मंजरी बुआ की इकलौती जहीन बेटी शोभा ने जीवन में अच्छा मुकाम हासिल किया, लेकिन किसी सिरफिरे ने उसकी हत्या कर दी। दुख से भरी मंजरी बुआ हैप्पी आंटी कैसे बन गयीं?

मंजरी बुआ की इकलौती जहीन बेटी शोभा ने जीवन में अच्छा मुकाम हासिल किया, लेकिन किसी सिरफिरे ने उसकी हत्या कर दी। दुख से भरी मंजरी बुआ हैप्पी आंटी कैसे बन गयीं?

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मंजरी बुआ की इकलौती जहीन बेटी शोभा ने जीवन में अच्छा मुकाम हासिल किया, लेकिन किसी सिरफिरे ने उसकी हत्या कर दी। दुख से भरी मंजरी बुआ हैप्पी आंटी कैसे बन गयीं?

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हर बार अपने देश में काफी परिवर्तन देखती हूं- सार्थक परिवर्तन। जब वापस अमेरिका जाती हूं और बताती हूं कि ऊंची-ऊंची इमारतों, सड़कों के साथ व चमचमाते मॉल्स में बिक रहे यहीं के ब्रांड्स ने आश्चर्यचकित कर दिया। भारत को विकसित देशों के मापदंड में आगे बढ़ने की बातों से मेरा स्वर गर्व भरे लय में झूमने लगता है।

इस बार बात कुछ अलग है। अपने देश की मिट्टी सूंघने की तृप्ति के साथ एक शोकाकुल भावना ने मन को घेरा हुआ है। इस बार दृष्टि नहीं उठ रही है मेरे आसपास हो रहे विकास की ओर। आंखों के समक्ष शोभा और मंजरी बुआ के चेहरे घूम रहे हैं। मिलने तो जा रही हूं, पर क्या कहूंगी, कैसे देखूंगी उनकी आंखों में। मुझे तो सांत्वना देना भी नहीं आता, उस पर इतनी कारुणिक स्थिति, मैं स्वयं बहुत नर्वस हो रही हूं। लेकिन मिलना तो होगा, और मिलने का मन भी है। मां के कहने पर अब तक नहीं आयी, जैसा बुआ चाहती थीं, उन्हें संभलने का समय दिया। पर अब जब मिलूंगी तब कैसे सामना करूंगी उनका।

मंजरी बुआ और उनकी बेटी शोभा से मेरा बहुत लगाव रहा शुरू से ही। हालांकि शोभा मुझसे उम्र में काफी छोटी थी , मगर उसकी और मेरी अच्छी घुटती थी। मंजरी बुआ की इकलौती बेटी शोभा। देखने में सामान्य कद-काठी, छोटे कटे बाल, खिलता हुआ रंग और खुली-खुली आंखों पर चश्मा। पढ़ाई-लिखाई में अत्यंत मेधावी। बुआ-फूफा भी उसकी शिक्षा के प्रति कितने जागरूक थे। बुआ ने सदैव शोभा के परिश्रम में उसकी मदद की थी, कभी ओलंपियाड की परीक्षा दिलवाने ले जा रही होतीं, तो कभी किसी क्विज में भाग दिलवाने, तो कभी विवेकानंद मेमोरियल की भाषण प्रतियोगिता में हिस्सा लेने। पढ़ाई के साथ शोभा ने सेमी क्लासिकल संगीत की दीक्षा भी प्राप्त की। मंजरी बुआ भी अपने जमाने की होनहार छात्रा रही थीं। परंतु विवाहोपंरात ससुराल की जिम्मेदारियां निभाते हुए उन्हें कभी अपने लायक नौकरी करने का अवसर नहीं मिला। घर-गृहस्थी की चादर के नीचे छटपटाती रही उनकी आकांक्षाएं। इसीलिए वे यह मानती थीं कि लड़कियों को कोई ना कोई ऐसा हुनर भी सीखना चाहिए, जिससे यदि भविष्य में उन्हें घर में ही रहना पड़े, तब भी वे कुछ करने की अपनी इच्छा पूर्ण कर सकें। शोभा सदा उनकी सभी अपेक्षाओं पर खरी उतरी थी। हमेशा अव्वल आने वाली शोभा को नौकरी भी कॉलेज प्लेसमेंट से मिल गयी थी। एमबीए की डिग्री प्राप्त करते ही कॉलेज में कैंपस प्लेसमेंट हेतु आयी कंपनियों की चयन सूची में उसका नाम चमकने लगा। उन दिनों भी मेरा एक चक्कर लगा था भारत में। मुझे याद है सभी प्रसन्न थे शोभा की उपलब्धि पर।

‘‘इतनी अच्छी नौकरी की उम्मीद नहीं थी मुझे,’’ मंजरी बुआ के कथन पर शोभा बोल उठी थी, ‘‘क्यों? आपको संशय था मेरी काबिलियत पर?’’

