Thursday 11 February 2021 02:39 PM IST : By Rashmi Kao

डर का नया चेहरा

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कोरोना काल में अपनी 70 प्लस की बड़ी बहन को फोन किया और पूछा कैसी हो दिद्दा? उनका जवाब था, ‘‘28-29 मार्च से घर से बाहर नहीं निकली हूं और अब डरती हूं कि कहीं कोरोना संग निकल ली, तो पीछे दोनों बच्चे परेशान होंगे। इसलिए सबके हिस्से के सामान की अलग-अलग पोटलियां और पुडि़या बना रही हूं।’’ आवाज में ठहरी उदासी से साफ जाहिर था कि वे पूरी तरह कोरोना एंग्जाइटी की गिरफ्त में हैं। उनका मूड बदलने के लिए मैंने उन्हें छेड़ते हुए कहा, ‘‘अरे दिद्दा, ‘पाउच’ के जमाने में आप पोटली और पुडि़या क्यों बना रही हैं। गिफ्ट की सुंदर पैकिंग कीजिए, जब बच्चे आपके पास आएं, तो अपने हाथों से दीजिएगा, बच्चे खुश होंगे और अच्छा भी लगेगा।’’ पर वे कहां सुनने वाली थीं? कोरोना के डर से इतनी दबी थीं कि बोलीं, ‘‘जब वीवीआईपी और वीआईपी कोरोना से नहीं बचे, तो मैं तो मामूली एलआईपी (लेस इंपॉर्टेंट पर्सन) हूं।’’ मुझे तो अपनी खैर मनानी चाहिए। कोरोना कभी भी मुझसे हाथ मिलाने आ सकता है। इसलिए सब काम समेट कर, लिफाफे बना कर, उस पर नाम का लेबल लगा कर रखना चाहती हूं, जिससे बच्चों के बीच मेरे जाने के बाद कोई झगड़ा और नाराजगी ना हो। कोई यह ना कहे कि मां झगड़े की जड़ छोड़ गयी। मेरी उम्र, जो मेरा प्लस पॉइंट थी, वह इस कोरोना की वजह से मेरी कमजोरी और कमी बन गयी है।’’

और सुनिए... एक परिवार के दादा जी जिनके लिए घर में कोई भी ‘नो गो’ एरिया नहीं था, ना ही कोई ‘स्टॉप जोन’ फिर भी आजकल परेशान रहते हैं। सिर्फ कुर्सी से बंधे रह गए हैं। बिस्तर पर लेटते हैं या फिर कुर्सी पर बैठे नजर आते हैं। घर के बच्चों को ताश की सारी तरकीबें सिखा चुके हैं, शतरंज की सारी चालें भी समझा चुके हैं... अब दादा जी खाली-खाली सा महसूस करते हैं। घर पर आजकल न्यूज पेपर आता नहीं, टीवी देखते-देखते आंखें थक जाती हैं, न्यूज चैनल डिप्रेशन बढ़ा जाते हैं। उस पर उनकी यह शिकायत कि नेता-अभिनेता की बीमारी सुर्खियों में रहती है और आम आदमी तो आंकड़ों के ढेर में दबा है... जिंदा या मुर्दा। यह सब उनके गुस्से और माहौल की वजह से उपजे डिप्रेशन को बढ़ा देता है। बिंदास रहनेवाला बंदा 3 महीने से घर के बाहर नहीं निकला। चुपचाप मौका निकाल जब घर से निकला, तो ऊब से इतना भरा था कि बच्चों को बताए बिना ही हरिद्वार की तरफ चल दिया। शुक्र है कि बच्चों ने किसी तरह उन्हें ढूंढ़ निकाला। उन्हें स्टेशन पहुंच कर पकड़ा। उनका हरिद्वार का टिकट फाड़ा और प्यार से समझा-बुझा कर उन्हें घर लाए। लेकिन एंग्जाइटी की इस नयी शक्ल ने पूरे परिवार को डरा कर रख दिया।

घर के बुजुर्गों व पेरेंट्स की मानसिक हालत कोरोना के समय में बहुत बिगड़ी है। उन्हें इमोशनली संभालना उनके बच्चों व यंग कपल्स के लिए चैलेंज की तरह उभरा है। घर के बड़े जो हमेशा अपने बच्चों को जिंदगी से लड़ना सिखाते थे, खुद लड़ना भूल गए हैं। उन्हें चारों तरफ परेशानी देखने को मिलती है। जवान बच्चों का वर्क फ्रॉम होम कुछ दिन तक तो अच्छा लगा, अब परेशान कर रहा है। छोटे बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई की तारें जोड़ने में सारी फैमिली जुटी है। घर का सारा सिस्टम उलट गया है। हर किसी का ‘मी टाइम’ कट गया है यानी सब कुछ तितर-बितर हो चुका है। बच कर निकलना चाहें भी तो कहां जाए? घर का दरवाजा बंद है, कॉलोनी के गेट और पार्क बंद, पब्लिक पार्क भी बंद।

