Thursday 26 August 2021 03:15 PM IST : By Indira Rathore

हरी उम्मीद संजोते लोग

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जब दुनियाभर में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को ले कर बहसें हो रही हों, मुठ्ठीभर लोग हरियाली संवारने की मुहिम में जुटे हैं। प्रकृति के ये हरकारे न सिर्फ आसपास के परिवेश को हरा-भरा कर रहे हैं बल्कि लोगों तक संदेश भी पहुंचा रहे हैं कि वक्त अब थोड़ा पीछे लौटने, पेड़ों, जंगलों और नदियों को बचाने का है। मौसम बरसात का है, ऐसे में हरी उम्मीदों को संजोते चंद लोगों से मिलिए। 

कैसे पेड़ लगाए जाएं, यह जानना भी जरूरी - अनिल प्रकाश जोशी (पद्मभूषण प्राप्त पर्यावरणविद, उत्तराखंड)

anil-prakash वनस्पति वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता और हिमालयन पर्यावरण अध्ययन और संरक्षण संगठन (हेस्को) के संस्थापक अनिल प्रकाश जोशी को उत्तराखंड में वॉटर रिचार्जिंग मॉडल, जलछिद्र, तालाब और चैकडैम जैसे प्रयोगों के लिए जाना जाता है। उन्हें अपने कार्यों के लिए पद्मभूषण, पद्मश्री और जमनालाल बजाज जैसे तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं।

वनस्पति वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता और हिमालयन पर्यावरण अध्ययन और संरक्षण संगठन (हेस्को) के संस्थापक अनिल प्रकाश जोशी को उत्तराखंड में वॉटर रिचार्जिंग मॉडल, जलछिद्र, तालाब और चैकडैम जैसे प्रयोगों के लिए जाना जाता है। उन्हें अपने कार्यों के लिए पद्मभूषण, पद्मश्री और जमनालाल बजाज जैसे तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं। 

हमारी स्थिरता का सबसे बड़ा कारण हमारे जंगल हैं। जब हम हरियाली और पर्यावरण संरक्षण की बात करते हैं, तो हमें यह भी देखना होगा कि हम जो जंगल-पेड़ लगा रहे हैं, वे वैज्ञानिक तरीके से लगा रहे हैं या नहीं। केवल पेड़ लगा देने से काम नहीं चलेगा। हमें बरसों पुरानी अपनी वन नीति को बदलना होगा। आज हम पहाड़ी जंगलों में आग लगने जैसी घटनाओं का सामना कर रहे हैं। इसका बड़ा कारण यह है कि चीड़ के वन अधिक हैं, जिसमें आग तेजी से फैलती है। वन पानी, तापक्रमों, मृदा से जुड़े होते हैं, इसलिए वन लगाने में हर चीज का ध्यान रखा जाना चाहिए। 

हमने हेस्को गांव बनाया है। पहले यहां एक नदी थी, जो सूख चुकी थी। इसका कारण यह था कि यह वर्षाजनित थी, क्योंकि इनके जलागम बेहतर वन वाले नहीं होते। चीड़ के जंगलों में जलकुंड और जलछिद्र बना कर ही पारिस्थितिकी परिवर्तन संभव हो सकता है। आज अगर हम जंगल लगा रहे हैं, तो अगले 10 सालों में ये हमें बेहतर परिणाम देंगे। हमने 40-45 हेक्टेयर जमीन में जलछिद्र बनाए। इससे चमत्कार हो गया। पानी की वापसी 10 साल के भीतर हो गयी। पानी जलछिद्रों में जमा हुआ, फिर इसे पत्थर लगा कर रोका गया, ताकि बेवजह यह ना बहे। नमी बढ़ी, तो इस इलाके में स्वतः वनों की वापसी हुई। यहां अब साल का सुंदर जंगल बन गया है। इसमें आग नहीं लगती, नीचे नदी है, तो हमेशा नमी बनी रहती है। इसी प्रयोग को आधार बना कर वन विभाग ने भी प्रयास किए। अब लोग जगह-जगह गड्ढे खोद रहे हैं, तालाब बना रहे हैं, क्योंकि इससे ही आपदाओं से बचा जा सकता है।