‘‘अरे नहीं बिटिया, संशय कैसा, हमें तुझ पर यकीन भी है और गर्व भी,’’ फूफा जी ने प्यार से समझाया था, ‘‘लेकिन नौकरी इसी शहर में लग जाती तो और भी खुशी होती मुझे।’’

‘‘इस शहर में भी आ जाएगी आपकी शोभा, कुछ दिन उसे दूसरे शहर में नौकरी कर लेने दीजिए। फिर जब काम का थोड़ा अनुभव हो जाएगा, तब यहां किसी अच्छी फर्म में नौकरी ढूंढ़ लेगी,’’ मैंने उन्हें समझाया था।

शोभा की पैकिंग करवाते समय मैंने उससे पूछा, ‘‘क्या सभी क्लासमेट्स की नौकरियां लग गयीं।’’

‘‘हां दीदी, सिर्फ वे बचे हैं, जो नौकरी करना चाहते ही नहीं। एक है, जो स्टार्टअप शुरू करना चाहता है। मेरे पीछे लगा है कि मैं उसकी पार्टनर बन जाऊं,’’ शोभा ने मुझे अकेले में बताया था।

‘‘आइडिया बुरा नहीं है, आजकल स्टार्टअप का जमाना है। अमेरिका में कितने ही युवक नित नए ऐप निकालते रहते हैं। और अब तो भारतीय सरकार भी इस ओर ध्यान दे रही है। फंड्स मिल जाएं, तो अपना काम करने में फायदा है। यदि चल पड़ा, तो पौ बारह।’’

‘‘पर दीदी, मुझे उसकी नीयत ठीक नहीं लगती। वह केवल काम के कारण मुझसे पार्टनरशिप करने में इंटरेस्टेड नहीं है, कुछ और भी है...’’

‘‘ओ हो, मामला कुछ और है,’’ मेरी ठिठोली को फौरन विराम लगाया था उसने, ‘‘पर मेरे मन में ऐसा कुछ नहीं है उसके लिए। इन फैक्ट, इस समय मैं केवल अपने कैरिअर की तरफ ध्यान देना चाहती हूं, अभी किसी और रिश्ते की तरफ देखने में मुझे कोई रुचि नहीं है। वैसे भी उसके और मेरे विचार बिलकुल मेल नहीं खाते हैं, मैं तो उससे इरिटेट हो जाती हूं। किंतु यह बात वह समझता ही नहीं है। कितनी बार कह चुकी हूं, घुमा-फिरा कर भी और सीधे शब्दों में भी, पर वह है कि... तंग आ गयी हूं मैं उससे।’’

‘‘चलो फिर तो अच्छा ही है कि तुम्हारी नौकरी तुम्हें दूसरे शहर ले जाएगी। उससे पीछा छूट जाएगा।’’
शोभा के जाने के पश्चात कुछ दिनों रह कर मैं भी वापस अमेरिका लौट आयी थी। फिर उस दिन मां ने फोन पर जो खबर मुझे दी, उसने मेरे पांव तले की जमीन खींच ली। सब कुछ व्यवस्थित होने की दिशा में अग्रसर था कि यह क्या हो चला। मुझे मां से पता चला था कि किसी सिरफिरे ने दिनदहाड़े शोभा की हत्या कर दी है। हत्यारा उसके कॉलेज में ही पढ़ता था। एकतरफा प्यार को जुनून की हद तक ले गया था वह। शोभा ने कई बार उसके प्रस्ताव को ठुकराया था, उसे समझाने का प्रयास भी किया था कि वह उसे पसंद नहीं करती है। फिर शोभा की नौकरी लग गयी थी और वह इस प्रकरण को भुला बैठी थी। सोचा होगा कि वह भी बात को समझ गया होगा। कौन ऐसा सोचता है कि अपने साथ इतना गलत हो सकता है, कि कोई सिरफिरा पीछे लग कर इतने परिश्रम से बनाया जीवन यों एक पल में बर्बाद कर सकता है। अपने शहर आयी शोभा जब एक शाम बाजार से अपने घर लौट रही थी, तब उस हत्यारे ने अचानक घेर कर चाकू के वार से इतना घायल कर दिया कि डॉक्टर उसे बचा ना सके।

उफ ! ये क्या हो गया था। अवश्य यह वही होगा, जिसका जिक्र शोभा ने मुझसे किया था। जो हृदय विदारक पीड़ा हुई मुझे, उसका अहसास आज भी है। शोभा की असमय आकस्मिक मृत्यु से कितनी टूट गयी होंगी मंजरी बुआ। मैं उसी क्षण उनके पास आना चाहती थी, पर मां ने कहा था कि बुआ को एकांत में रहने की इच्छा है।