बुजुर्गों के माइंड स्पेस को मौत की आंखमिचौली ने दबोच रखा है। हमारे बुजुर्ग दहशतभरे दौर से गुजर रहे हैं, क्योंकि हर घर कोरोना वायरस के अननेचुरल चैलेंज का सामना कर रहा है। मास्क और सैनिटाइजर शब्द तो रोटी कपड़ा मकान की तरह जरूरी हो गए हैं। वेंटिलेटर और ऑक्सीमीटर जबान पर चढ़ चुके हैं। जिंदगी कोरोना के बारे में सोच-सोच कर इतनी हलकान हो गयी है कि सोते-जागते किसी अनदेखे वेंटिलेटर पर ही टिकी महसूस होती है। कितने ही घरों में जहां थर्मामीटर देखने को नहीं मिलता था, उन्होंने ऑनलाइन ऑक्सीमीटर तक ऑर्डर कर दिया है। बच्चे घर के बुजुर्गों का पल्स रेट दिन में 3 बार मॉनिटर कर रहे हैं। अकेले रह रहे बुजुर्ग दंपतियों के डर और भी अलग हैं। लॉकडाउन का लगना, खुलना और फिर वापस लौटना उन्हें डराए रखता है। कोविड कहर की उतरती-चढ़ती लहर कई अजीबोगरीब, पर काफी हद तक सही डरों को पैदा करती है जैसे ‘हाय, हममें से कोई एक चला गया, तो दूसरा अकेला रह जाएगा... हमें कुछ हो गया, तो इन हालात में हमें देखने कौन आएगा? बच्चे हम तक कैसे पहुंचेंगे...अस्पताल में हमारी कितनी दुर्दशा होगी...’ यही नहीं उनका सबसे बड़ा डर है कि हाय, हॉस्पिटल बिल का साइज क्या होगा? उन्हें यह भी फिक्र है कि अस्पताल पहुंचने पर सारी जमापूंजी अस्पताल की भेंट चढ़ जाएगी और उनकी बीमारी का बोझ बच्चों के लिए एक नयी मुसीबत बन जाएगा। आसपड़ोस से आती बुरी खबरों और उनकी बढ़ती गिनती उनके मन को परेशान कर देती हैं। बड़ों को अगर यह तसल्ली ना हो कि उनको बीमारी के दौरान सही और बेसिक हेल्थ केअर नसीब होगी, तो उनके डरों का बढ़ना लाजिमी है। अफसोस की बात यह है कि इतने सालों के बाद भी हमारा पब्लिक हेल्थ सिस्टम हमारे एजुकेशन सिस्टम की तरह ही चरमराया हुआ है।

यह कैसा डर है, जिसकी कोई शक्ल नहीं और जो कोई भी शक्ल अख्तियार कर सकता है। कोविड 19 का पर्चा किसी घर की चौखट पर चिपका मौत का वॉरंट दिखता है। ध्यान रहे इस दौरान डर का भी एक धंधा चल पड़ा है। उस पर बीमारी का दूसरा डरावना पहलू है, एसिम्प्टोमैटिक पेशेंट यानी ऐसे मरीज, जिनमें बीमारी के कोई लक्षण तो नहीं हैं, पर वे सेहतमंद व्यक्ति तक कोरोना इन्फेक्शन पहुंचाने का जरिया बन जाते हैं। नतीजा हर इंसान शक के घेरे में है। इसे कोरोना... उसे कोरोना... कोरोना पेशेंट ह्यूमन बम जैसा लगता है। फिर डर... एक नया डर...

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परिवार फाइनेंशियल मुश्किलों से भी गुजर रहे हैं। नौकरी की तरफ से आता प्रेशर कि नौकरी आज है, हो सकता है कल नहीं रहे। यह फिक्र कि तनख्वाह हाथ में कितनी आएगी, कितनी कट जाएगी... इसके अलावा इस बात की घबराहट भी सता रही है कि अगर बीमार पड़ गए, तो खाएंगे क्या और इलाज के लिए कहां जाएंगे? बच्चों का कैरिअर संकट मां-बाप देख रहे हैं, चुपचाप झेल रहे हैं, कर कुछ सकते नहीं, अंदर ही अंदर घुले जा रहे हैं।

बुजुर्गों को वॉट्सएप के प्रणाम और फूलों के गुच्छे भी अब बोर करने लगे हैं, क्योंकि भविष्य से जुड़ी अनिश्चितता ने उनकी मेंटल हेल्थ को जाने-अनजाने बहुत नुकसान पहुंचाया है। आज के हालात में जरूरी है कि परिवार का हर व्यक्ति अपने व्यवहार को ‘सेल्फ कंट्रोल’ के टेस्ट से निकाले। हर किसी से बैलेंस बनाए रखने वाले व्यवहार की उम्मीद करना कोई बहुत बड़ी मांग नहीं। ध्यान रहे, बुजुर्ग पैनिक अटैक का सामना कर रहे हैं, जिसे वे ना तो आसानी से खुद समझ पाते हैं और ना ही सामनेवाले को समझा पाते हैं। शरीर पर ऐसा कुछ नजर नहीं आता, पर फिर भी दिल और दिमाग किसी अनदेखी कड़वाहट और जंजीर में जकड़े महसूस होते हैं।

वक्त ठहर सा गया है। लेकिन याद कीजिए हमारा बचपन ‘सच बोलो’ की नसीहत से शुरू होता है और हम सारी जिंदगी सचाई का राग अलापते रहते हैं। इस बार वाकई हमें खुले दिमाग से सच को समझना है, सच को स्वीकारना है और सच का सामना भी बहादुरी से करना है। बहादुरी डरों को दूर रखने और हिम्मत का हाथ थामने में है। माना फिलहाल इन हालात का सफर लंबा है, पर जिंदगी भी डरों सेे हारना नहीं हो सकती। कोरोना से तो कतई नहीं।