पहाड़ में चीड़ के जंगलों से समस्याएं होती हैं, लेकिन हम जंगल काटने के पक्ष में नहीं हैं और हमने ऐसा इकोलॉजिकल परिवर्तन किया, ताकि यहां दूसरे पौधे पैदा हों। जलछिद्रों को बनाने का भी तरीका वैज्ञानिक होना चाहिए। बायोलॉजिकल डायवर्सिटी बड़ा सवाल है। हमने 2010-11 में काम शुरू किया और 10 सालों में बदलाव करके दिखाया। हिमालय में 3 क्षेत्र हैं। नीचे साल, उससे ऊपर बांज और सबसे ऊपर चीड़-देवदार होते हैं। सबसे ज्यादा खतरा चीड़ के इलाकों में ही पैदा हुआ। जरूरत इस बात की है कि प्रकृति को वैज्ञानिक ढंग से समझें, ताकि वह सुंदर बनी रहे, पानी भी मिलता रहे। जरूरी यह भी है कि इकोनॉमी के साथ इकोलॉजी की बात भी करें। हवा, मिट्टी,जंगल, पानी को इतने साल में कितना बेहतर किया, इसका आकलन भी होना चाहिए। 

पॉलीथिन फ्री हो शहर अपना तभी पूरा होगा हरियाली का सपना - उपेन्द्र और सोना पांडे, रामगढ़ (झारखंड)

Upendra-2 ये हैं शिक्षक दंपती उपेन्द्र और सोना पांडे। अपने शहर को हरा-भरा रखने की मुहिम चला रहे हैं। वे शहरभर से प्लास्टिक लेते हैं और बदले में लोगों को देते हैं खूबसूरत हरे पौधे। उनकी मुहिम का नाम है- प्लास्टिक दो-पौधे लो।

ये हैं शिक्षक दंपती उपेन्द्र और सोना पांडे। अपने शहर को हरा-भरा रखने की मुहिम चला रहे हैं। वे शहरभर से प्लास्टिक लेते हैं और बदले में लोगों को देते हैं खूबसूरत हरे पौधे। उनकी मुहिम का नाम है- प्लास्टिक दो-पौधे लो। अपने क्षेत्र को प्लास्टिक मुक्त देखने की उनकी मुहिम रंग लाने लगी है। इसमें उनके परिवार के साथ ही उनके छात्र भी शामिल हैं।

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एक बार मैं परिवार के साथ दिल्ली गया था, वहां प्रदूषण के कारण हमारी हालत खराब हो गयी थी। हम जब वापस अपने शहर लौटे, तो सोचा कहीं हमारे शहर का हाल भी दिल्ली जैसा ना हो जाए, इसके लिए अभी से कुछ करना चाहिए। तब मेरी पत्नी के दिमाग में खयाल आया कि क्यों ना अपने घर से ही इसकी शुरुआत की जाए। हमने घर के हेल्पर्स और आसपड़ोस के कुछ घरों से यह शुरुआत की। हमारे घर में पहले से गार्डन था, जिसे हमने और बढ़ाया। हमने लोगों से कहा कि वे हमें प्लास्टिक दें, तो हम बदले में पौधे देंगे। अभी हमारे पास 10 हजार से भी ज्यादा पौधों की किस्में हैं। हमारा पूरा परिवार, माली और हमारे इंस्टिट्यूट के छात्र मिल कर इसमें श्रमदान करते हैं। 

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कुछ समय पहले हमने यहां के सरकारी हाईस्कूल गांधी मेमोरियल स्कूल में भी पौधे लगाए। आज यह स्कूल हरा-भरा हो गया है। कई अन्य स्कूलों में भी धीरे-धीरे यह काम शुरू कर रहे हैं। छात्र देश का भविष्य हैं, अगर उन्हें शुरुआत से पेड़-पौधे लगाने को प्रेरित किया जाए,तो इससे हरियाली की उम्मीदें बढ़ सकती हैं।