मैं फोन पर मां से बुआ-फूफा की स्थिति के बारे में पूछती रहती। मां मुझे फोन पर बताती थीं कि बेचारे बुआ-फूफा की उन दिनों क्या हालत थी। एक तरफ इकलौती, होनहार बिटिया के यों चले जाने का सदमा और दूसरी ओर उस हत्यारे के पकड़े जाने पर कोर्ट-कचहरी के चक्कर। चूंकि वह वहीं घटनास्थल पर रंगे हाथों पकड़ा गया था, और भीड़ में कई चश्मदीद गवाह भी थे, सो उसको सजा हो गयी। नुकसान की भरपाई तो संभव नहीं, पर गुनहगार को सजा मिली, इससे मेरे मन को थोड़ी राहत अवश्य मिली थी।

इस बात को अब 2 वर्ष बीत चुके थे। इस हादसे के बाद पहली बार मिलूंगी बुआ से। पता नहीं मैं क्या बात कर पाऊंगी, सोच में गुम थी कि ड्राइवर ने कहा, ‘‘मैडम, आपकी जगह आ गयी।’’ विचार तंद्रा भंग हुई, तो आसपास देखा।

बुआ की सोसाइटी के गेट पर सिक्योरिटी गार्ड ने रजिस्टर में एंट्री करवा कर उनकी बिल्डिंग की ओर इशारा करते हुए हमें अंदर प्रवेश करने दिया। आसपास 3 बिल्डिंग जुड़ी हुई थी- कौन सी बिल्डिंग होगी बुआ की। कुछ बच्चे पार्क में खेल रहे थे, सोचा उन्हीं से पूछ लेती हूं।

‘‘बच्चो, यहां ए-311 कौन सी बिल्डिंग में पड़ेगा,’’ मैंने एक झुंड से पूछा।

‘‘किसका घर आंटी, ए-311... हैप्पी आंटी का घर,’’ उनमें से एक ने पलट कर पूछा।

‘‘हैप्पी आंटी,’’ हाल ही में इतने बड़े हादसे से गुजरी एक मां के लिए ऐसा संबोधन सुन मेरा चौंकना स्वाभाविक था। गलती कर रहे होंगे ये बच्चे।

इतने में बेबी स्ट्रोलर में अपने शिशु को घुमाती एक स्त्री मेरे पास आयी। मेरे चेहरे पर असमंजस के भाव देख वह बच्चों की बात मुझे समझाने लगी, ‘‘आप मंजरी आंटी का घर पूछ रही हैं ना। उन्हें बच्चे हैप्पी आंटी ही बुलाते हैं। दरअसल, वे हमेशा खुश जो रहती हैं। बच्चों को टॉफी बांटती हैं, उन्हें कहानियां सुनाती हैं। यहां तक कि स्वतंत्रता दिवस, जन्माष्टमी, दशहरा आदि पर सोसाइटी में जो उत्सव मनाए जाते हैं, उनमें बच्चों का नाच-गाना भी तैयार करवाती हैं। बच्चों की फेवरेट आंटी है वे,’’ कहते हुए उसने मुझे बुआ का घर दूर से दिखा दिया।

मैं बहुत हैरान थी। क्या कह रहे हैं सब ! तो क्या बुआ को शोभा के चले जाने का कोई सदमा नहीं। वे तो हैप्पी आंटी के नाम से प्रसिद्ध हैं अपनी सोसाइटी में। मेरे मन के ये विचार संभवतः इंसानी फितरत की देन थे। जो हमारी सोच पर खरे नहीं उतर रहा, उसकी आलोचना करने में हम अधिक समय नहीं लेते। छिद्रान्वेषण कर वर्गीकरण करने में जल्दबाजी करना शायद मानुषी प्रकृति का हिस्सा है।

बुआ ने ही दरवाजा खोला। बहुत खुश हुईं वे मुझे देख कर, गले लगीं। मैं थोड़ी चुप रही। आखिर मैं शोक प्रकट करने आयी थी। उनकी मेड पानी, चाय आदि लाने लगी। बुआ मेरे हालचाल पूछती रहीं। बस, मैं ही कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी। निराशाजनक वार्तालाप से मैं घबरा रही थी। किंतु कुछ देर के बाद कमरे में लगी शोभा की हंसती हुई फोटो देख मैंने हिम्मत जुटायी, ‘‘बुआ, शोभा का सुन के बहुत दुख हुआ... इतनी मेहनत की उसने अपनी जिंदगी में... और अब जब सुख उठाने के दिन आ रहे थे तो यों अचानक...’’

