही मन शपथ कर बैठा था मैं।
अगले दिन नियत समय पर उत्साह से पूर्ण मैं भुट्टे वाले ठेले पर जा पहुंचा। उसका आना किसी खिलौने में चाबी भरने जैसा था। एक निश्चित समय तय था उसका। आज भी यही हुआ। वह बस से उतरी। आज वह पीली टीशर्ट व नीली जींस पहने थी। वहां मैंने बड़ी देर से नजरें गड़ाए रखी थीं। भुट्टा ले कर खुशी से खाने लगा। सोच रहा था यहां आएगी, तो कुछ दीदार होगा। उसका यहां-वहां लापरवाही से चलते हुए बस का इंतजार करना मुझे भाता था। चाहता था ये पल ठहर जाएं, पर उस बस के ड्राइवर को यह नागवार गुजरा, जो सामान्य दिनों की तुलना में जल्दी आ पहुंचा। वह फुर्ती से उसमें चढ़ गयी। मेरा उत्साह बस के नीचे कुचला जा चुका था।
अब मेरी सुबहें-शामें चिड़िया के पंख जैसी हल्की-फुल्की गुजरने लगीं। मौसम के कभी भी बदल जाने से मुझे फर्क नहीं पड़ता था। अंतर था तो यही कि सावन में भी बरखा शून्य और उमस ने तांडव मचाया हुआ था। मेरा रोम-रोम तब खड़ा हो जाता था, जब वह टहलती हुई उड़ती नजरों से मुझे देखती थी। फीकी चाय स्वतः मीठी हो जाती थी।
बचपन से शर्मीले स्वभाव का रहा हूं, शायद इसलिए उससे आगे बढ़ कर कुछ बोल पाना मेरे लिए असंभव था। पर उस दिन थोड़ा साहस जुटा कर उसके पीछे हो लिया, जब वह सड़क पार करके सामने कहीं जा रही थी। रास्ते में किसी भी बहाने से बात कर ही लूंगा, पर हाथ में पकड़ी गरम चाय को मुंह में उड़ेलने की मूर्खता हो गयी थी, जिसके कारण मेरे सड़क पार करने के साथ वह गायब हो गयी। सामने वाली दुकानों में उसे ढूंढ़ना मेरा परम कर्तव्य था, तिस पर दुकान फैन्सी आइटम्स की होना किसी सहायक के साथ होने जैसा था।
दुकान के अंदर झांकते ही उसके मालिक ने पूछ लिया, ‘‘क्या लेना है?’’ उसकी बात मेरे सिर के ऊपर से निकल गयी। निगाहें उसे तलाश रही थीं। तभी अंदर वह दिखी। उसे देख कर ऐसा लगा जैसे पहली बार उसने मेरे मन के भाव पढ़े थे। मैं अधीरता से देखता गया।
‘‘क्या लेना है भइया?’’ दुकान मालिक ने जोर दे कर पूछा।
‘‘हम्म... अ... वो... यहां आसपास मोबाइल रिचार्ज की शॉप होगी?’’ हड़बड़ी में मैंने पूछ लिया।
‘‘5 दुकान आगे है,’’ तुरंत उसने बताया।
‘‘थैंक यू,’’ कह कर मैं वहां से खिसक लिया।
सावन के 20 दिन तक बारिश ने दस्तक नहीं दी थी। धरती सुलग रही थी। मिट्टी की सोंधी खुशबू का इंतजार था। कभी भूले-बिसरे जीवन के गमों से लड़ते कुछ बुजुर्ग चाय की टपरी में वक्त बिताने ताश की गड्डी लिए आ जाया करते थे। उनके खेलते-खेलते एक-दूसरे को हराने की जिद, उत्साह, खेल जारी रहने का रोमांच आदि में उनकी तेज आवाज टकराती थी।
पूरा दिन पहाड़ सा लगा, उस दिन जब वह वहां अनुपस्थित रही। उसके इंतजार में कभी पेन निकाल कर पास पड़े लोहे के ड्रम पर ‘मुकुल, मुकुल’ अनगिनत बार लिख देता था।
दिनोंदिन फूलों की मानिंद खिल रहा था मैं। वह मुझे कुछ-कुछ जानने लगी थी। इस उमस में उसके सामने चाय सुड़कना दुश्वार होता गया। दोष उसका नहीं था। कोचिंग से निकलना और उसका बस से वहां उतरना घड़ी के आरोही अंकों जैसा था। आदत से मजबूर मैं चाय की टपरी में उपस्थित था। वह बस से तीर की तरह निकली और बाजू वाली जूस की दुकान में प्रवेश कर गयी। पहली मर्तबा चाय ने मुझे नहीं खींचा। मैं उसके रूप पर रीझ गया। ना जाने कब उसका अनुसरण कर गया। मेरे जूस की दुकान में घुसते ही बिजली गुल हो गयी। वह प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ ही रही थी कि