आसपास फूल-पौधे लगा कर मिलती है खुशी - गिरीश शर्मा, दिल्ली (एनसीआर)

hariyali-3 दिल्ली-एनसीआर में कुछ लोग सफाई करते, पौधे लगाते या उन्हें पानी देते नजर आते हैं। ये सभी सफाई एक्सप्रेस और मिशन फुलवारी जैसे संगठन के सदस्य हैं, जिन्होंने अपने इलाके को स्वच्छ और हरा-भरा बनाने की मुहिम छेड़ी है।

दिल्ली-एनसीआर में कुछ लोग सफाई करते, पौधे लगाते या उन्हें पानी देते नजर आते हैं। ये सभी सफाई एक्सप्रेस और मिशन फुलवारी जैसे संगठन के सदस्य हैं, जिन्होंने अपने इलाके को स्वच्छ और हरा-भरा बनाने की मुहिम छेड़ी है।

संगठन के प्रमुख सदस्य गिरीश शर्मा बताते हैं कि उन्होंने वर्ष 2013 से अपने परिवेश की सफाई का जिम्मा लिया। इसमें आसपास के लोगों ने भी सहयोग दिया। इसके बाद इन्होंने मिशन फुलवारी के नाम से एक मुहिम चलाई। गिरीश शर्मा कहते हैं, ‘‘हमारा ग्रुप अब तक हजारों फूल, मेडिसिनल पौधे और श्रग लगा चुका है। हम हफ्ते में 3 दिन फूल लगाते हैं, 2 दिन उन्हें पानी देने या उनकी देखभाल करने का काम होता है। परिवार अपने घर के आसपास 100-200 मीटर के दायरे में पौधों की देखभाल का जिम्मा उठाता है। लॉकडाउन के दौरान लोग घरों पर थे, उनके पास समय था, तो बहुत लोग आगे आए। हम अजनबियों और मॉर्निंग वॉकर्स से भी हेल्प लेते हैं। ज्यादातर पौधे ऐसे हैं, जिन्हें कम देखभाल की जरूरत होती है। हम एक-डेढ़ किलोमीटर की सड़क के किनारे फुलवारी लगा रहे हैं। जूटवाली रस्सी से हलका बाड़ा भी बनाते हैं, ताकि पौधे सुरक्षित रह सकें। अभी 40-50 लोग इस मुहिम में जुटे हैं। कई लोग स्वेच्छा से पौधे या पैसे भी देते हैं। बच्चों को भी छुट्टीवाले दिन कुछ जिम्मेदारियां दी जाती हैं।’’

हर इंसान को अपने हिस्से की हरियाली बोनी चाहिए - पीपल बाबा ( दिल्ली)

peepal-baba दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, पंजाब और हरियाणा जैसे कई राज्यों में लोग पीपल बाबा को जानते हैं। वैसे इन्हें स्वामी प्रेम परिवर्तन के नाम से भी जाना जाता है।

दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, पंजाब और हरियाणा जैसे कई राज्यों में लोग पीपल बाबा को जानते हैं। वैसे इन्हें स्वामी प्रेम परिवर्तन के नाम से भी जाना जाता है। पीपल बाबा नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि इन्होंने अब तक हजारों पीपल लगाए हैं। हालांकि इन्होंने नीम, जामुन, शीशम, बबूल, कचनार, अनार भी खूब लगाए हैं। यहां तक कि लॉकडाउन के दौरान कुछ समय हरिद्वार में फंसे, तो वहां भी सैकड़ों पेड़ लगा दिए। उनका काम निरंतर जारी है। 

