याद कीजिए बचपन के वे दिन, जब आंगन में ढेरों गौरैया फुदक-फुदक कर दाना चुगती नजर आती थीं और हम उन्हें देख-देख कर पुलकित होते थे। अफसोस, अब तो ना वैसे आंगन रहे, ना ही गौरैया की चहलपहल। लेकिन नन्ही सी जान गौरैया और हम इंसानों के बीच कोई ना कोई नाता जरूर रहा है, तभी तो गौरैया उन तमाम जगहों पर पायी जाती है, जहां इंसान होते हैं। इनकी कम होती संख्या पर पर्यावरणविद चिंतित हैं। ब्रिटेन की रॉयल सोसाइटी ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स ने दुनियाभर से जुटाए गए आंकड़ों के आधार पर गौरैया को रेड लिस्ट में डाल दिया है। शायद इन्हें बचाने की जुगत में ही दिल्ली सरकार ने वर्ष 2012 में गौरैया को अपनी स्टेट बर्ड घोषित किया है।
क्यों कम हो रही है गौरैया
एक अनुमान के मुताबिक गौरैया की संख्या में तकरीबन 60 फीसदी की कमी आयी है। गौरैया को गिद्ध के बाद दूसरा सबसे संकटग्रस्त पक्षी माना जा रहा है। इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च के सर्वे में यह सामने आया कि आंध्र प्रदेश में गौरैया की संख्या में 80 प्रतिशत तक गिरावट आयी है। आज इनके लिए सबसे बड़ा खतरा मोबाइल फोन और उसके टावरों से निकलने वाली रेडियोएक्टिव तरंगें है। इन दिनों जिस रफ्तार से ये टावर जगह-जगह इंस्टॉल किए जा रहे हैं, आने वाले कुछ सालों में गौरैया और इसके जैसे छोटे पक्षियों का नामोनिशान ही मिट जाने का अंदेशा है। इनके गायब होने की बड़ी वजह में शामिल हैं इनके चुगने के लिए दानों की कमी, पेड़ों की कम होती संख्या जो इनका आशियाना बनते हैं, अनाज के उगाने और स्टोरेज में हानिकारक पेस्टिसाइड्स का इस्तेमाल। इन्हें घास के बीज पसंद हैं, लेकिन शहरों में तो छोडि़ए गांवों में भी घास उगनी कम हुई है। उनके घोंसले सुरक्षित जगहों पर नहीं होने की वजह से उनके अंडे चील-कौए खा जाते हैं। पहले कच्चे-पक्के खपरैल मकान बनते थे, जिनमें गौरैया अपना घोंसला बना लेती थी, लेकिन अब गांव हो या शहर, हर जगह कंक्रीट की इमारतें बन रही हैं, जिनमें उनके घोंसले की जगह नहीं है। यह नन्हा सा पंछी अधिक गरमी बर्दाश्त नहीं कर सकता और वातावरण में बढ़ती गरमी से हम सभी वाकिफ हैं। इस तरह ग्लोबल वॉर्मिंग भी गौरैया की आबादी घटने का कारण है। इनकी स्थिति को देखते हुए यह कहना गलत ना होगा कि जैसे-जैसे हम विकास करते जा रहे हैं, गौरैया की गिनती कम होती जा रही है। दुनियाभर के पर्यावरणविदों की कोशिशों का ही नतीजा है कि सन 2010 में पहली बार विश्व गौरैया दिवस मनाया गया और तबसे हर साल 20 मार्च को वर्ल्ड स्पैरो डे के रूप में मनाया जाने लगा है, ताकि लोगों में इस मासूम पक्षी के अस्तित्व को बचाने को ले कर जागरूकता पैदा हो।
बेहद खास है यह गौरैया