मेरे वाक्यों ने मंजरी बुआ के चेहरे पर दुख की छाया ला दी। संताप की उस घड़ी में मैंने बुआ के हाथों पर अपने हाथ रख दिए। उनकी आंखें छलक गयीं, ‘‘कई बार लगता है कि दूसरे कमरे से आएगी मेरी शोभा। उसकी खुशबू से आज भी महकता है यह घर।’’

तभी उनकी मेड ने खाना लगा कर बुलाया। वे फौरन उठ गयीं। माहौल में बदलाव आ गया। फिर ना बुआ ने और ना ही मैंने शोभा के अध्याय को पुनः छेड़ना ठीक समझा।

खाने के पश्चात मैंने एक और हिम्मत की, ‘‘बुआ, ये सोसाइटी के बच्चे आपको हैप्पी आंटी पुकारते हैं।’’
धीमी ढली हुई सी व्यंग्यात्मक मुस्कान लिए उन्होंने मेरी बात दोहरायी, ‘‘हैप्पी आंटी...’’ फिर कुछ क्षण चुप रह कर वे आगे बोलीं, ‘‘तुम्हें याद होगा कि शोभा अपने कैरिअर को ले कर कितनी सचेत थी। बचपन से पढ़ाई में तल्लीन रही, यहां तक कि टीवी भी कम ही देखती थी। हम कहीं आते-जाते या कोई मेहमान घर आता, तो पढ़ाई का समय व्यर्थ होने की बात करती। हो सकता है उसमें ये भावना मुझसे ही आयी हो। इकलौती संतान होने के कारण मैं अपनी सारी आकांक्षाएं उसके माध्यम से पूरी होते हुए देखती थी। मैं स्वयं भी उसके कैरिअर को ले कर बहुत ही विचारशील रहती थी। इस पढ़ाई का उसने भरपूर फायदा उठाया- अच्छी शिक्षा प्राप्त की, अच्छी नौकरी पायी।

‘‘फिर वो हादसा... और हमारी पूरी दुनिया उजड़ गयी। सारे सपने चकनाचूर हो गए। सारी जिंदगी की मेहनत का फल चखने का समय जब आया, तो मेरी बच्ची इस संसार से चली गयी। वह कुछ नहीं देख पायी। केवल परिश्रम ही उसकी झोली में आया, उसका सुखद परिणाम नहीं। इतनी मेहनत उस जीवन को संवारने के लिए जो कब रेत सा फिसल गया, पता ही नहीं चला।

‘‘कई महीनों तक हम दोनों लाशों की तरह जिए। यंत्रचालित से सांस लेते रहे, एक ड्यूटी की तरह खाना खाते रहे, शोक प्रकट करने वालों के सामने गमगीन बैठते और अकेले में छुप कर आंसू बहाते। मन की इस उदासी को दूर करने का कोई कारण, कोई बहाना सामने नहीं आ रहा था। बस अब अपनी इहलीला समाप्त होने की प्रतीक्षा रहने लगी।

‘‘एक शाम मैं बालकनी में उदास खड़ी थी। नीचे एक किशोरी व उसकी मां जा रहे थे। मां अपनी बेटी को सुनहरे भविष्य हेतु परिश्रम करने के लिए समझाती जा रही थी। तब मेरा ध्यान इस ओर गया कि बच्चे अपना बचपन ना जी कर, केवल पढ़ाई ट्यूशन, किसी खेल की ट्रेनिंग में लगे रहते हैं। और मैंने ठान लिया कि शोभा ना सही, अन्य बच्चों को मैं जितना रिलैक्स कर पाऊं, उनके बचपन में जितने अलग-अलग रंग जोड़ पाऊंगी, करूंगी। तब से मैंने बच्चों को नाच-गाना सिखाना, कोई कविता पाठ करवाना, कभी कोई चित्रकारी प्रतियोगिता, तो कभी उनमें रेस लगवाना आरंभ कर दिया। उनके जीवन के साथ मेरा जीवन भी सुधरने लगा...’’ बुआ और भी बहुत कुछ बताती रहीं और मैं सुनती रही।

इतने बड़े आघात के पश्चात मंजरी बुआ ने वह कर दिखाया था, जो कठिन अवश्य है, लेकिन नामुमकिन नहीं। अपना दर्द भुला कर उन्होंने समाज की नींव बच्चों काे थोड़ी खुशी प्रदान करने का बीड़ा अकेले ही उठा लिया था। दुर्भाग्यवश यदि जीवन में कोई हादसा गुजर जाए, तो क्या हम वहीं रुकें, केवल खेद मनाते हुए शेष जीवन व्यर्थ कर दें। वाकई इस संकुचित सोच से बाहर आने की आवश्यकता है। अनायास ही मुझे अपने दादा जी के शब्द याद हो आए- बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले। आज मंजरी बुआ के कथन ने उनकी बदली सोच को मेरे समक्ष उजागर किया था, जिसने मेरे अंदर एक नया दरीचा खोला था।