वापस उठ खड़ी हुई। मुझे देखा, तो उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गयी। मैं भी थोड़ा सा हंसा और मन मार कर यह सोचते हुए टपरी तक आ गया कि चाय का कोई सानी नहीं। बिजली की गुलाम नहीं, वक्त की मेहमान नहीं। हर समय कई प्रकारों में इसका निर्माण किया जा सकता है। कड़क, अदरक, इलायची वाली, मलाई मारते हुए, पानी कम दूध ज्यादा वाली, जीवन बीमा कराने वाली, रिश्तों को बनाने वाली, दूसरों की अच्छाई-बुराई की फेहरिस्त में तो इसकी अलग ही भूमिका है।
अगले दिन मैं बस स्टॉप पर टकटकी लगाए बैठा था, जिसका परिणाम सुखद रहा। अचानक बस रुकी, जिसमें से वह जीन्स-टीशर्ट पहने उतरी। मेरा चेहरा खिल उठा। वह इधर-उधर टहल रही थी। मैंने उसको निहारते हुए आधे घंटे तक चाय गटकी, महज एक गिलास। वह बार-बार अपना चेहरा रुमाल से पोंछ रही थी। सहसा मुड़ कर उसके कदम मेरी ओर बढ़ने लगे। मैं सकपका गया। मुझे लगा कहीं मेरी चकोर नजर का हिसाब लेने तो नहीं आ रही। उसकी दोनों बसों का नंबर जानना स्वाभाविक था। कुछ विशेष था, तो उसका टपरी में प्रवेश करना। घबराहट में मैंने लोहे के ड्रम पर पड़ा अखबार उठाया और उसमें अपना मुंह घुसा लिया। कुछ देर शांति छायी रही। मैंने धीरे से अखबार नीचे करके उसे देखा। वह मेरे बगल वाले मुड्ढे पर विराजमान अपने रुमाल से हवा कर रही थी, जिसके कारण सांस मुझे आ रही थी। मैं सामान्य हो कर तन कर बैठ गया। मैंने गौर किया, उसकी बायीं कलाई पर अंग्रेजी में 'चारु' लिखा था। वातावरण में उमस लगातार घुल रही थी। मेरा मन वहां से उठने का नहीं था। इसी दरम्यान
डेढ़ घंटे गुजर गए। उसका चेहरा लटक गया था।
मैं भी कब तक बैठा रहता वहां। जाने के खयाल से मैं उठा। तभी लहराती हुई बस आयी, जिसमें वह समा गयी।
आज कोचिंग से निकल कर जब टपरी पर पहुंचा, तो मन उधेड़बुन में था। लड़कियों से बात करना अपने बस की बात नहीं। आत्मविश्वास की धज्जियां जो उड़ी थीं कल। प्रेम के अलावा भी कई मुद्दे हैं जीवन में। निचोड़ तो है नहीं प्रेम में। उधर ना जाने कब से वह आ भी चुकी थी। चाय पीने का मन नहीं था। अचानक वह दाएं-बाएं देखते हुए सड़क पार कर चली गयी। मैंने खड़े हो कर देखा। वह अपने सैंडिल को वहां बैठे मोची को दिखा रही थी। इतने में उसकी बस आ टपकी। कंडक्टर उतर कर पनवाड़ी के पास जाता दिखा। मेरी बेचैनी बढ़ी। उसे कैसे बताऊं। भाग कर डिवाइडर पर खड़े हो कर बिना हिचकिचाहट बोल पड़ा, ‘‘हेलो, आपकी बस आ गयी।’’
वह किसी फौजी की तरह तुरंत मुड़ी। एक नजर मुझे देख कर बस को देखा। हड़बड़ाहट में मेरे पास दौड़ कर डिवाइडर पर आयी। मैंने ड्राइवर को रुकने का इशारा किया। वह पैरों को उठाते हुए उतर कर वापस जाने लगी। मैंने टोका। उसने कहा, ‘‘मेरे सैंडिल की डोरी टूट गयी है, सिलने में समय लगेगा।’’ पैर जलने से वह छटपटाने लगी। मैंने उसके पैरों पर ध्यान दिया। उसने लाचारी से मुझे देखा। मुझे ऐसा लगा जैसे सब कुछ ठहर सा गया हो। कुछ समाधान ना निकलते देख मैंने अपने जूते उसके हवाले कर दिए। वह घोर आश्चर्य से देखने लगी।
‘‘पहन जाओ, कल दे देना। मैं कुछ जुगाड़ कर लूंगा,’’ मैं तपाक से बोल गया। उसके चेहरे पर शरमभरी मुस्कान उभर आयी।
‘‘थैंक्यू,’’ बोलते हुए जूते अपने पैरों में खोंसती हुई वह बस में जा चढ़ी।
बीस मिनट मोची से विनती करने के बाद मैं फटे जूते पहन कर यह सोचते हुए घर जा रहा था कि मोची ने पिछले जीवन में कुछ पुण्य कर्म किए होंगे, जो एक दिन तक उसके सैंडिल रखने व सिलने का सौभाग्य उसे मिला। बाद में याद आया कि मैंने भी कुछ कम दांव नहीं खेला था।