गौरैया दुनियाभर में खासकर यूरोप और एशिया में आमतौर पर हर जगह पायी जाती है। जहां-जहां इंसानी बस्ती है, वहां-वहां गौरैया जरूर मिलती है। मजे की बात है कि इसने खुद को इंसानों के हिसाब से ढाल लिया यानी जैसा देश वैसा वेश। गौरैया के बारे में कुछ खास बातें जानना दिलचस्प रहेगा। नर गौरैया के सिर का ऊपरी हिस्सा, नीचे का हिस्सा और गालों का रंग ब्राउन होता है। उनके गले, चोंच और आंखों का रंग काला होता है, जबकि मादा गौरैया के सिर और गले पर ब्राउन कलर नहीं होता। यह पंछी 14 से 16 संटीमीटर लंबा और लगभग 25 से 35 ग्राम का होता है। समूह में रहना पसंद करनेवाली गौरैया आमतौर पर अपने घोंसले से ढाई किलोमीटर के दायरे में ही उड़ान भरती है। इनका जीवनकाल करीब 3 साल का होता है।
गौरैया 6 किस्म की पायी जाती हैं- हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंड स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो और ट्री स्पैरो। घरों में चहचहाने वाली गौरैया हाउस स्पैरो कहलाती है। स्थान विशेष के वातावरण के अनुरूप इनके आकार-प्रकार में बदलाव हो जाता है।
घरेलू गौरैया आमतौर पर अनाज खाती है, लेकिन जब अपने बच्चों को पाल रही होती है, तो कीड़े खा कर जिंदा रहती है। जंगली गौरैया वहां उगने वाले फलों के बीज और घासफूस पर गुजर बसर करती है।
गौरैया हमारे लिए बेहद खास है। यह नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े-मकोड़ों को खा कर हमें सुरक्षित रखती है। फसलों के लिए हानिकारक कीट-पतंगों को खेतों में खा कर यह फसल की रक्षा करती है। पर्यावरण में संतुलन बनाए रखने में गौरैया का भी कम योगदान नहीं है।
दुनियाभर में मिलती है गौरैया
गौरैया दुनियाभर में सबसे अधिक पाए जानेवाले पक्षियों में से एक है। माना जाता है कि खेतीबाड़ी के विकास के साथ-साथ गौरैया भी अस्तित्व में आती गयी। इसका विकास सबसे पहले मध्य-पूर्व में हुआ था और फिर वहीं से यूरोप और एशियाई देशों में इसकी चीं-चीं गूंजी। इसके बाद ही यह ऑस्ट्रेलिया और उत्तरी अमेरिका जा पहुंची। 19वीं सदी के आखिर में एक कलाकार ने अमेरिका में शेक्सपियर के नाटकों में गौरैया को भी नाटकों का किरदार बनाना चाहा था। इस तरह मान सकते हैं कि यूजीन शीफेजिन नाम के इस आर्टिस्ट ने ही अमेरिका से गौरैया की पहचान करायी।
नॉर्वे की ओस्लो युनिवर्सिटी के साइंटिस्ट मार्क रविनेट ने गौरैया पर काफी रिसर्च की हैं। मार्क इसके विकास के तरीके के आधार पर कहते हैं कि ब्रिटेन की क्वीन विक्टोरिया के जमाने के लोग ही गौरैया को उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया ले गए, क्योंकि उन दिनों इन देशों में ब्रिटिश साम्राज्य फैला था। ये अफसर गौरैया को अपने बाग की साथी मान कर इन्हें अपने साथ ले गए, ताकि इनकी चीं-चीं सुन कर उन्हें दूर देश में भी अपनेपन का अहसास होता रहे।
कैसे बचाएं इस नन्ही जान को
गौरैया बहुत ही नाजुक पक्षी है। छोटी सी कोशिश से ये बच सकती हैं। गरमियों में बालकनी, खिड़की या आंगन में उनके पीने के लिए पानी रखें। उनके घोंसले को उजाड़ें नहीं। उनके लिए खाली डिब्बों, मटकों से भी घोंसले बना सकते हैं। उनका घोंसला ऐसी जगह पर हो, जहां उनके अंडे सेफ रहें। उन्हें नमकवाला खाना ना दें, क्योंकि इससे उन्हें नुकसान पहुंच सकता है। आइए, आज से ही कुछ ऐसा करें, जिससे एक बार फिर से गौरैया के झुंड के झुंड हमारे घर-आंगन में चहचहा सकें।