मेरा जन्म फौजी परिवार में हुआ और मेरा नाम आजाद रखा गया। पिता फौजी डॉक्टर थे। बचपन पुणे में बीता। मेरी नानी साथ में रहती थीं, जिन्हें खेती का शौक था। वह मुझे भी खुरपी-कुदाल दे कर छोटे-छोटे कामों में उलझाए रखतीं, शायद यहीं से प्रकृति प्रेम मेरे दिल में जागा। इसके बाद स्कूल में मुझे टीचर मिलीं, मिसेज विलियम्स, जो श्रीलंका की थीं, और ऐसे इलाके की रहनेवाली थीं, जहां घने जंगल थे। उन्हें पेड़-पौधों की गहरी जानकारी थी, जो वे हम स्टूडेंट्स से साझा करती थीं। उन्होंने मेरे शौक को मिशन में बदलने में बड़ी मदद की। वे अकसर कहतीं कि अगर सभी डॉक्टर-इंजीनियर बनेंगे, तो प्रकृति को कौन बचाएगा। कुछ ऐसा गहरा प्रभाव इन बातों का मन में पड़ा कि एक दिन नानी से कुछ पैसे लिए, नर्सरी जा कर पौधे खरीद लाया। मेरे बचपन के वे पौधे आज पुणे के कंटेनमेंट जोन में बड़े छांववाले पेड़ बन कर खड़े हैं। नानी की ही प्रेरणा थी कि मैं टीचिंग के प्रोफेशन में आया, जहां मुझे इतना समय मिलता है कि मैं प्रकृति के बारे में सोच सकूं। जीवन में टर्निंग पॉइंट तब आया, जब मैग्सेसे विजेता माइक पांडे ने मुझसे संपर्क किया। 2010 में अनसंग हीरोज नाम से एक अवॉर्ड समारोह हुआ, जहां जॉन अब्राहम के हाथों मुझे पुरस्कार मिला। जॉन ने मुझसे कहा कि मुझे बड़े स्तर पर इस काम को करना चाहिए। फिर मैंने ‘गिव मी ट्रीज’ नाम से एक ट्रस्ट बनाया। मैं किसी से पैसा नहीं लेता, लेकिन कोई खेती से जुड़ा सामान देता है, तो लेता हूं। स्कूल,युनिवर्सिटी, कॉलेज के अलावा सेना, बीएसएफ, सीआरपीएफ और मेरे दोस्तों ने मुझे बहुत मदद की।

लगभग 44 वर्षों में मैंने ज्यादातर पीपल और नीम ही लगाए हैं। एक बार राजस्थान के पाली जिले में किसानों के बीच गया और वहां पेड़ लगाने की मुहिम शुरू की, तो वहां के सरपंच ने मेरा नाम ही पीपल बाबा रख दिया, तब से सभी लोग मुझे इस नाम से बुलाने लगे। कोरोना के दौर में भी मेरा यह सफर थमा नहीं, पिछले साल 8 हजार से ज्यादा पेड़ मैंने लगाए। आज मेरे साथ देश से हजारों वॉलेंटियर्स जुड़ गए हैं। दिल्ली-एनसीआर, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि कई जगहों पर हमने पीपल, नीम, जामुन, शीशम,बड़, जंगल जलेबी, कनेर, बकाइन, कचनार, बबूल, अमलतास, दून, बेर, अर्जुन और अनार आदि लगाए। मैं इस मिशन में ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि घर से और स्कूलों से शुरुआत हो। कम उम्र में बच्चों में ऐसे संस्कार डाले जाएं कि वे पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हो सकें। हर इंसान को अपने हिस्से की हरियाली बोनी चाहिए। प्रकृति से जितना ले रहे हैं, उसका कुछ हिस्सा तो उसे लौटाएं। मैंने देखा कि भूटान, जापान, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, स्वीडन, फिनलैंड आदि तमाम जगहों पर सरकारों ने प्रकृति, कृषि,जंगलों और नदियों पर निवेश किया। विश्व गुरु बनने का रास्ता यही है।