Monday 08 November 2021 04:46 PM IST : By Gopal Sinha

छठ पूजाः क्याें और कैसे मनाया जाता है सूर्य की आराधना का यह पर्व

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अब छठ को केवल बिहार का पर्व नहीं कह सकते। देश के लगभग हर राज्य में ही नहीं, विदेशों में रहने वाले भारतीय भी सूर्य की पूजा का यह पावन अवसर बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं।आज से छठ पूजा की शुरुआत हो रही है, जो 11 नवंबर को सुबह के अर्घ्य के साथ संपूर्ण होगी। जानते हैं कि ऐसा क्या है इस पर्व में, जिससे यह इतना लोकप्रिय हो चुका है। पिछले साल तो कोरोना के कहर ने इस पर्व पर भी अपना असर दिखाया था, लेकिन इस बार हालात बेहतर हैं। 2020 में अधिकांश लोगों ने अपने घरों में ही पानी के भंडारण की व्यवस्था करके छठ पर्व मनाया था, लेकिन इस बार गंगा के घाटों पर भी जाने की तैयारी हो रही है। दीवाली के 6 दिन बाद होने वाले छठ पर्व में सूर्य की आराधना करके मानो हम सूर्यदेव के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। आस्था, पवित्रता और सामाजिक सौहार्द का संदेश देता यह पर्व कई मायनों में खास है।

जरूरी है पवित्रता

यों तो घर की साफ-सफाई का काम दीवाली से पहले ही शुरू हो जाता है, लेकिन छठ के लिए सफाई के साथ पवित्रता का होना भी जरूरी है। धुले घर-अांगन फिर से धोए जाते हैं। छत की सफाई का खास ध्यान रखा जाता है, क्योंकि छठ में चढ़ाए जानेवाले प्रसाद ठेकुआ के लिए गेहूं धो कर वहीं सुखाया जाता है। ठेकुआ बनाने के लिए बाजार से खरीदा आटा इस्तेमाल नहीं किया जाता। गेहूं को पीसने के लिए आटा चक्की की भी विशेष सफाई की जाती है।रसोई में प्रसाद बनाने के स्नान करके ही प्रवेश किया जाता है। अभी भी ज्यादातर घरों में मिट्टी के चूल्हे की व्यवस्था की जाती है, जिसमें सूखी लकडि़यां जला कर प्रसाद तैयार किया जाता है। आटा, चीनी या गुड़, घी और मेवों को सख्त गूध कर छोटे-छोटे गोले बनाए जाते हैं, जिन्हें लकड़ी के सांचे पर दबा कर ठेकुए बनाए जाते हैं। तैयार ठेकुए को गरम घी में सुनहरा तला जाता है।प्रसाद में ठेकुए के अलावा खोया, साबुत नारियल, गन्ना, कच्ची हल्दी, कच्चा अदरक, मेवे और मौसमी फल होते हैं।

शुभारंभ नहाय खाय यानी कद्दू भात से

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दीवाली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा और तीसरे दिन भैया दूज मनाया जाता है। उसके बाद पंचांग के हिसाब से एक या दो दिन बाद छठ पूजा की शुरुआत कद्दू भात से होती है।कद्दू भात यानी बिना प्याज-लहसुन की लौकी की सब्जी और अरवा चावल का भोजन स्नान करके पकाना और खाना। कार्तिक माह शुरू होने के साथ ही मांसाहार, प्याज-लहसुन आदि का प्रयोग बंद हो ताजा है। परवती यानी घर की प्रमुख बुजुर्ग महिला जो छठ व्रत रखती हैं, उनके साथ घर के सभी लोगों का उस दिन यही भोजन होता हे। खानपान में सात्विकता से विचार, कर्म में भी सात्विकता उपजती है, शायद उसके मूल में यही है। परवती इस दिन के बाद से छठ व्रत के समापन तक जमीन पर कंबल बिछा कर ही सोती है।

खरना यानी उपवास की शुरुआत

कद्दू भात के अगले दिन परवती दिनभर उपवास रखती है और संध्या काल में देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करती है। भगवान के भोग स्वरूप कहीं खीर-पूरी या रोटी, तो कहीं दाल-चावल साफ-सफाई के सख्त नियमों का पालन करके बनाया जाता है। इस दिन खासतौर से गुड़ की खीर भी बनायी जाती है, जिसे रसिया कहा जाता है। साथ में सभी मौसमी फलों का भी भोग लगता है। पूजा के बाद परवती भोग सामग्री से व्रत तोड़ती है, जिसे खरना कहा जाता है। दिलचस्प मान्यता है कि भोजन ग्रहण करने के दौरान परवती के कानों में कोई आवाज पड़ जाए, तो वह तुरंत भोजन करना बंद कर देती है। घर के सदस्य इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि व्रती निशब्द वातावरण में पेट भर कर भोजन कर ले, क्योंकि अगले दिन उसे पूरा दिन निर्जला उपवास रखना होता है। खरना के बाद सभी लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस प्रसाद को काफी महत्वपूर्ण माना जाता है और आसपड़ोस के जिन घरों में छठ पूजा नहीं होती, वे लोग भी इस प्रसाद को पाने के लिए आते हैं।

सूर्यास्त की प्रतीक्षा में

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तीसरा दिन काफी गहमागहमी भरा होता है, इसी दिन शाम को डूबते सूरज को अर्ध्य देने के लिए गंगा के तट पर, तालाबों के पास या घरों में पानी की व्यवस्था करके इकट्ठा होते हैं। सभी पूजन सामग्री को बांस से बने सूपों में सजा कर घाट तक ले जाते हैं। घाट पर सूर्य के अस्त होने की दिशा में क्रम से रख कर उन पर घी के दीये जला कर रखते हैं। परवती स्नान करके सूप ले कर पानी में खड़ी होती हैं और श्रद्धालु सूप के समक्ष सूर्य देवता को अर्घ्य देते हैं। सूर्य के अस्त होने तक यह सिलसिला चलता रहता है। 

उगते सूर्य को नमन

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छठ पूजा के चौथे दिन लोगबाग सुबह सवेरे जग कर स्नान कर घाटों पर जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। सूपों में ठेकुए, खोये जैसी सामग्री रात में ही बदल दी जाती है। पिछली शाम की तरह ही सूपों को उगते सूर्य की दिशा में रख कर दीपों से रोशन किया जाता है। सूर्य देव के उदय होते ही शाम की तरह परवती स्नान करके सूप ले कर खड़ी होती है और श्रद्धालु अर्घ्य देते हैं। उगते सूरज को अर्घ्य देने के साथ ही यह पावन व्रत संपन्न होता है और शुरू होती हैं पारिवारिक-सामाजिक सौहार्द की सुखद अनुभूतियां। जातपांत, धर्म भेद से ऊपर उठ कर सभी समुदाय के लोग इस पर्व का हिस्सा बनते हैं और प्रसाद ग्रहण करते हैं।परवती अपने भीगे अांचल से बच्चों के मुंह पोंछती हैं, कहते हैं इससे कोई चर्मरोग उन्हें नहीं होता।

हर वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को संपन्न होने वाले छठ पर्व की सबसे बड़ी विशेषता है कि इतना भव्य धार्मिक आयोजन होने के बावजूद इसमें ना तो किसी पुजारी की जरूरत होती है और ना ही किसी कठिन अनुष्ठान की। साफ-सफाई, पवित्रता और व्यक्तिगत आस्था के दम पर संपन्न यह पर्व आज के साइबर युग में परंपरा से जुड़ी उन चंद बातों को जीवित रख रही है, जो परस्परता और सामाजिकता की जीवन रेखा हैं।