अगले दिन मैंने वहां जाने में स्वयं देरी की। मैं मोची से कुछ दूर तब तक रुका रहा, जब तक वह वहां नहीं पहुंची। फिर बस आयी। उसने उतर कर टपरी में देखा। मैं उसे वहां नहीं दिखा। वह मुझे आसपास ढूंढ़ने लगी। दूर खड़ा मैं गदगद हो गया। मन प्रफुल्लित हो कर आकाश में उड़ने लगा। थक-हार कर वह मोची के पास आ गयी। वह रुपए निकाल कर दे ही रही थी कि मैं झट से वहां पहुंच गया। मुझे देखते ही उसने औपचारिक मुस्कान दी। बूढ़े मोची ने हम दोनों को घूरा। मैंने मोची के फटे जूते लौटाए। उधर वह मेरे जूते उतार रही थी। मैंने मेरे जूते व उसने अपने सैंडिल पहन लिए।
‘‘थैंक्यू अगेन,’’ एक मीठी आवाज हवा में तैर गयी।
‘‘इट्स ओके,’’ कह कर मैंने तसल्ली की। रोड पार करने में उसने मेरा अनुसरण किया। वहां आते ही उसकी बस आ गयी। कुछ और हसीं पल उसके साथ बीतते, जो बस ले गयी।
अगले दिन मैं कोचिंग से निकला ही था कि आसमां में काले बदरा इकठ्ठे हुए। ऐसा लग रहा था जैसे नभ ने काली चादर ओढ़ी हो। धीरे-धीरे बारिश की बूंदें गिरने लगीं। कुछ ठंडक का अहसास होने लगा। बारिश की बूंदें बड़े आकार में तब्दील हो गयीं, जिनका वेग तेजी से बढ़ता गया। मैं भीग गया। कई दिनों की भयंकर उमस के प्राण पखेरू उड़ गए। कुछ राहत मिली थी। टपरी में पहुंच कर मैं रुमाल से हाथ-मुंह पोंछने लगा। बसें, दुपहिया वाहन तेजी से भागते जा रहे थे।
टपरी में मेरे अलावा एक बूढ़ा व्यक्ति बैठा था, जो मेरे आते ही चलते बना। शायद बारिश में फंसने के डर से। चायवाला गुमसुम उस पत्थर की पट्टी के नीचे दुबका बैठा था, जिस पर स्टोव व गिलास रखा रहता था। घनघोर बारिश में वह बस से नीचे उतरी। फिर अपना हाथ ललाट पर छज्जा बनाते हुए चाय की टपरी की ओर आने लगी। मेरी बांछें खिल गयीं। मैं मुड्ढे पर टिक गया। उसने आ कर इधर-उधर देखते हुए हाथ झाड़े। फिर मुझे देख कर मुस्करायी। मुझे पिछले जन्म के पुण्यों का फल मिल रहा था शायद। बारिश की बौछारों ने टपरी में हमला बोल दिया था।
मैंने चाय वाले की तरफ घूम कर तेज आवाज में कहा, ‘‘अंकल, एक चाय।’’
सेकेंड वाली सुई सात कदम चली होगी कि वह भी जोर से बोली, ‘‘एक चाय मुझे भी।’’ इतिहास में पहली बार इस चाय की टपरी और मैंने उसका चाय मांगना सुना था।
फिर भगोने की टिन की, स्टोव के जलने की कांच के गिलास उठाने की आवाजें आयीं। इन सब आवाजों में अव्वल आवाज बारिश की आ रही थी।
‘‘एक गिलास ही चाय बची है, दूध खत्म हो गया,’’ चाय वाले ने चाय का गिलास लोहे के ड्रम पर रखते हुए अलसायी आवाज में कहा और वापस पट्टी के नीचे घुस गया।
‘‘आप ले लीजिए, मैं तो वैसे भी पीता ही रहता हूं,’’ मैंने उसकी तरफ देख कर कहा।
‘‘नहीं, आप ही पीजिए, मैं कम पीती हूं,’’ उसने कहा।
‘‘नहीं, मुझे नहीं पीनी,’’ मैं फिर बोला।
वह चुपचाप उठी और भगोने के पास रखा दूसरा कांच का गिलास उठाया। फिर चाय वाला गिलास उठा कर मेरे बगल वाले मुड्ढे पर बैठते हुए कहने लगी, ‘‘हम चाय के दो टुकड़े भी कर सकते हैं, सिंपल।’’ धनुष-बाण की तरह होंठों को खींचते हुए वह मुस्कराए जा रही थी।
मैं अवाक रह गया था, ऐसा तो मैंने सोचा ही नहीं था। अब ओले भी गिरें, तो मुझे परवाह नहीं।
उसने चाय वाले गिलास से आधी चाय दूसरे गिलास में डाल कर मुझे पकड़ा दी। हमारी मित्रता की शुरुआत हो चुकी थी।